मध्य प्रदेश के मैहर ज़िले में आदिवासियों की ज़मीन पर कब्जे का एक बड़ा मामला सामने आया है. गरीब और अनपढ़ आदिवासियों को लोन दिलाने का झांसा देकर उनकी पुश्तैनी ज़मीन हड़प ली गई और फ़िर इसे अल्ट्राटेक सीमेंट फैक्ट्री को बेच दिया गया.
कैसे हुआ मामले का खुलासा?
इस धोखाधड़ी का खुलासा तब हुआ जब सुखेन्द्र सिंह गोड़ ने अपने पिता की ज़मीन के दस्तावेज निकलवाए. वह अपने पिता की मौत के बाद ज़मीन का वारिसाना हक का प्रयोग करते हुए उनकी ज़मीन को अपने नाम करवाना चाहते थे.
जब वे ज़मीन का रिकॉर्ड निकलवाने पहुंचे तो देखा कि ज़मीन अब अल्ट्राटेक सीमेंट फैक्ट्री के नाम पर दर्ज हो चुकी थी.
यह देखकर वे हैरान रह गए और उन्होंने तुरंत 2011-12 के पुराने रिकॉर्ड की जांच करवाई. पुराने दस्तावेजों से सामने आया कि ज़मीन पहले उनके भाई राजेन्द्र सिंह गोड़ के नाम कर दी गई थी और फिर आगे बेच दी गई.
जब सुखेन्द्र ने अपने भाई से इस बारे में पूछा तो उसने साफ इनकार कर दिया कि उसने कोई ज़मीन नहीं बेची है.
पहले ज़मीन किसके नाम ट्रांसफर हुई?
सुखेन्द्र और उनके परिवार की पुश्तैनी ज़मीन उनके पिता रामलाल सिंह के नाम पर थी.
2012-13 में यह ज़मीन गुपचुप तरीके से उनके भाई राजेन्द्र सिंह गोड़ के नाम पर कर दी गई जबकि इसके लिए कोई आधिकारिक आदेश नहीं था.
सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि खुद राजेन्द्र को भी नहीं पता था कि ज़मीन उसके नाम पर दर्ज हो गई थी.
लेकिन कुछ समय बाद दीपक लालवानी और रामप्रकाश जायसवाल नाम के दो दलाल राजेन्द्र के पास पहुंचे.
उन्होंने उसे बैंक से लोन दिलाने का झांसा दिया और इसी बहाने उसके दस्तावेज ले लिए.
धोखाधड़ी में कौन-कौन शामिल?
लोन दिलाने की आड़ में इन लोगों ने राजेन्द्र के नाम पर दर्ज ज़मीन की रजिस्ट्री फर्ज़ी तरीके से शोभा कोल नाम की महिला के नाम करवा दी. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान राजेन्द्र को यह तक नहीं बताया गया कि उसकी ज़मीन बेची जा रही है.
जब रजिस्ट्री हुई तब मौके पर दीपक लालवानी, रामप्रकाश जायसवाल, अज्जू सिंधी, गोपाल सिंधी और कमला सेन मौजूद थे.
करोड़ों की डील
जब ज़मीन शोभा कोल के नाम हो गई तो कुछ समय बाद इन ही लोगों ने उसे अल्ट्राटेक सीमेंट लिमिटेड, सरलानगर मैहर को करोड़ों रुपये में बेच दिया.
इस सौदे से दलालों ने बड़ी रकम कमाई लेकिन ज़मीन के असली मालिक राजेन्द्र सिंह को इसकी कोई जानकारी नहीं थी और न ही उसे इस सौदे से कोई पैसा मिला.
कलेक्टर ने क्या कहा?
जब यह सच्चाई सामने आई, तो पीड़ित परिवार ने पूरी जानकारी मैहर कलेक्टर रानी बाटड को दी. कलेक्टर ने मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच के आदेश दे दिए हैं.
यहां सबसे ज़रूरी सवाल यह है कि आखिर बिना कलेक्टर की अनुमति के आदिवासियों की ज़मीन की रजिस्ट्री कैसे हो गई.
यह मामला सिर्फ एक आदिवासी परिवारों का नहीं, बल्कि उन सभी हाशिए पर खड़े समुदायों का है, जो अपनी ही ज़मीन पर बेगाने होते जा रहे हैं, कभी सरकारी योजनाओं के चलते तो कभी इस तरह की धोखाधड़ी में. यह सिर्फ एक ज़मीन की हेराफेरी नहीं, बल्कि कानूनी खामियों और भ्रष्टाचार की पोल भी खोलता है.
अब सवाल यह नहीं है कि प्रशासन जांच करेगा या नहीं, बल्कि यह है कि क्या इस जांच से आदिवासियों को उनका हक़ मिलेगा? क्या उनकी पुश्तैनी ज़मीन लौटाई जाएगी या फिर यह मामला भी बाकी घोटालों की तरह फाइलों में दबकर रह जाएगा?
इस लड़ाई का अंत केवल जांच रिपोर्ट पर नहीं बल्कि उन आदिवासियों को न्याय मिलने पर होगा, जो आज भी अपनी मिट्टी को अपनी पहचान मानते हैं.