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पचमढ़ी अभयारण्‍य का नाम बदलकर आदिवासी राजा भभूत सिंह के नाम पर रखा गया

गोंड शासक भभूत सिंह के योगदान के कारण पचमढ़ी का ऐतिहासिक महत्व है. सिंह ने शासन, सुरक्षा और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करने के लिए पहाड़ी इलाकों का उपयोग किया.

मध्य प्रदेश की संस्कृति और विरासत को बढ़ावा देने के लिए मंगलवार को पर्यटन स्थल राजभवन पचमढ़ी में मुख्यमंत्री मोहन यादव की अध्यक्षता में मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल की बैठक आयोजित की गई.

कैबिनेट बैठक से पहले मंत्रियों को संबोधित करते हुए सीएम यादव ने घोषणा की कि पचमढ़ी वन्यजीव अभयारण्य (Pachmarhi Wildlife Sanctuary) को अब आदिवासी राजा भभूत सिंह पचमढ़ी अभयारण्य (Raja Bhabhut Singh Pachmarhi Sanctuary) के रूप में जाना जाएगा.

जो पर्यावरण संरक्षण और औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ प्रतिरोध के लिए महान आदिवासी योद्धा की आजीवन प्रतिबद्धता का सम्मान करता है.

सीएम ने कहा कि यह अभयारण्य राजा भभूत सिंह के जीवन, साहस और विरासत को प्रदर्शित करेगा. जिससे क्षेत्रीय गौरव और पहचान को बढ़ावा मिलेगा.

सीएम यादव ने राजा भभूत सिंह को आदिवासी वीरता और गरिमा का प्रतीक बताया.

सीएम ने कहा, “अभयारण्य में राजा भभूत सिंह के जीवन, संघर्ष, वीरता और योगदान से संबंधित जानकारी को प्रदर्शित किया जाएगा. यह कदम न केवल स्थानीय गौरव को बढ़ावा देगा बल्कि अभयारण्य की पहचान को भी मजबूत करेगा. यह क्षेत्र के ऐतिहासिक और प्राकृतिक महत्व का प्रतीक बनेगा.”

मुख्यमंत्री यादव ने बताया कि राजा भभूत सिंह सन् 1857 में आजादी की लड़ाई में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तात्या टोपे के मुख्य सहयोगी थे. अपनी छापामार युद्ध नीति के कारण ही भभूत सिंह नर्मदांचल के शिवाजी कहलाते हैं.

उन्होंने कहा कि राजा भभूत सिंह एक ऐसा नाम हैं, जो केवल कोरकू समाज का नहीं, पूरे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का गौरव है. उनका जीवन आदिवासी अस्मिता, देशभक्ति, और आध्यात्मिक शक्ति का जीवंत उदाहरण है. राजा भभूत सिंह का जीवन अनुकरणीय है, उनके बलिदान और शौर्य की गाथा को राष्ट्रीय पटल पर लाना हम सभी का नैतिक कर्तव्य है.

कौन थे राजा भभूत सिंह?

गोंड राजा भभूत सिंह का जन्म हर्राकोट रायखेड़ी के एक जागीरदार परिवार में हुआ था, जो पचमढ़ी के स्वामी ठाकुर अजीत सिंह के वंशज थे. वह गोंड जनजाति के एक महत्वपूर्ण राजा थे, जिनका साम्राज्य जबलपुर और सतपुड़ा पहाड़ियों तक फैला हुआ था.

1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया, जंगलों और पहाड़ी रास्तों का उपयोग करके कई जीत हासिल की.

उनकी रणनीतिक सूझबूझ और नेतृत्व ने स्थानीय लोगों में आत्मविश्वास जगाया.

राजा भभूत सिंह ने जल,जंगल,जमीन को बाहरी आक्रमणकारियों और ब्रिटिश सेना से बचाने के लिए आदिवासी समुदाय को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

वह न केवल एक योद्धा थे बल्कि लोगों के कल्याण के लिए समर्पित एक नेता भी थे. युद्ध के दौरान घायल हुए सैनिकों के लिए औषधीय प्रथाओं का उनका व्यापक ज्ञान अमूल्य साबित हुआ.

उन्होंने ब्रिटिश शासन का सक्रिय रूप से विरोध किया और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महान स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे को समर्थन दिया.

तात्या टोपे के आह्वान पर राजा भभूत सिंह स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए और सुरम्य सतपुड़ा घाटियों में आगे बढ़ गए.

ऐसा कहा जाता है कि तात्या टोपे और उनकी सेना ने आठ दिनों तक पचमढ़ी में डेरा डाला और नर्मदांचल क्षेत्र में भभूत सिंह के साथ मिलकर क्रांतिकारी कार्रवाई करने की योजना बनाई.

हर्राकोट के जागीरदार के रूप में भभूत सिंह का आदिवासी समुदाय पर महत्वपूर्ण प्रभाव था, जिसने उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया.

सतपुड़ा के बीहड़ इलाकों को समझने से जुड़ी उनकी महारत ने उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ प्रभावी गुरिल्ला युद्ध का नेतृत्व करने में सक्षम बनाया.

उन्होंने तीन साल तक जंगल में शरण लेकर ब्रिटिश शासन का विरोध किया था. वे मधुमक्खियों के छत्तों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने में माहिर थे.

पहाड़ी रास्तों से अपरिचित अंग्रेजों पर बार-बार घात लगाकर हमला किए गए जिससे वे निराश हो गए. ऐतिहासिक संदर्भों से पता चलता है कि भभूत सिंह की सैन्य शक्ति शिवाजी महाराज के बराबर थी.

शिवाजी महाराज की तरह वह हर पहाड़ी दर्रे से अच्छी तरह परिचित थे और उन्होंने युद्धों के दौरान अपने इस ज्ञान का लाभ उठाया. इसमें डेनवा घाटी में हुआ एक महत्वपूर्ण संघर्ष भी शामिल था, जिसमें ब्रिटिश सेना की ‘मद्रास इन्फैंट्री’ को हार का सामना करना पड़ा.

ब्रिटिश इतिहासकार इलियट ने उल्लेख किया कि राजा भभूत सिंह को पकड़ने के लिए ‘मद्रास इन्फैंट्री’ को विशेष रूप से तैनात किया गया था.

इसके बावजूद सिंह और उनकी सेना ने 1860 तक सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से ब्रिटिश नियंत्रण का विरोध करना जारी रखा और विशेष रूप से 1857 के विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

1860 में अंग्रेजों की पकड़ में आए

हालांकि, दो साल की खोजबीन के बाद आखिरकार अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ लिया.

बताया जाता है कि 1860 में उन्हें जबलपुर में मौत की सजा सुनाई गई थी. कुछ खातों से पता चलता है कि उन्हें फांसी दी गई थी जबकि अन्य का दावा है कि उसे गोलियों से छलनी कर दिया गया था.

राजा भभूत सिंह के किले के अवशेष आज भी मौजूद हैं मढ़ई और पचमढ़ी के बीच घने जंगल में इमारत का प्रवेश द्वार और अगरिया लोहारों की भट्टियां मौजूद हैं जो साबित करती हैं कि वे न केवल किले बनाने में शामिल थे बल्कि बड़े पैमाने पर हथियार बनाने की क्षमता भी रखते थे.

राजा भभूत सिंह एक प्रतिष्ठित योद्धा थे, जिन्हें उनकी गुरिल्ला युद्ध रणनीतियों के लिए जाना जाता था, जिन्होंने मटकुली गांव के पास डेनवा नदी के किनारे ब्रिटिश सत्ता का लंबे समय तक कड़ा विरोध किया था.

पचमढ़ी को इस गोंड शासक की ऐतिहासिक विरासत पर गर्व है, जिन्होंने इस पहाड़ी क्षेत्र का उपयोग शासन, सुरक्षा और सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के लिए किया. वे आदिवासी समुदाय की वीरता और भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं.

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