गुजरात के विधान सभा चुनाव में भारी जीत दर्ज बीजेपी सरकार बना चुकी है. बीजेपी ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 27 में से 24 सीटें जीती हैं. बीजेपी के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है. क्योंकि अभी तक आदिवासी इलाक़े कांग्रेस पार्टी का मज़बूत गढ़ थे.
आदिवासी इलाक़ों में कांग्रेस के अलावा भारतीय ट्राइबल पार्टी भी अपना आधार बढ़ा रही थी. लेकिन इस चुनाव में बीजेपी ने भारतीय ट्राइबल पार्टी के गढ़ झगड़िया को भी जीत लिया है.
यहाँ से 7 बार के सांसद छोटुभाई वसावा चुनाव हार गए. बीजेपी के अलावा आम आदमी पार्टी ने भी आदिवासी इलाक़ों में अपनी मज़बूत उपस्थिति दर्ज कराई है.
हालाँकि आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों में आम आदमी पार्टी को एक ही सीट पर कामयाबी मिली है. लेकिन गुजरात में पहली बार चुनाव में उतरी आम आदमी पार्टी कई सीटों पर दूसरे नंबर पर रही है.
गुजरात में बीजेपी की जीत पर शायद ही किसी को हैरानी होगी, लेकिन आदिवासी इलाक़ों में बीजेपी की जीत और आम आदमी पार्टी को मिले समर्थन के विश्लेषण की ज़रूरत है.
चुनाव परिणामों से जुडे़ बारीक आँकड़े जैसे जैसे सामने आएँगे, सका विश्लेषण भी होगा. बीजेपी की जीत और आदिवासी इलाक़ों में आम आदमी पार्टी की एंट्री के अलावा एक और ज़रूरी जानकारी आदिवासी इलाक़ों के चुनाव परिणामों से समाने आई है.
यह पता चला है कि आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों में से कम से कम तीन सीटों पर सबसे ज़्यादा ‘नोटा’ वोट पड़ा है. यानि इन सीटों पर मतदाता ने यह बताने की कोशिश की है कि वे किसी उम्मीदवार को पसंद नहीं करते हैं.
यह तथ्य इसलिए भी ज़रूरी है कि 2017 के चुनाव की तुलना में गुजरात के इस विधान सभा चुनाव में ‘नोटा’ वोटों की संख्या में 9 प्रतिशत की गिरवाट दर्ज की गई है.
लेकिन गुजरात की कम से कम तीन आदिवासी आरक्षित सीटों खेडब्रम्हा (7331) दाँता (5213) और छोटा उदयपुर (5093) में नोटा की संख्या बढ़ गई है. इन सीटों पर जो नोटा वोट की संख्या है, वह कई सीटों पर बीजेपी और कांग्रेस के बीच जीत के अंतर से भी ज़्यादा है.
मसलन बीजेपी ने आदिवासी बहुल सीट रापड़ पर कांग्रेस पार्टी को महज़ 577 वोट से ही हराया है. जानकार आदिवासी इलाक़ों में नोटा को ज़्यादा वोट मिलने के कई कारण मानते हैं.
इनमें जो सबसे बड़ा कारण बताया जाता है EVM मशीन पर वोट डालने के मामले में हुई चूक. आदिवासी इलाक़ों के बारे में जानकार कहते हैं कि कई बार आदिवासी और ख़ासतौर से बुजुर्ग वोट डालते हुए भ्रमित हो जाते हैं और वो नोटा का बटन दबा देते हैं.
हालाँकि यह मान लेने का कोई ठोस कारण तो समझ में नहीं आता है. क्योंकि यह तो फिर ग्रामीण भारत के ज़्यादातर इलाक़ों में होना चाहिए. क्योंकि अब भारत में ईवीएम से चुनाव होते हुए काफ़ी समय बीत चुका है, इसलिए यह तर्क शायद पूरी तरह से सही नहीं है.
क्या आदिवासी उन पार्टियों या उम्मीदवारों से नाराज़ थे जिन्हें वो अक्सर वोट करते रहे हैं. शायद हाँ, क्योंकि जिस तरह से बीजेपी को आदिवासी इलाक़ों में जीत मिली है उससे यह स्पष्ट है कि आदिवासी ने इस चुनाव में परंपरागत तरीक़े से वोट नहीं किया है.
गुजरात के आदिवासी इलाक़ों के चुनाव परिणामों से जुड़े आँकड़ों का विश्लेषण राजनीति के जानकार और चुनाव विश्लेषक ज़रूर करेंगे. लेकिन इन परिणामों की समीक्षा चुनाव में हारने वाली और जीतने वाली दोनों ही पार्टियों को भी ज़रूर करना चाहिए.
क्योंकि उसके बिना आदिवासी इलाक़ों में लोगों की आंकक्षाओं और इच्छाओं को समझना आसान नहीं होगा.