ओडिशा के मयूरभंज जिले के गोपबंधु नगर ब्लॉक के आदिवासी महुआ के फूल और साल के बीज जैसे मूल्यवान वन उत्पादों को औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर हैं. पर्याप्त सरकारी सहायता प्राप्त बुनियादी ढांचे और मूल्य निर्धारण तंत्र की कमी के कारण आदिवासी ऐसा करने को मजबूर हैं.
यहां की स्थानीय आदिवासी आबादी मुख्य रूप से खेती और लघु वनोपज (MFP) के संग्रह और बिक्री के माध्यम से अपना जीवन यापन करती है.
कई आदिवासी बहुल गांवों के निवासियों ने बताया कि खेती के मौसम की समाप्ति के बाद वे करीब छह महीने तक लघु वन उपज जैसे – झाड़ू घास, शहद, लाख, चारकोली, महुआ और साल के बीज इकट्ठा करने में बिताते हैं, जो उनके लिए आय का महत्वपूर्ण स्रोत हैं.
लेकिन निष्पक्ष बाजार व्यवस्था की कमी ने उनकी आर्थिक स्थिति को खराब कर दिया है जिससे वे दुखी हैं.
कई स्थानीय निवासियों ने कहना है कि पिछले महीने हमने महुआ के फूल इकट्ठा किए; अब हम पारंपरिक चकोली और साल के बीज इकट्ठा कर रहे हैं.
उन्होंने आरोप लगाया कि व्यापारी अक्सर दूरदराज के गांवों में जाकर इन सामानों को बहुत ही कम कीमत यानि 7 से 10 रुपये प्रति किलोग्राम के बीच में खरीद लेते हैं और बाद में उन्हें कहीं और बहुत ऊंचे दामों पर बेच देते हैं.
उन्होंने कहा कि क्योंकि कोई आधिकारिक रूप से निर्धारित मूल्य या औपचारिक बाजार तंत्र नहीं है इसलिए बिचौलिए और एजेंट स्थिति का फायदा उठा रहे हैं.
साल 2008 में राज्य सरकार ने ग्राम पंचायतों को लघु वन उपज की खरीद की सुविधा प्रदान करने का निर्देश दिया था. लेकिन ग्रामीणों ने कहा कि तब से ब्लॉक या पंचायत स्तर पर कोई क्रियान्वयन नहीं हुआ है.
ऐसे में आदिवासी संग्राहक अक्सर उपज को घर पर खराब होने देने के बजाय उसे औने-पौने दामों पर बेचने के लिए मजबूर होते हैं. इस मुद्दे ने आदिवासी समुदायों में असंतोष पैदा कर दिया.
क्षेत्र के बुद्धिजीवियों का तर्क है कि वन उपज के लिए विनियमित बाजार (मंडियां) खोलने से आदिवासियों को आय और आर्थिक सुरक्षा का उचित अवसर मिल सकता है.
वहीं वनपाल केएल सरेन ने भी स्वीकार किया कि वर्तमान में इन वस्तुओं के मूल्य निर्धारण या खरीद को संबोधित करने के लिए कोई सक्रिय सरकारी उपाय नहीं हैं.