तमिलनाडु से एक चौंकाने और परेशान करने वाली ख़बर है. यहां के आदिवासियों में आत्महत्या के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं. इस ख़बर में चिंतानजनक तथ्य ये है कि आदिवासियों में आत्महत्या के मामले औसत से ज़्यादा पाए जा रहे हैं. नीलगिरीके आदिवासियों के बीच स्वास्थ्य़ सेवा का काम करने वाले एक ग़ैर सरकारी संगठन ने दावा किया है कि पिछले दशक में यहां के आदिवासियों में आत्महत्या के मामले तीन गुना बढ़ गए हैं.
तमिलनाडु के नीलगिरी पहाड़ों में पनिया, कटुनायकन, बेट्टा कुरुम्बा और मुल्लू कुरुम्बा आदिवासी रहते हैं. ख़बरों के अनुसार गुडलूर और पंडालूर में इन आदिवासी समुदायों में आत्महत्या की दर राष्ट्रीय औसत से आठ गुना ज़्यादा है. गुडलूर स्थितएसोसिएशन फ़ॉर हेल्थ वेलफेयर इन द नीलगिरीस (ASHWINI) के मुताबिक़ चार आदिवासी समुदायों – पनिया, कटुनायकन, बेट्टा कुरुम्बा और मुल्लू कुरुम्बा – में आत्महत्या की दर काफ़ी ज़्यादा है.
इस शोध में बताया गया है कि इन आदिवासियों में यह दर दस साल पहले आठ थी, 2019 में 25 से 30 के बीच हो गई, यानि पिछले एक दशक में यह दर तिगुनी हुई है. ASHWINI – गुडलूर आदिवासी अस्पताल की संस्थापक-सदस्य शैलजादेवी के अनुसार गुडलूर और पंडालूर क्षेत्रों में बसे चार समुदायों में पनिया पुरुषों, ख़ासतौर से 20 से 40 वर्ष आयु के पुरुषों के बीच आत्महत्या की दर सबसे ज़्यादा है.
डॉक्टरों और शोधकर्ताओं ने पाया है कि इन आदिवासी समुदायों में शराब का सेवन काफ़ी ज़्यादा है. इस संस्था ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि यहां के आदिवासियों के बीच आत्महत्या दर बढ़ने का एक कारण शराब की लत भी है. इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि आदिवासियों का उनकी पारंपरिक भूमि से विस्थापन इनकी आत्महत्याओं के मामले बढ़ने के पीछे एक बड़ी वजह है. इसके अलावा आजीविका के साधनों का नुकसान, और शहरों के पास बसाए जाने से पैदा होने वालाअलगाव और अवसाद भी आत्महत्या के कारण बन रहे हैं. इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि बड़े शहरों के पास जो मकान इन आदिवासियों को दिए जाते हैं वो उनके लिए एक बड़ा बदलाव होता है. इससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असरपड़ता है.
नीलगिरी की पहाड़ियों पर एक समय सिर्फ़ आदिवासियों का आधिपत्य होता था. लेकिन अब इन पहाड़ियों पर ग़ैर आदिवासी आबादी का वर्चस्व हो चुका है. यहां की पहाड़ियों पर दूर दूर तक चाय बागान नज़र आते हैं. इन चाय बागानों के मालिकऔर अधिकारी या फिर व्यापारी सभी ग़ैर आदिवासी हैं.
आदिवासियों को भी इन बागानों में मज़दूरी मिलती है लेकिन इन बागानों ने उनकी ज़िंदगी में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं किया है. दरअसल नीलगिरी के आदिवासी समूहों में ज़्यादातर पीवीटीजी हैं. यानि ये आदिम जनजातियां हैं जो अभी भीसामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े हैं. इसके अलावा ये आदिवासी समूह बाहरी समाज से मेलजोल में झिझकते हैं. इसलिए सरकार ने इन आदिवासियों को पीवीटीजी की श्रेणी में रखा है.
पीवीटीजी समुदायों के संरक्षण यानि उनकी जीवन शैली और संसाधनों को बचाने के लिेए सरकार अलग से योजनाएं बनाती है. लेकिन इन आदिवासियों में बढ़ते आत्महत्या के मामले और उनके बताए गए कारण साफ़ बताते हैं कि ये योजनाएंज़मीन पर लागू नहीं हो रही है. यह भी देखा गया है कि पीवीटीजी समुदायों को ज़बरदस्ती जंगल से बाहर निकाल के शहरों के पास बसा दिया जाता है. लेकिन मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज से इन आदिवासियों का तालमेल नहीं बैठ पाता है. एक तो ये आदिवासी स्वभाव से शर्मीले होते हैं और बाहरी लोगों से आसानी से घुलते मिलते नहीं हैं. उसके अलावा शहरी समाज भी इन आदिवासियों को स्वीकार नहीं करता है.
अनुभव बताता है कि जो पीवीटीजी समुदाय के लोग जंगल में अपने परिवेश में रहते हैं उनकी स्थिति विस्थापित आदिवासियों से बेहतर है. आत्महत्या के मामलों के अलावा देश के अलग-अलग राज्यों में पीवीटीजी यानि आदिम जनजाति समुदायोंकी आबादी में नेगेटिव ग्रोथ भी दर्ज की गई है. मसलन झारखंड के बिरहोर आदिवासियों में इस तरह के मामले देखे गए हैं..