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वायनाड सभी आदिवासियों को बुनियादी दस्तावेज प्रदान करने वाला देश का पहला जिला बना

आदिवासी इलाकों के निवासी इस पहल से बेहद खुश हैं. क्योंकि कि दस्तावेजों की कमी के कारण उन्हें कोरोना महामारी के दौरान मुफ्त राशन देने से इनकार कर दिया गया था लेकिन अब ऐसा नहीं होगा.

केरल का वायनाड सभी आदिवासियों को आधार कार्ड, राशन कार्ड, जन्म/मृत्यु प्रमाण पत्र, चुनाव पहचान पत्र, बैंक खाते और स्वास्थ्य बीमा जैसी बुनियादी दस्तावेज और सुविधाएं प्रदान करने वाला देश का पहला जिला बन गया है.

वायनाड जिला प्रशासन ने अक्षय बिग कैंपेन फॉर डॉक्यूमेंट डिजिटाइजेशन (ABCD) अभियान के हिस्से के रूप में 64,670 आदिवासी लाभार्थियों को 1,42,563 सेवाएं प्रदान करके सराहनीय उपलब्धि हासिल की है.

इस एबीसीडी अभियान के माध्यम से 15 हज़ार 796 परिवारों को राशन कार्ड, 31 हज़ार 252 को आधार कार्ड, 11 हज़ार 300 को जन्म प्रमाण पत्र, 22 हज़ार 488 को मतदाता पहचान पत्र और 22 हज़ार 888 व्यक्तियों को डिजिटल लॉकर की सुविधा दी गई. ड्राइव नवंबर 2021 में थोंडारनाडू ग्राम पंचायत में शुरू किया गया था.

आदिवासी इलाकों के निवासी इस पहल से बेहद खुश हैं. क्योंकि कि दस्तावेजों की कमी के कारण उन्हें कोरोना महामारी के दौरान मुफ्त राशन देने से इनकार कर दिया गया था लेकिन अब ऐसा नहीं होगा.

मीनांगडी ग्राम पंचायत के कुंडुवयाल टोले के एक अशिक्षित आदिवासी, 38 वर्षीय राजन ने कहा, “मैं कुछ हफ्ते पहले मीनांगडी में वायनाड जिला प्रशासन द्वारा आयोजित एबीसीडी अभियान में शामिल हुआ था. अब मुझे आधार कार्ड और राशन कार्ड जैसे बुनियादी दस्तावेज मिल गए हैं, तो मैं सरकार की योजनाओं का लाभ उठा सकता हूं. इस अभियान को एक आदिवासी प्रमोटर द्वारा निर्देशित किया गया था.”

वहीं थविन्हाल ग्राम पंचायत की गोदावरी आदिवासी बस्ती की 28 वर्षीय श्रुतिशा का 2018 की बाढ़ के दौरान राशन कार्ड खो गया था. इसके बाद उन्होंने एक नए राशन कार्ड के लिए कई कार्यालयों से संपर्क किया था लेकिन “तकनीकी कारणों” के कारण उन्हें मना कर दिया गया था. हालांकि अब उन्हें एबीसीडी अभियान से न सिर्फ एक राशन कार्ड बल्कि अपने पिता के लिए बैंक खाता, स्वास्थ्य बीमा और कल्याण पेंशन जैसी अन्य सुविधाएं भी प्राप्त हुई हैं. अधिकारियों ने डिजिटल लॉकर में सभी दस्तावेज भी अपलोड किए हैं.

वायनाड जिला कलेक्टर ए गीता ने द हिंदू को बताया, “हमने राजस्व और जनजातीय विकास विभागों, जिला आईटी मिशन और स्थानीय प्रशासनिक निकायों के सहयोग से अब तक जिले भर में 26 अभियान चलाए हैं.”

उन्होंने कहा कि अभियान का उद्देश्य अनुसूचित जनजाति समुदायों से संबंधित सभी नागरिकों के लिए बुनियादी दस्तावेज सुनिश्चित करना है. इन दस्तावेजों को डिजिटल रूप दिया गया है और उनके लिए खोले गए डिजिलॉकर खातों में सहेजा गया है.

वहीं वायनाड उप-कलेक्टर आर. श्रीलक्ष्मी के अनुसार, सभी संबंधित विभागों को एक शिविर में एक छत के नीचे लाया जाता है इसलिए प्रत्येक लाभार्थी को शिविर में ही सभी आवश्यक सेवाएं मिलती हैं. जिससे उनके कई कार्यालयों का दौरा करने के समय और मेहनत की बचत होती है.

लक्ष्मी, जो कार्यक्रम की नोडल अधिकारी भी हैं, ने कहा कि बुनियादी दस्तावेजों के अलावा, शिविरों में आय प्रमाण पत्र, स्वामित्व प्रमाण पत्र, आयु प्रमाण पत्र और नई पेंशन के लिए आवेदन जैसी अन्य सेवाएं भी प्रदान की जाती हैं.

उन्होंने कहा कि डिजिलॉकर के माध्यम से दस्तावेजों को डिजिटल करने से दस्तावेजों के खो जाने या क्षतिग्रस्त होने की स्थिति में लाभार्थियों को आसानी से इसे दोबारा प्राप्त करने में मदद मिलेगी.

देश के अन्य राज्यों में भी अभियान चलना चाहिए

केरल में आदिवासियों को सभी ज़रूरी दस्तावेज़ उपलब्ध कराने के अभियान की तर्ज़ पर ऐसे अभियान को अन्य राज्यों में भी चलाया जाना चाहिए.

क्योंकि इन दस्तावेज़ों के अभाव में आदिवासी परिवार सरकार की कई कल्याण योजनाओं से वंचित रह जाते हैं. झारखण्ड से साल 2017 में सिमडेगा जिले के कारीमाटी गांव की 11 वर्षीया संतोष कुमारी की मौत ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था.

‘माई भात दे, थोड़ा भात दे’ कहते-कहते उस बच्ची ने मां कोयली देवी की बांहों में दम तोड़ दिया था. यह पूरा परिवार कई दिनों से भूखा था.

राशन कार्ड का आधार से लिंक न होने के चलते उनका नाम लिस्ट से हटा दिया गया था और इस परिवार को राशन नहीं मिल रहा था.

उस समय एक ही महीने में झारखंड के ही दो अन्य क्षेत्रों से भी राशन कार्ड रद्द कर दिए जाने या अन्य कारणों से राशन न मिलने के चलते भूखमरी की दो अन्य खबरें आई थीं.

इसी तरह से स्कूलों के दाख़िले और स्कॉलरशिप के मामले में भी अक्सर देखा जाता है कि जाति प्रमाणपत्र या आय प्रमाणपत्र की वजह से आदिवासी छात्र परेशान होते हैं.

कई बार जनजाति प्रमाण-पत्र जारी करने में तकनीकी भूल या लापरवाही भी की जाती है. इसकी वजह से आदिवासी परिवारों को परेशान होना पड़ता है.

अनुसूचित जनजाति प्रमाणपत्र बनवाने के लिए आदिवासी परिवारों को धक्के खाने पड़ते हैं. इस काम में इन परिवारों को काफ़ी पैसा भी ख़र्च करना पड़ता है.

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में प्रमाणपत्र बनवाने नोटरी से शपथपत्र बनवाने के अलावा कोटवार और पटवारी से भी प्रमाणपत्र, स्कूल की टीसी, मीसल रिकार्ड आदि लेने पड़ते हैं.

तब तहसीलदार 6 महीने के लिए अस्थायी प्रमाणपत्र जारी करता है. फिर एसडीएम स्थायी प्रमाणपत्र बनाता है. इसका सत्यापन ट्राइबल विभाग की हाई पावर कमेटी करती है.

आज कर सरकार की ज़्यादातर कल्याण योजनाएँ आधार से लिंक कर दी गई हैं. लेकिन इसके बावजूद अलग अलग सरकारी विभागों में काम के लिए अलग अलग दस्तावेज़ों की ज़रूरत पड़ती है.

दस्तावेज़ों की कमी का ख़ामियाज़ा विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति के लोगों को ज़्यादा भुगतना पड़ता है. क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति बेहद ख़राब है.

इन समुदायों में से ज़्यादातर में से दूसरे समुदायों की तुलना में जन्म दर की औसत कम है और मृत्यु दर अधिक है. इन समुदायों को अगर समय से राशन या इलाज ना मिले तो यह इनके लिए बेहद घातक साबित होता है.

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