HomeAdivasi Dailyकरसाड़ पर्व: क्या और क्यों बदलाव हो रहे हैं

करसाड़ पर्व: क्या और क्यों बदलाव हो रहे हैं

करसाड़ पर्व गोंड आदिवासियों का एक महत्वपूर्ण सामाजिक और धार्मिक गतिविधि है. लेकिन समय के साथ इस पर्व को मनाने के तरीके बदले हैं. इन बदलावों के कई राजनीतिक और सामाजिक कारण हैं.

करसाड़ गोंड आदिवासियों का एक पवित्र धार्मिक उत्सव होता है. इसे आप गोंड़ आदिवासियों के जीवन और मृत्यु के बीच के उस पुल के रूप में समझ सकते हैं जहां प्रकृति, परंपरा और पुरखें मिलते हैं.

करसाड़ दो प्रकार का होता है. एक जीवितों का करसाड़ होता है जो दैवीय उत्सव होता है. दूसरा मृत्यु के बाद श्राद्ध अनुष्ठान की तरह होता है.

दैवीय उत्सव में मनाए जाने वाले करसाड़ में देवी-देवताओं को आमंत्रित किया जाता है और वे क्रीड़ा करते हैं, खेलते हैं, नाचते हैं और आशीर्वाद देते हैं.

किसी व्यक्ति की मृत्यु उपरांत होने वाले करसाड़ में आत्माओं की उपस्थिति में देवताओं और आत्माओं की क्रीड़ा होती है.

छत्तीसगढ़ के पत्रकार और गोंड समुदाय से संबंध रखने वाले मनकु नेताम के अनुसार करसाड़ शब्द का अर्थ ही खेलना होता है. दोनों रुपों में आत्माएं ही खेलती हैं. इन आत्माओं, देवताओं या पूर्वजों को ‘पेन’ कहा जाता है.

इस उत्सव के सिलसिले में जो लेख मिलते हैं उनके अनुसार करसाड़ की तैयारी करीब दो महीने पहले से शुरु हो जाती है. इसमें सबसे पहला कदम ‘नेवता’ होता है.

नेवता का मतलब होता है सभी ‘पेन’ को औपचारिक निमंत्रण देना. इसमें सबसे ज़रूरी होता है उसेह मुदिया (एक पूर्वज देवता) को निमंत्रण देना क्योंकि इस पर्व पर खास तौर से उसेह मुदिया और उनके परिवार की ही पूजा की जाती है.

जब ये देवता आते हैं तो ‘पेन नेगों’ नामक रीति से इनका स्वागत किया जाता है. पहली रात को इन देवताओं का मिलन चलता है, जिसे ‘पेन समागम’ कहा जाता है. दूसरे दिन ‘सेवा-अर्ज़ी’ यानी भेंट देने के बाद पेनों को विदा किया जाता है.

क्रीड़ा के अलावा इस उत्सव में भोजन के साथ विशेष गीत – संगीत और नृत्य का आयोजन भी होता है.

इस उत्सव से जुड़ी पूजा पद्धति में बलि चढ़ाने की परंपरा मुख्य रुप से शामिल है. पूजा में मुख्य रूप से मुर्गे और बकरे की बलि दी जाती है. इसके अलावा गाय और बैल की बलि भी इस पूजा में दी जाती है.

इस सिलसिले में मनकु नेताम कहते हैं, “किसी ज़माने में गाय और बैल की बलि सार्वजनिक तौर पर चढ़ाई जाती थी. लेकिन आज के समय में गाय या बैल की बलि छुपकर दी जाती है.”

आदिवासी पर्व करसाड़ में गाय-बैल की बलि शायद इसलिए छुप कर दी जाती है क्योंकि अब कई राज्यों मे गाय के वध को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया है.

कुछ स्थानों पर बिना बलि के भी, सिर्फ़ नींबू और नारियल जैसी चीजों से भी ये पूजा संपन्न होती है. इससे पता चलता है कि अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीके और रीति – रिवाज़ के साथ इस उत्सव को मनाया जाता है.

इतना ही नहीं, यह पर्व हर क्षेत्र में अलग-अलग समय पर सामूहिक सहमति से एक तिथि निश्चित करके मनाया जाता है. कहीं करसाड़ हर साल मनाया जाता है, कहीं हर पांच साल में तो कहीं हर सात साल में यह पर्व मनाया जाता है.

यह पर्व छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले और बस्तर संभाग के इलाकों में, झारखंड़ के लोहरदग्गा और गुमला के अलावा उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ आदिवासी इलाकों में भी मनाया जाता है. लेकिन इसे छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले के मोड्डेमरका के जंगलों में सबसे अधिक उत्साह से मनाया जाता है.

इस पर्व से जुड़ी लोककथा या मान्यताएं

इस पर्व के प्रमुख देवता उसेह मुदिया से जुड़ी दो मान्यताएं हैं. गोंड संस्कृति के अध्ययनकर्ता डॉ. सूर्या बाली के हवाले से कहा जाता है कि उसेह मुदिया लोहे के आविष्कारक थे. उन्हें आग और धातु की जानकारी देने वाला माना जाता है. अगड़िया असुर समुदाय भी इन्हें अपना पूर्वज मानते हैं.

वहीं बस्तर की आदिवासी लेखिका डॉ. किरण नुरेटी ने अपनी किताब ‘बस्तर के गोंड़ जनजाति की धार्मिक अवधारणा’ में उन्होंने एक दूसरी कहानी का ज़िक्र किया है. इस लोककथा के अनुसार, दक्षिण बस्तर की तुलार मट्टा पर्वत श्रंखला में एक उंचे पहाड़ की चोटी पर एक समतल चट्टान है. इस चट्टान पर बनी एक प्राकृतिक आकृति को मड़िया गोंड जनजाति ने सदियों पहले आंगा पेन यानी देवता मान लिया था और उसकी पूजा शुरु कर दी थी.

इस पहाड़ पर चढ़ना कठिन था इसलिए वहां जाकर बार-बार पूजा करने में मुश्किल होती थी. इस वजह से गांववालों ने नीचे गांव में ही लकड़ी की वैसी ही आकृति बनाकर स्थापित कर दी.

उत्सुक होकर बच्चों ने भी बची हुई लकड़ी का इस्तेमाल करके, उसी विधि से एक मूर्ति बनाकर जंगल में छिपा दी. इस मूर्ति को नाम दिया गया ‘उसेह मुदिया’ बच्चे वहां जाकर खेल-खेल में पूजा करते और इसी खेल को करसाड़ कहा जाने लगा.

जीव बलि की परंपरा देने के लिए बच्चे अक्सल जंगल के एक पक्षी की बलि चढ़ाते थे. लेकिन एक दिन बच्चों ने बकरे की बलि देने का नाटक किया. एक बच्चे को बकरा बनने के लिए कहा गया और घास की तलवार से बलि देने का नाटक हुआ लेकिन बच्चा सच में मर गया. बच्चे ड़रकर भाग गए.

इसी बीच, बच्चों द्वारा बनाई मूर्ति में जान आ गई और वह शेर का रूप लेकर गांव वालों को ड़राने लगी.

गांववालों ने शेर को मारने की योजना बनाई और उसे घायल कर दिया. शेर मूर्ति के पास पहुंचने तक भागता रहा और मूर्ति के पास जाकर खून के निशान खत्म हो गए. वहां पड़ी आंगा पेन की मूर्ति में वो तीर धंसा मिला जो शेर को लगा था.

इसके बाद सच सामने आया और गांव वालों को सब समझ में आया. तब गांववालों ने बच्चों को इसे दूर फेंक कर आने के लिेए कहा. बच्चे मूर्ति को लेकर भोमरागढ़ के जंगल में गए. वहां आंचला (गोंड के 750 गोत्रों में से एक) परिवार की महिलाएं लकड़ी लेने गई हुईं थी, उन्होंने बच्चों से पूरी कहानी जानने के बाद, उनसे कहा कि इसे फेंको मत, हमें दे दो, हमारे पास देव नहीं हैं. इसके बाद महिलाओं ने वहीं मोड्डेमरका के जंगल में स्थापित कर दिया. इसके बाद इसकी पूजा की जाने लगी.

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