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RSS के सहयोगी असम में धर्मांतरण के खिलाफ रैली के लिए आदिवासियों का करेंगे इस्तेमाल

जनजाति धर्म संस्कृति सुरक्षा मंच के सह-संयोजक और कार्यकारी अध्यक्ष बिनुद कुंबांग ने कहा कि यह धर्मांतरण ही कारण है कि उत्तर पूर्व भारत में ईसाई बहुलता के एक प्रमुख क्षेत्र के रूप में उभरा है. 2011 की जनगणना में भारत में गिने जाने वाले 2.78 करोड़ ईसाइयों में से 78 लाख असम सहित इस क्षेत्र से हैं.

असम (Assam) के 30 जिलों के कम से कम एक लाख आदिवासी 26 मार्च को गुवाहाटी में आरएसएस (RSS) के सहयोगी जनजाति धर्म संस्कृति सुरक्षा मंच (Janajati Dharma Sanskriti Suraksha Manch) के बैनर तले आदिवासियों के धर्म परिवर्तन के खिलाफ ‘चलो दिसपुर’ कार्यक्रम का आयोजन करते हुए राज्य के कई हिस्सों में रैली निकालेंगे.

RSS-एफिलिएट संगठन की मुख्य मांग उन आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) की सूची से बाहर करना है, जो धार्मिक परिवर्तन से गुजरे हैं, जो उन्हें नौकरियों और अन्य सरकारी लाभों के आरक्षण का हकदार बनाता है. संगठन ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 342ए में संशोधन की भी मांग की है.

जनजाति धर्म संस्कृति सुरक्षा मंच के सह-संयोजक और कार्यकारी अध्यक्ष बिनुद कुंबांग ने गुरुवार को दिसपुर प्रेस क्लब में एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि भारत में धर्म परिवर्तन आजादी के पहले से ही भारत के अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए लगातार बड़ा खतरा बना हुआ है.

उन्होंने कहा कि विदेशी धर्मों द्वारा असम के आदिवासियों का धर्मांतरण कोई नई घटना नहीं है लेकिन पिछले कुछ दशकों में इसकी दर में भारी वृद्धि हुई है. विशेष रूप से अनुसूचित जनजाति के लोग भारत में धर्मांतरण के सबसे आसान शिकार हैं, जो मुख्य रूप से सबसे ज्यादा सांप्रदायिक धर्मशासित विदेशी धार्मिक समूहों द्वारा लक्षित हैं.

उन्होंने कहा कि धर्मांतरण आदिवासियों के मूल विश्वासों, संस्कृति और रीति-रिवाजों को मारने वाले धीमे जहर की तरह है.

उन्होंने कहा कि यह धर्मांतरण ही कारण है कि उत्तर पूर्व भारत में ईसाई बहुलता के एक प्रमुख क्षेत्र के रूप में उभरा है. 2011 की जनगणना में भारत में गिने जाने वाले 2.78 करोड़ ईसाइयों में से 78 लाख असम सहित इस क्षेत्र से हैं.

बिनुद कुंबांग ने कहा, “मेघालय में ईसाइयों की हिस्सेदारी दशक-दर-दशक मजबूती से बढ़ती रही है और 2011 में लगभग 75 प्रतिशत तक पहुंच गई है. ऐसा लगता है कि मेघालय में कुछ जनजातियां अभी भी धर्मांतरण का विरोध कर रही हैं. वहीं असम में ईसाइयों की संख्या 1901 के बाद से 85 गुना बढ़ गई है.”

2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, नागालैंड में कुल जनसंख्या का 87.93 प्रतिशत, मिजोरम में 87.16 प्रतिशत, मेघालय में 74.59 प्रतिशत, मणिपुर में 41.29 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 30.26 प्रतिशत और असम में कुल जनसंख्या का 3.74 प्रतिशत ईसाई हैं.

कुंबांग ने कहा, “अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजाति के लिए भारतीय संविधान में आरक्षण प्रावधानों का उद्देश्य आदिवासियों के जीवन, संस्कृति, रीति-रिवाजों आदि की रक्षा और संरक्षण करना है. साथ ही सूचीबद्ध अनुसूचित जनजाति को शिक्षा, नौकरी, चुनाव आदि में आरक्षण देकर उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का उत्थान करना है. हमारे संविधान का अनुच्छेद 371 संसद को भी अधिनियम और कानून बनाने से रोकता है जो कुछ आदिवासी क्षेत्रों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करते हैं.”

उन्होंने आगे कहा, “आदिवासी आरक्षण का मूल उद्देश्य तब अर्थहीन हो जाता है जब जनजातियां अपने मूल विश्वासों, संस्कृति, रीति-रिवाजों आदि को अस्वीकार कर देती हैं और दूसरे धर्म में परिवर्तित हो जाती हैं. एक बुनियादी सवाल जो यहां उठता है, वह यह है कि जब कोई व्यक्ति अपना धर्म बदल लेता है और दूसरे धर्म में परिवर्तित हो जाता है तो वह समुदाय द्वारा अपनाई जाने वाली मूल-संस्कृति, परंपराओं और जीवन के तरीके को कैसे बनाए रख सकता है.”

उन्होंने कहा कि कई परिवर्तित अनुसूचित जनजाति के लोगों द्वारा लिया गया दोहरा लाभ (एसटी और अल्पसंख्यक) असंवैधानिक और अनैतिक है. 85 प्रतिशत विधायक और प्रशासनिक अधिकारी देश में एसटी और अल्पसंख्यकों के रूप में सरकार से दोहरा लाभ प्राप्त कर रहे हैं.

उन्होंने कहा कि इसलिए एसटी समुदाय के अस्तित्व को उनकी मूल संस्कृति, रीति-रिवाजों और भाषाओं के साथ सुरक्षित करने के लिए असम प्रदेश जेडीएसएसएम 26 मार्च को सुबह 10 बजे खानापारा मैदान में एक विशाल रैली “चलो दिसपुर” का आयोजन कर रहा है.

कुंबांग ने कहा कि असम के 30 जिलों से एक लाख से अधिक आदिवासी लोग अपने पारंपरिक परिधान पहनकर भाग लेंगे. हम किसी धर्म या जाति के खिलाफ नहीं हैं लेकिन अपनी “गरिमा और मौलिकता के साथ पहचान” की रक्षा के लिए हैं.

संगठन एक ऐसी मांग को आगे बढ़ा रहा है जो सबसे पहले साठ के दशक में कांग्रेस सांसद कार्तिक उरांव ने उठाई थी. जिन्होंने यह दावा करते हुए इस मुद्दे को उठाया था कि अनुसूचित जनजाति धर्मांतरितों को आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा मिल रहा है. 1968 में इस मुद्दे की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया.

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