HomeIdentity & Lifeनीलांबूर में ज़मीन के अधिकार पर आदिवासियों से वादा ख़िलाफ़ी क्यों

नीलांबूर में ज़मीन के अधिकार पर आदिवासियों से वादा ख़िलाफ़ी क्यों

नीलांबुर में आदिवासी ज़मीन के अधिकार के लिए दो साल से लड़ रहे हैं. सरकार ने ज़मीन के अधिकार की मांग को स्वीकार भी किया है, लेकिन प्रशासन आदिवासियों को ज़मीन देने के वादे को पूरा नहीं कर रहा है.

केरल के मलप्पुरम जिले के मध्य में एक शांत लेकिन मजबूत संघर्ष जारी है. यह संघर्ष नीलांबुर में आदिवासी समुदाय अपने अस्तित्व के लिए जरूरी भूमि को हासिल करने के लिए कर रहे हैं.

दो साल पहले न्याय की गुहार के रूप में शुरू हुई यह लड़ाई ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने में संस्थागत विफलताओं की ओर इशारा करती है.

दरअसल नीलांबुर में करीब 60 आदिवासी परिवार मलप्पुरम के कलेक्ट्रेट में अनिश्चितकालीन हड़ताल पर बैठे हैं. ये लोग मांग कर रहे हैं कि राज्य सरकार उन्हें भूमि आवंटन के वादे को पूरा करे.

आदिवासियों ने जिला कलेक्टर वी.आर. विनोद के वादे के बाद 18 मार्च, 2024 को अपनी 314-दिवसीय हड़ताल वापस ले ली थी.

उस समय पर कलेक्टर ने प्रदर्शनकारियों से वादा किया था कि उन्हें 50 सेंट भूमि आवंटित की जाएगी. लेकिन जब इस वादे पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई तो नाराज़ आदिवासियों ने कलेक्टर कार्यालय पर अपना धरना फिर से शुरू कर दिया है.

शुरुआत में 10 मई, 2023 को नीलांबुर एकीकृत आदिवासी विकास परियोजना (ITDP) के कार्यालय में हड़ताल शुरू की गई थी.

क्योंकि वादा अभी तक पूरा नहीं हुआ है इसलिए आदिवासी परिवारों ने 20 मई, 2025 को हड़ताल फिर से शुरू की. जिसमें 2024 में उन्हें वादा की गई भूमि का तत्काल आवंटन करने की मांग की गई.

आंदोलन का नेतृत्व कर रहे बिंदु वैलाशेरी ने कहा, “हम पिछले 12 दिनों से मलप्पुरम कलेक्ट्रेट के सामने विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. सरकार अपना वादा पूरा नहीं कर पाई है. कलेक्ट्रेट हमारे अधिकारों का हनन कर रहा है. आदिवासी समुदाय के साथ विश्वासघात किया गया है. हम अपनी मांग के समर्थन में विरोध कर रहे हैं.”

नीलांबुर, अकम्पदम, इदिवाना, मैलाडी और पोट्टू कल्लुम्बु की आदिवासी बस्तियों में रहने वाले नायकर, कुरुमार और अलार समुदायों के 200 से अधिक परिवार हड़ताल में हिस्सा ले रहे हैं.

आदिवासियों का कहना है कि भूमिहीनता आज आदिवासी समुदाय के सामने आने वाली सभी समस्याओं का मूल कारण है.

हालांकि, सरकारी अधिकारियों ने प्रदर्शनकारियों द्वारा उठाई गई मांग को नकार दिया. आईटीडीपी अधिकारियों ने दावा किया कि साठ परिवारों को वितरित करने के लिए पर्याप्त भूमि नहीं थी.

हालांकि, अधिकारियों के दावे तब गलत साबित हुए जब प्रदर्शनकारियों ने बताया कि नीलांबुर कोविलकम, पलक्कयम बागान और वेन्नाकोड़े में जमीन उपलब्ध है.

उन्होंने आरोप लगाया कि अधिकांश भूमि पर भू-माफियाओं ने अतिक्रमण कर लिया है.

नीलांबुर के आदिवासियों का संघर्ष

नीलांबुर के आदिवासी भूमि संघर्ष का वर्तमान चरण 2018 में शुरू हुआ था, जब आदिवासी परिवारों ने पहली बार जंगलों के भीतर अपना विरोध प्रदर्शन शुरू किया था.

हालांकि, भूमि अधिकारों की लड़ाई एक बहुत पुरानी लड़ाई है, जो विस्थापन, टूटे वादों और व्यवस्थित हाशिए पर धकेले जाने की पीढ़ियों तक फैली हुई है.

मई 2023 में संघर्ष ने फिर से गति पकड़ी, जब 18 आदिवासी बस्तियों के 200 से अधिक आदिवासी परिवारों ने नीलांबुर में एकीकृत आदिवासी विकास परियोजना (ITDP) कार्यालय के बाहर एक विरोध शिविर स्थापित किया.

इस आंदोलन के केंद्र में बिंदु वैलासेरी (Bindu Vailaserry) हैं, जिनका असाधारण बलिदान संघर्ष का चेहरा बन गया है.

314 दिनों तक उन्होंने भूख हड़ताल किया, उनका बिगड़ता स्वास्थ्य उनके समुदाय की हताशा का जीवंत प्रतीक बन गया.

गिरिदासन और अन्य कार्यकर्ताओं के साथ उनके नेतृत्व ने विभिन्न आदिवासी समूहों के परिवारों को संगठित किया है, जिसमें चालियार पंचायत के अकम्पदम, इदिवाना, पारेक्कड़ और मायलाडी क्षेत्रों की बस्तियों में पनियार, नायकन, कुरुमा और एलन समुदाय शामिल हैं.

मूल निवासी समुदाय की मांगों का कानूनी आधार अडिग है. साल 2009 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला जारी किया जिसमें केरल सरकार को आदिवासी समुदायों की खोई हुई कृषि भूमि की पहचान करने और उन्हें वापस करने का निर्देश दिया गया था.

अदालत ने विशेष रूप से आदेश दिया कि अगर मूल भूमि को बहाल नहीं किया जा सकता है, तो राज्य को भूमि अधिग्रहण अधिनियम के माध्यम से उपयुक्त कृषि भूमि का अधिग्रहण करना होगा और इसे प्रभावित परिवारों में वितरित करना होगा.

अकेले नीलांबुर क्षेत्र के लिए सुप्रीम कोर्ट के निर्देश में 538 एकड़ वन भूमि की पहचान की गई है जिसे भूमिहीन मूलनिवासी परिवारों में वितरित किया जाना चाहिए.

फिर भी इस न्यायिक आदेश के एक दशक से भी ज़्यादा समय बीत जाने के बाद भी यह काम अधूरा है.

वन विभाग ने सिर्फ़ 278 एकड़ ज़मीन को साफ़ करके राजस्व विभाग को ट्रांसफर किया है, जबकि बाकी ज़मीन का भाग्य अनिश्चित बना हुआ है.

नीलांबुर भूमि संघर्ष की कहानी मूल रूप से संस्थागत विश्वासघात की कहानी है. जब 314 दिनों की भूख हड़ताल मार्च 2024 में एक महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुंच गई, जब बिंदु वैलासेरी का स्वास्थ्य बहुत ज्यादा बिगड़ गई तो मलप्पुरम कलेक्टर ने आखिरकार बातचीत के लिए सहमति दे दी.

आदिवासियों और प्रशासन के बीच में हुए समझौते के अनुसार विरोध प्रदर्शन में शामिल 60 परिवारों में से प्रत्येक को छह महीने के भीतर 50 सेंट भूमि देने का वादा किया गया था.

इस काम के लिए कन्ननकांडी और नेल्लिपोई में ज़मीन भी तलाश कर ली गई थी.

अफ़सोस कि पहले के कई वादों की तरह यह वादा भी खोखला साबित हुआ. महीनों बीत गए और कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, जिसके कारण अक्टूबर 2024 में फिर से विरोध प्रदर्शन हुए.

जब दोबारा संपर्क किया गया तो अधिकारियों ने नई समयसीमाएं पेश कीं – पहले 30 अक्टूबर, फिर 31 दिसंबर और अंत में मई 2025 में तीन महीने का विस्तार.

हर टूटा हुआ वादा न केवल प्रशासनिक विफलता को दर्शाता है बल्कि आदिवासी अधिकारों और सम्मान के प्रति सम्मान की बुनियादी कमी को भी दर्शाता है. आशा और निराशा के निरंतर चक्र ने इन समुदायों को अपना संघर्ष फिर से शुरू करने के लिए प्रेरित किया है. इस बार उन्होंने कलेक्ट्रेट के पास एक विरोध शिविर स्थापित किया है.

मौजूदा आदिवासी बस्तियों में रहने की स्थितियों की जांच करने पर भूमि की मांग की तात्कालिकता स्पष्ट हो जाती है. क्योंकि कई परिवार छोटी जगहों में ठूंस-ठूंस कर रह रहे हैं. एक दस्तावेज में दर्ज मामले में 420 वर्ग फीट के घर में 23 लोग रहते हैं, जबकि एक कमरे में आठ लोग सोते हैं.

कुछ बस्तियों में व्यक्तिगत शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, जिसके कारण निवासियों को सामुदायिक सुविधाओं पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों को रात के समय काफी मुश्किल होती है.

वर्तमान में सरकार प्रति परिवार केवल 10 सेंट भूमि प्रदान करती है, जो आवास के लिए मुश्किल से पर्याप्त है, खेती-किसानी की तो बात ही छोड़िए, जो स्थायी आजीविका प्रदान कर सकती हैं.

उचित भूमि स्वामित्व दस्तावेजों या टाइटल के बिना ये परिवार स्थायी असुरक्षा की स्थिति में रहते हैं, लोन प्राप्त करने, अपने घरों को बेहतर बनाने या अपने बच्चों के भविष्य की योजना बनाने में असमर्थ होते हैं.

भूमि के लिए संघर्ष सांस्कृतिक अस्तित्व और आर्थिक स्वतंत्रता से आंतरिक रूप से जुड़ा हुआ है. जैसा कि विरोध प्रदर्शन के नेताओं में से एक गिरिदासन बताते हैं, “हम खेती-किसानी करके जीना चाहते हैं, दिहाड़ी मजदूरी करके नहीं. हमें सरकार से इस उद्देश्य के लिए ज़मीन मुहैया कराने की ज़रूरत है.”

यह चाह आर्थिक प्राथमिकता से कहीं अधिक है, यह पारंपरिक जीवन शैली को बनाए रखने और कल्याणकारी योजनाओं पर निर्भरता के बजाय आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की इच्छा को दर्शाती है.

राज्य मशीनरी द्वारा आदिवासी प्रदर्शनकारियों के साथ किया गया व्यवहार गहरे भेदभावपूर्ण रवैये को दर्शाता है. कलेक्टर से मिलने के हालिया प्रयासों के दौरान पुलिस ने आदिवासी परिवारों को कलेक्टरेट परिसर में प्रवेश करने से रोक दिया, जिससे उन्हें बारिश में दो घंटे तक इंतजार करना पड़ा.

इस तरह का भेदभावपूर्ण व्यवहार कार्यकर्ताओं द्वारा बताए गए नस्लीय भेदभाव को दर्शाता है, जो आदिवासी लोगों को लगातार दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में मानता है.

पुलिस के साथ बातचीत के प्रति समुदाय के सदस्यों द्वारा व्यक्त किया जाने वाला डर दुर्व्यवहार और हाशिए पर डाले जाने के इतिहास को दर्शाता है जो वर्तमान भूमि विवाद से कहीं आगे तक फैला हुआ है.

इस सबके बावजूद नीलांबुर संघर्ष सामुदायिक संगठन और एकजुटता को दर्शाता है.

आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी विशेष रूप से मजबूत रही है, जिसमें बिंदु वैलासेरी और गीता अरविंद जैसी नेताओं ने प्रमुख भूमिका निभाई है.

यह महिला नेतृत्व पारंपरिक लैंगिक गतिशीलता को चुनौती देता है, साथ ही इस बात पर प्रकाश डालता है कि खाद्य सुरक्षा और परिवार कल्याण में उनकी भूमिका को देखते हुए भूमि अधिकार महिलाओं को किस तरह से असमान रूप से प्रभावित करते हैं.

नीलांबुर में स्थानीय लोगों का भूमि संघर्ष सामाजिक न्याय और संवैधानिक मूल्यों के प्रति केरल की प्रतिबद्धता के लिए एक महत्वपूर्ण परीक्षा है.

विकास और कल्याण कार्यक्रमों के बारे में महत्वपूर्ण दावे करने वाली वाम मोर्चा सरकार सत्ता में नौ साल पूरे कर रही है, लेकिन स्थानीय समुदायों को लगातार वंचित किए जाने से मुख्यधारा के विकास मॉडल की सीमाएं उजागर होती हैं.

2009 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक स्पष्ट कानूनी रूपरेखा प्रदान करता है लेकिन कार्यान्वयन के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और मूल निवासी लोगों के सम्मान और आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता देने की जरूरत है.

जैसे-जैसे ये समुदाय संघर्ष के तीव्र चरण के लिए तैयार हो रहे हैं, उनकी मांग सरल लेकिन गंभीर बनी हुई है… अपनी पैतृक भूमि पर सम्मान के साथ रहने के उनके अधिकार को मान्यता दी जाए.

बार-बार विश्वासघात के बावजूद उनका दृढ़ संकल्प यह बताता है कि न्याय की लड़ाई, हालांकि लंबी और कठिन है, लेकिन छोड़ी नहीं जा सकती.

अब सवाल यह है कि क्या केरल की संस्थाएं आखिरकार अपनी प्रतिबद्धताओं का सम्मान करेंगी या राज्य के सबसे कमजोर नागरिकों के धैर्य की परीक्षा लेती रहेंगी.

(Photo credit: The Hindu)

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