वन अधिकार अधिनियम, 2006 (Forest Rights Act, 2006) को संभावित रूप से कमजोर करने वाले नए वन संरक्षण नियम (2022) (Forest Conservation Rules, 2022) को लेकर पर्यावरण मंत्रालय के साथ टकराव के बाद अब राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (National Commission for Scheduled Tribes) ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की एफआरए कार्यान्वयन रिपोर्ट प्राप्त कर ली है.
दरअसल, 20 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने रजिस्ट्री को यह आदेश दिया कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले एक मामले में अदालत में राज्य सरकारों द्वारा प्रस्तुत सभी दस्तावेजों की प्रतियां अनुसूचित जनजाति आयोग को सौंप दी जाएँ.
इन दस्तावेजों को राज्य सरकारों ने सीलबंद लिफ़ाफ़े में सुप्रीम कोर्ट को सौंपा था. इस सिलसिले में मिली ख़बरों के अनुसार इसमें अघोषित कागजात के 30 से अधिक सेट शामिल हैं.
अनुसूचित जनजाति आयोग ने अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से वन अधिकार अधिनियम 2006 के लागू किये जाने से जुड़े ये ज़रूरी दस्तावेज़ हासिल किए हैं.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338ए, खंड 8 (डी) के माध्यम से दी गई विशेष शक्तियाँ आयोग को “किसी भी अदालत या कार्यालय से किसी भी सार्वजनिक रिकॉर्ड या उसकी प्रति” की मांग करने का अधिकार देती हैं.
सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश के साथ जनजातीय पैनल को अब मामले से संबंधित दस्तावेजों के एक पूरे सेट तक पहुंच प्राप्त होगी, जिसमें जवाबी हलफनामे और दायर किए गए अतिरिक्त हलफनामे शामिल हैं. इसका मतलब है कि एनसीएसटी राज्यों में एफआरए के कार्यान्वयन का मूल्यांकन करने में सक्षम होगा.
यह पहली बार है कि आयोग ने इन शक्तियों का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट से दस्तावेज हासिल करने के लिए किया है.
केंद्र सरकार द्वारा पिछले साल वन संरक्षण अधिनियम, 2022 पेश करने के बाद एनसीएसटी ने सितंबर में पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखकर कहा था कि इसे रोक दिया जाए.
क्योंकि पर्यावरण के ये नये नियम एफआरए के प्रावधानों का अनिवार्य रूप से उल्लंघन करेंगे. जो यह सुनिश्चित करता है कि वन भूमि का स्वामित्व आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों (OTFD) के पास रहे, जो जंगल और उसके संसाधनों पर निर्भर रहते हैं.
इस बीच अनुसूचित जनजाति आयोग ने 3 फरवरी को दस्तावेजों की मांग के लिए सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार को पत्र लिखा. जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा 20 फरवरी को आदेश दिया गया कि आयोग को दस्तावेज मुहैया कराए जाएं.
एनसीएसटी के सूत्रों ने कहा कि आयोग जमीनी स्तर पर एफआरए के समग्र कार्यान्वयन की समीक्षा करने, मिलकियत के दस्तावेज़ों की अस्वीकृति की जांच करने, वन भूमि पर अतिक्रमण की जांच करने और आदिवासियों के अधिकारों को सुरक्षित करने की ज़िम्मेदारी को निभाते हुए आयोग यह काम कर रहा है.
राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के एक अधिकारी के हवाले से मीडिया को बताया गाय है , “यह भारत के राष्ट्रपति के कार्यालय को भेजी गई रिपोर्ट का हिस्सा होगा, जो इसे संसद में पेश करेंगे. इसलिए हम ‘प्रामाणिक जानकारी’ के लिए अदालत गए.”
इन दस्तावेजों में क्या दर्ज है?
एफआरए आदिवासी और पारंपरिक वनवासियों के लिए दर्ज वनों पर भूमि के स्वामित्व के अधिकारों को मान्यता देता है. आदिवासी परिवार 10 एकड़ तक की वन भूमि के स्वामित्व का दावा कर सकते हैं.
इसके लिए उन्हें इसका सबूत प्रस्तुत करना पड़ता हैं कि वे 13 दिसंबर, 2005 को या उससे पहले अपनी आजीविका के लिए जंगलों में रहते थे और उन पर निर्भर थे.
वहीं अन्य पारंपरिक वन-निवासी परिवारों के मामले में उन्हें सबूत देना होगा कि वे 13 दिसंबर, 2005 से पहले पिछली तीन पीढ़ियों (75 वर्ष) से दावा की गई वन भूमि पर निर्भर थे. कानून समुदाय और आवास वन अधिकारों की भी गारंटी देता है.
अधिनियम और इसके नियम पात्र दावेदारों को भूमि का अधिकार (पट्टा) देने के लिए राज्यों द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रियाओं को निर्धारित करते हैं.
कानून को लागू करने के लिए राज्यों को ग्राम सभाओं और उप-विभागीय स्तर और जिला स्तरीय समितियों के कामकाज को सुनिश्चित करने की जरूरत है जो दावों की जांच करते हैं क्योंकि आवेदन प्राप्त करने की कोई कट-ऑफ डेट नहीं है.
अगर दावों को खारिज कर दिया जाता है तो अस्वीकृति के कारणों को दर्ज किया जाना चाहिए और सूचित किया जाना चाहिए. इसके बाद आवेदकों को ऐसी अस्वीकृतियों के विरुद्ध अपील करने का अवसर दिया जाता है. हालाँकि, यह देखा गया है कि राज्य अक्सर दावेदारों को यह अवसर देने में विफल रहते हैं.
राज्यों की प्रस्तुतियां इस सबको विस्तार से दर्ज करती हैं:
. एफआरए कार्यान्वयन की स्थिति,
. भू-स्वामित्व चाहने वाले दावों को खारिज करने के कारण,
. अस्वीकृत दावों की समीक्षा की स्थिति,
. वन भूमि से बेदखली की स्थिति,
. उन वनवासियों को बेदखल करने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएं जिनके दावे खारिज हो जाते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के मामले की सुनवाई तीन न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ कर रही थी और अंतिम सुनवाई 10 नवंबर, 2022 के लिए निर्धारित की गई थी. लेकिन तीन न्यायाधीशों में से एक, न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की सेवानिवृत्ति ने इसे रोक दिया. अंतिम सुनवाई शुरू करने के लिए नई संवैधानिक पीठ का गठन होना बाकी है.
आयोग इस मामले में स्टैंड क्यों ले रहा है?
नाम न छापने की शर्त पर एनसीएसटी के एक अधिकारी ने कहा कि आयोग आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए एफआरए को लागू करने के महत्व को पहचानता है. उन्होंने कहा, “अदालत के दस्तावेज आयोग को कानून लागू करने में राज्यों के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने में मदद करेंगे.”
अधिकारी ने कहा कि दस्तावेजों के आधार पर आयोग टिप्पणियों और सिफारिशों को राज्यों और केंद्र सरकार को सौंपेगा.
इन अधिकारी ने एक बार फिर ज़िक्र किया कि नये वन संरक्षण नियमों को अधिसूचित किए जाने के चार महीने बाद अक्टूबर 2022 में एनसीएसटी के अध्यक्ष हर्ष चौहान ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव को एक पत्र भेजा था जिसमें मंत्री से कहा गया कि वे नियमों को रोक दें क्योंकि वे एफआरए का उल्लंघन करते हैं.
लेकिन मंत्रालय ने आयोग के अनुरोध को अनसुना कर दिया. इसी पत्र में आयोग ने संसद में जनजातीय मंत्रालय द्वारा प्रदान किए गए नए नियमों के बचाव को भी खारिज कर दिया था.
ये सब शुरू कैसे हुआ?
मामले में मुख्य याचिकाकर्ताओं में तीन वन्यजीवों के लिए काम करने वाले संगठन – वाइल्डलाइफ फर्स्ट ट्रस्टी, नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी और टाइगर रिसर्च एंड कंजर्वेशन ट्रस्ट शामिल हैं.
इन समूहों ने 2008 में सुप्रीम कोर्ट में एफआरए की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए एक याचिका दायर की. केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय, आदिवासी मंत्रालय और सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश सरकारें इस मामले में प्रतिवादी हैं.
अगस्त 2008 से सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले के संबंध में 81 आदेश पारित किए हैं. इसी मामले की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने 13 फरवरी, 2019 को राज्यों को वन भूमि से उन लोगों को बेदखल करने का निर्देश दिया जिनके दावे खारिज कर दिए गए थे.
तब यह अनुमान लगाया गया था कि देशभर में लगभग 17 लाख व्यक्तियों को बेदखल किया गया होगा. हालांकि, इस आदेश को आदिवासी मंत्रालय के हस्तक्षेप के बाद दो सप्ताह के भीतर रोक दिया गया था. जिसमें विभिन्न राज्यों द्वारा अपनाई गई अस्वीकृति प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया था.
तब से अदालत ने राज्य के मुख्य सचिवों को लगभग 240 नोटिस भेजकर एफआरए कार्यान्वयन की स्थिति पर विवरण के साथ हलफनामा जमा करने को कहा है.
हालांकि, कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के चलते 22 जनवरी, 2020 और 13 सितंबर, 2022 के बीच कोई सुनवाई नहीं हुई.
FRA कार्यान्वयन के सार्वजनिक आँकड़े
जनजातीय मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक नवंबर 2022 के अंत में 21 राज्यों में ग्राम सभाओं में भूमि के शीर्षक के लिए दायर किए गए कुल 42,97,245 व्यक्तिगत दावों में से लगभग 50 प्रतिशत को भूमि के अधिकार प्राप्त हुए और 39 प्रतिशत दावों को खारिज कर दिया गया.
जबकि बाकी बचे दावे अभी भी जांच के विभिन्न स्तरों पर लंबित हैं. इसी तरह सामुदायिक वन अधिकारों की मांग करने वाले कुल 1,69,372 दावों में से 61 प्रतिशत समुदायों को टाइटल वितरित किए गए.
जबकि 24 प्रतिशत खारिज कर दिए गए और 15 प्रतिशत दावे लंबित हैं. आदिवासी मंत्रालय का दावा है कि एफआरए के तहत लगभग 68 लाख हेक्टेयर भूमि का स्वामित्व वन में रहने वाले परिवारों और समुदायों को दिया गया है.
हालांकि, आदिवासी मंत्रालय अलग अलग राज्यों के ऐसे दावों की पुष्टि नहीं करता है. यानि इस मामले में मंत्रालय स्पष्ट डेटा प्रस्तुत नहीं करता है.
उत्तरपूर्वी राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और सिक्किम में कोई भी वन अधिकार का दावा दायर नहीं किया जाता है क्योंकि वहाँ अधिकांश जंगल पर आदिवासी समुदायों का क़ब्ज़ा है.
वहीं हरियाणा जैसे राज्यों में सरकार का कहना है कि राज्य में कोई आदिवासी और वनवासी समुदाय नहीं हैं. जबकि असम और बिहार जैसे राज्यों में सरकार एफआरए के तहत वितरित भूमि की सीमा पर सटीक डेटा प्रस्तुत करने में विफल रही है.
क्या है वन अधिकार कानून, 2006
आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वनवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिए संसद ने दिसम्बर, 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून पास कर दिया था.
एक लम्बी अवधि के बाद आख़िरकार केन्द्र सरकार ने इसे 1 जनवरी 2008 को नोटिफाई करके जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू कर दिया.
वन अधिकार कानून, 2006 के तहत किसी भी आदिवासी क्षेत्र में बिना ग्राम सभा की अनुमति के कोई भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो सकता था, जिसमें वनोन्मूलन (वनों की कटाई) शामिल हो.
बावजूद इसके अभी तक कई राज्यों में वन अधिकार अधिनियम, 2006 को ठीक ढंग से लागू नहीं किया जाता है. आदिवासी इलाकों में रहने वाले या वहां काम करने वाले लोग जानते हैं कि यह कानून होने के बावजूद हकीकत में अक्सर इसका पालन ठीक से नहीं होता है.
कई बार उस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को पता ही नहीं चलता कि कोई प्रोजेक्ट उनके क्षेत्र में आने वाला है और फर्जी हस्ताक्षर लेकर ग्राम सभा से झूठी अनुमति मिल जाती है. कई बार ग्राम सभा अध्यक्ष, सरपंच और अन्य क्षेत्रीय प्रभावशाली लोग पैसा खा लेते हैं या दबाव में आ जाते हैं.
आदिवासियों ने कई दशकों तक अपने वन अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी जिसके फलस्वरूप वन अधिकार कानून, 2006 आया था.