आदिवासी और अफ्रीका के संबंध पर आधुनिक भारतीय सोच को बड़े पैमाने पर ब्रिटिश राज ने आकार दिया. उनकी सोच स्वतंत्र भारत की सरकारों से भी जुड़ी रही. जब आदिवासियों को लेकर अलग सोच देश के नौकरशाहों के बीच आम था, तब केरल के राजस्व विभाग के एक अधिकारी ने अलग राह चुनी.
1958 में, 31 वर्षीय कुन्नीरामन पनूर को उत्तरी केरल के वायनाड में एक आदिवासी कल्याण अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया. अगले पांच सालों में उन्होंने वायनाड की पहाड़ियों के कुछ दुर्गम इलाकों की यात्रा की, और यहां बसे कोरागर, कुरिचिया, पनिया और अडिया आदिवासियों से मुलाक़ात की.
उन पांच सालों का परिणाम का ‘केरल में एक अफ्रीका’ नाम की एक किताब. हरे-भरे जंगलों से बने पश्चिमी घाट पर लिखी ‘केरल में एक अफ्रीका’ उत्तरी केरल के आदिवासियों के जीवन की मुश्किलों को उजागर करने वाली पहली मलयालम किताब थी.
किताब के शीर्षक में अफ्रीका शब्द का प्रयोग यह दिखाने के लिए किया गया था कि आदिवासियों के बीच सामाजिक, स्वास्थ्य और समग्र मानव विकास कारक उतने ही बुरे थे जितने उस समय सब-सहारन अफ्रीका में कुछ जनजातियों के थे.
‘केरल में एक अफ्रीका’ आदिवासी रीति-रिवाज़ और इतिहास पर लिखी गई कोई साधारण किताब नहीं है. इससे पाठक को विभिन्न आदिवासी समूहों की संस्कृति, रीति-रिवाज़ों और इतिहास की बेहतर समझ मिलती है. उदाहरण के लिए, इसमें कुरीचिया आदिवासियों की social hierarchy की व्याख्या है, जिसके नेता – मूपन – एक राजा, आध्यात्मिक नेता और डॉक्टर सभी कुछ हैं.
पनूर किबात में कुरिचिया आदिवासी समुदाय की कहानी लिखते हैं, जिन्होंने पझस्सी राजा के प्रति वफादारी की शपथ. पझस्सी राजा ने 13 साल तक ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ़ युद्ध लड़ा था. कुरिचिया समुदाय के महान तीरंदाज तलक्कल चंदु के नेतृत्व में इन आदिवासियों ने राजघराने को अंग्रेजों से बचाने में मदद की.
उनके दुश्मनों के पास हथियार बेहतर थे, लेकिन असाधारण तीरंदाज़ी कौशल और जंगल वॉरफ़ेयर ने ईस्ट इंडिया कंपनी को एक दशक तक इलाक़े से दूर रखा.
कुन्नीरमन पनूर आदिवासियों को आदिम लोगों के समूह के रूप में देखने के बजाय, पढ़ने वालों में उन समुदायों के लिए सहानुभूति पैदा करते हैं, जो प्रकृति के साथ मिलकर रहते हैं और जिन्हें बाहरी दुनिया से ख़तरा है. यह किताब केरल के आदिवासियों की दुर्दशा के बारे में ईमानदारी से और डीटेल में जानकारी देती है.
यह उस समय के केरल के आदिवासियों को एक अलग-थलग, वंचित और विस्थापित लोगों के रूप में दर्शाती है, जिनका जीवन स्वतंत्र भारत में शायद बदतर ही हुआ है.
किताब में लिखी गई बातों की सच्चाई का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार ने इसे बैन कर दिया था. बैन ज़्यादा समय तक नहीं रहा, और अब ‘केरल में एक अफ्रीका’ छात्रों, शोधकर्ताओं और सरकारी अधिकारियों तीनों के लिए सूचना का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है.
उत्तरी केरल के जंगलों में पनूर के अनुभवों ने उन्हें आदिवासियों के कल्याण के लिए कई पहल करने के लिए प्रेरित किया. वायनाड से ट्रांस्फ़र के बाद भी.
‘केरल में एक अफ्रीका’ में पनूर ने लिखा है कि कैसे शिक्षा की कमी और गैर-आदिवासी समुदाय से बहिष्कार आदिवासियों के और शोषण की वजह बनी. और इसी से कुछ ज़रूरी सवाल निकलते हैं. क्या आदिवासियों को पूरी तरह से मुख्यधारा में शामिल करना सरकार और आधुनिक समाज का अंतिम लक्ष्य है? क्या आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली किसी प्रकार का रामबाण इलाज है?
इन सवालों पर बहस लंबी और पुरानी है. लेकिन यह बात भी सच है कि जहां आदिवासियों को शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं का अधिकार है, उन्हें अपनी संस्कृति और पारंपरिक आजीविका की रक्षा करने का अधिकार भी होना ही चाहिए.
(यह आर्टिकल अंग्रेज़ी में onmanorama.com पर छपा था. इसे लेखक अजय कमलकारन ने लिखा है.)