HomeAdivasi Dailyवन अधिकार कानून को लेकर सरकार की पहल - कागज़ी या क्रांतिकारी?

वन अधिकार कानून को लेकर सरकार की पहल – कागज़ी या क्रांतिकारी?

भारत में लाखों आदिवासी पीढ़ियों से जंगलों में रहकर अपनी आजीविका चला रहे हैं. वन अधिकार कानून के बावजूद, सही दस्तावेज़ न होने के कारण इन समुदायों को इनकी भूमि से बेदखल कर दिया जाता है, इसलिए यह सरकार का एक अत्यंत महत्तवपूर्ण कदम है, लेकिन ज़मीन पर अवैध बेदखलियां जारी रहती हैं तो इस पहल का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा.

सरकार ने एक ऐसा कदम उठाया है जो देश के लाखों आदिवासियों के जीवन में बड़ा बदलाव ला सकता है.

केंद्र सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि 1 जून 2025 से पूरे देश में वन अधिकार कानून 2006  (FRA) को लेकर व्यापक जनजागरूकता अभियान चलाया जाएगा.

इस अभियान के तहत आदिवासियों को वन अधिकार कानून (FRA) 2006 के तहत उनके अधिकारों के बारे में जानकारी दी जाएगी.

जनजातीय कार्य मंत्रालय ने कहा है कि यह अभियान “आदिवासी समुदायों को उनके कानूनी अधिकारों के प्रति सजग करने और प्रशासनिक प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने” की दिशा में एक बड़ा कदम होगा.

सरकार ने दावा किया है कि यह अभियान केवल कागजी नहीं होगा बल्कि ज़मीन पर उतरकर आदिवासियों को बताया जाएगा कि वे कैसे अपने जंगल, ज़मीन और संसाधनों पर अधिकार का दावा कर सकते हैं.

उन्हें बताया जाएगा कि दावा कैसे किया जाए, किन दस्तावेजों की जरूरत होती है और सरकार की कौन-कौन सी योजनाएं उनके लिए हैं.

गांव-गांव जाकर होगा काम

जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने बताया है कि यह अभियान हर जिले और राज्य स्तर पर चलाया जाएगा. इसकी कमान जिला प्रशासन और एफआरए से जुड़े अधिकारी संभालेंगे.

गांवों में ग्राम सभाएं बुलाई जाएंगी और लोगों को व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों की जानकारी दी जाएगी.

यह कदम क्यों है ज़रूरी?

वन अधिकार कानून 2006 उन लाखों आदिवासियों को मान्यता देता है जो पीढ़ियों से जंगलों में रहते आए हैं लेकिन अब भी उनके पास कानूनी ज़मीन के दस्तावेज नहीं हैं.

दस्तावेज़ न होने के कारण  ये समुदाय हर समय बेदखली, विस्थापन और उत्पीड़न के खतरे में रहते हैं.

लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ जनजागरूकता अभियान पर्याप्त है क्योंकी ज़मीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां कर रही है.

सुप्रीम कोर्ट का आदेश और खारिज दावे

सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में एक आदेश जारी किया था जिसमें कहा गया था कि जिन 17 लाख आदिवासी परिवारों के FRA दावे खारिज हुए हैं, उन्हें वनों से हटाया जाए.

हालांकि देशभर में विरोध के बाद कोर्ट ने यह आदेश रोक दिया था और राज्यों को निर्देश दिए थे कि वे खारिज दावों की निष्पक्ष समीक्षा करें. लेकिन 2025 तक हालात ज्यों के त्यों हैं.

केंद्र सरकार ने मार्च 2025 के बजट सत्र में स्वीकार किया कि आज भी करीब 1.8 लाख दावों की स्थिति “खारिज” ही है. यानी अब तक इन दावों पर गंभीरता से कोई चर्चा नहीं हुई है.

बाघ परियोजना के नाम पर विस्थापन

जून 2024 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) ने कई टाइगर रिज़र्व से लोगों को हटाने के आदेश जारी किए थे.

इसके बाद जनवरी 2025 में जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने राज्यों को पत्र भेजकर आगाह किया कि FRA के तहत बेदखलियां अवैध हैं और तुरंत रोकी जानी चाहिए.

इसके बावजूद अब तक 1 लाख से ज़्यादा लोग विस्थापित हो चुके हैं.

64,801 लोग केवल बाघ अभयारण्यों के कोर क्षेत्रों से जबरन हटाए गए हैं, जिसमें अधिकतर आदिवासी शामिल हैं. ज़्यादातर मामलों में ग्राम सभाओं को विश्वास में नहीं लिया गया.

Land Conflict Watch के अनुसार, 2016 से अब तक 117 ज़मीनी संघर्ष के मामले वन अधिकार कानून से जुड़े हैं और इनसे करीब 6,11,557 लोग प्रभावित हुए हैं. इस विश्लेषण के मुताबिक 88% मामलों में FRA के प्रावधानों की अनदेखी, 49% मामलों में कानूनी अधिकारों की रक्षा नहीं हुई और 40% मामलों में जबरन बेदखली हुई है.

क्या जनजागरूकता से हल होगा संकट?

जनजागरूकता ज़रूरी है लेकिन अगर खारिज दावों की निष्पक्ष जांच नहीं होती और ज़मीन पर अवैध बेदखलियां जारी रहती हैं तो यह अभियान सिर्फ़ एक सरकारी औपचारिकता बनकर रह जाएगा.

जब तक सरकार ग्राम सभाओं को सशक्त नहीं करती, राज्य स्तर पर जवाबदेही तय नहीं होती और तब तक आदिवासी समुदायों का अधिकार सिर्फ कागज़ों तक सीमित रहेगा.

सरकार की यह पहल एक उम्मीद की किरण हो सकती है लेकिन यह तभी सफल होगी जब उसे वास्तविक इच्छाशक्ति और ज़मीन पर निष्पक्षता से जोड़ा जाए.

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