HomeAdivasi Dailyछत्तीसगढ़ में आदिवासी आरक्षण की राजनीति का केंद्र बना राजभवन

छत्तीसगढ़ में आदिवासी आरक्षण की राजनीति का केंद्र बना राजभवन

छत्तीसगढ़ में आरक्षण को लेकर अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई है. यह देश का अकेला ऐसा राज्य है, जहां पिछले दो महीने से लोक सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण का नियम और रोस्टर ही लागू नहीं है.

आदिवासी आरक्षण बढ़ा कर फिर से 32 प्रतिशत करने के लिए छत्तीसगढ़ की विधान सभा ने सर्वसम्मति से बिल पास किया है. लेकिन इस बिल को राज्यपाल अनुसुया उईके के मंज़ूरी अभी तक नहीं मिली है.

आदिवासी आरक्षण बिल के मामले में राज्यपाल की भूमिका काफ़ी दिलचस्प है. क्योंकि जब तक सरकार विधान सभा में आदिवासी आरक्षण से जुड़ा बिल नहीं लाई थी, तब तक राज्यपाल इस मामले में अपनी काफ़ी सक्रियता दिखा रही थीं.

उन्होंने इस सिलसिले में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को पत्र लिख कर पूछा था कि सरकार इस मामले में क्या कदम उठा रही है. लेकिन अब जबकि सरकार यह बिल विधानसभा में पेश कर पास करा चुकी है, वो इसे मंज़ूरी नहीं दे रही हैं.

इस सिलसिले में अब छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज नाम के संगठन ने ऐलान किया है कि अगर राज्यपाल तीन दिन के भीतर इस बिल को मंज़ूरी नहीं देती हैं तो फिर राजभवन का घेराव किया जाएगा.

इस संगठन में युवा प्रभाग के अध्यक्ष कुंदन सिंह ठाकुर ने MBB से बातचीत में कहा कि आदिवासी हितों को ध्यान में रखते हुए छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज ने राज्यपाल से निवेदन किया है कि छत्तीसगढ़ विधानसभा के विशेष सत्र (02 दिसम्बर 2022) में पारित इस ऐतिहासिक संकल्प पत्र पर तत्काल अनुमोदन हस्ताक्षर कर इसे कानून का रूप देने में मदद करें.

MBB से बातचीत में उन्होंने जोड़ा कि राज्यपाल इसे नौंवी अनुसूची में शामिल करने के लिए तुरंत इस संकल्प पत्र को महामहिम राष्ट्रपति को भेजें.

उन्होंने कहा कि अगर महामहिम राज्यपाल इस विधेयक पर तीन दिन के भीतर हस्ताक्षर नहीं करती हैं तब छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज – युवा प्रभाग छत्तीसगढ़ राजभवन का घेराव करने के लिए बाध्य होगा.

उनका कहना था कि राज्यपाल को इस बिल को तुरंत मंज़ूरी देनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा ना करके राज्यपाल सरकार को सवालों की लिस्ट दे रही हैं.

MBB से बातचीत में उन्होंने कहा कि इस आशंका से कि यह क़ानून फिर से अदालत में जा कर फँस सकता है, राज्यपाल को बिल पर हस्ताक्षर करने में विलंब नहीं करना चाहिए.

कुंदन सिंह ठाकुर ने हैरानी जताते हुए कहा कि जो राज्यपाल ख़ुद इस मसले पर बेहद सक्रिय थीं वो अब इस बिल पर साइन नहीं कर रही हैं.

MBB ने उनसे पूछा कि क्या वे राज्यपाल के रवैये में राजनीति देखते हैं तो उन्होंने सीधा सीधा कुछ नहीं कहा. लेकिन उन्होंने कहा कि अख़बारों और सोशल मीडिया की ख़बरों से यह लगता है कि राज्यपाल पर बीजेपी का दबाव है.

कल यानि गुरूवार को कांग्रेस विधायकों के एक दल ने भी राज्यपाल से मुलाक़ात की थी. इन विधायकों ने राज्यपाल से आग्रह किया था कि इस बिल को जल्दी से जल्दी मंज़ूरी दे दी जाए.

दरअसल, 19 सितंबर को छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने सितंबर महीने में राज्य सरकार के वर्ष 2012 में जारी उस आदेश को खारिज कर दिया था जिसमें सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण को 58 प्रतिशत तक बढ़ाया गया था. कोर्ट ने कहा था कि 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक आरक्षण असंवैधानिक है.

इस फैसले के बाद आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षण 32 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत हो गया है. फैसले के बाद से राज्य के 42 आदिवासी समुदायों का संगठन छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज राज्य सरकार से नाराज है.

छत्तीसगढ़ में आरक्षण को लेकर अजीब-सी स्थिति पैदा हो गई है. यह देश का अकेला ऐसा राज्य है, जहां पिछले दो महीने से लोक सेवाओं और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण का नियम और रोस्टर ही लागू नहीं है.

सूचना के अधिकार में पूछे गए एक सवाल के जवाब में भी राज्य के सामान्य प्रशासन विभाग ने कहा है कि हाईकोर्ट द्वारा आरक्षण की व्यवस्था को असंवैधानिक बताये जाने के बाद से राज्य में आरक्षण से संबंधित नियम और रोस्टर सक्रिय नहीं है.

राज्य सरकार ने तीन साल पहले पूरे देश में सर्वाधिक 82 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी लेकिन छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने इसपर रोक लगा दी. आरक्षण लागू नहीं होने से राज्य के इंजीनियरिंग, पॉलीटेक्निक, बीएड, हार्टीकल्चर, एग्रीकल्चर समेत कई पाठ्यक्रमों में काउंसिलिंगऔर प्रवेश का काम अटक गया है. राज्य लोक सेवा आयोग की भर्तियां और उनके परिणाम रोक दिए गए हैं. 12 हज़ार शिक्षकों की भर्ती समेत कई पदों की अधिसूचना रोक दी गई है.

छत्तीसगढ़ में अगले साल विधान सभा चुनाव है इसलिए भी आदिवासी आरक्षण का मुद्दा बेहद संवेदनशील बन गया है. सरकार क़ानून बना कर आदिवासी आबादी को यह संदेश देना चाहती है कि वह उनके मुद्दे पर गंभीर है.

मुख्य विपक्षी दल की मजबूरी ये है कि वह इस मुद्दे पर सरकार के ख़िलाफ़ नहीं जा सकती है. ऐसी स्थिति में राजभवन की तरफ़ से इस बिल को लटकाये जाने के पीछे बीजेपी का हाथ देखा जा रहा है.

लेकिन इस पूरे राजनीतिक खेल में आदिवासी नौजवानों को ही नहीं अन्य वर्गों के नौजवानों में भी बेचैनी बढ़ रही है. क्योंकि जब तक इस मामले पर स्पष्टता नहीं होगी, राज्य की नौकरियों में भर्ती पर भ्रम की स्थिति रहेगी.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments