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देश के कई राज्यों में आदिवासी छात्रों का बोर्ड परीक्षाओं में खराब प्रदर्शन

संसद के बजट सत्र 2023 के दौरान जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा राज्य सभा के साथ साझा किए गए डेटा से पता चलता है कि ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहने वाले आदिवासी समुदायों के बच्चे अन्य राज्यों की तुलना में कुछ राज्यों की बोर्ड परीक्षाओं में खराब प्रदर्शन है.

रिपोर्ट के मुताबिक, अनुसूचित जनजाति के 49.54 प्रतिशत उम्मीदवारों ने 2020 में मध्य प्रदेश बोर्ड कक्षा 10 की परीक्षा (MPBSE HSC) उत्तीर्ण की. त्रिपुरा बोर्ड का आंकड़ा और भी खराब है. यहां सिर्फ 43.66 प्रतिशत उम्मीदवार उत्तीर्ण हुए.

वहीं बड़ी आदिवासी आबादी वाले कई राज्यों में भी कक्षा 10 की बोर्ड परीक्षा पास करने वाले छात्रों का प्रदर्शन उतना अच्छा नहीं है. गुजरात में 55 प्रतिशत, असम में 57.9 प्रतिशत और मेघालय में 52.68 प्रतिशत छात्र कक्षा 10 उत्तीर्ण करने में सफल रहे.

इसी तरह कक्षा 12 में कर्नाटक की प्री-यूनिवर्सिटी परीक्षा (PUE) में अनुसूचित जनजाति के 58.74 प्रतिशत छात्रों ने परीक्षा उत्तीर्ण की. वहीं त्रिपुरा में 59 प्रतिशत, केरल में 63.44 प्रतिशत और ओडिशा में 64.5 प्रतिशत छात्रों ने परीक्षा उत्तीर्ण की.

हालांकि, मंत्रालय के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 2020 में राज्य बोर्ड की तुलना में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) के स्कूलों में जाने वाले आदिवासी छात्रों का उत्तीर्ण प्रतिशत काफी बेहतर रहा है. सीबीएसई बोर्ड से कक्षा 10 में पढ़ने वाले 87 प्रतिशत आदिवासी छात्र उत्तीर्ण हुए, वहीं कक्षा 12 के 86 प्रतिशत छात्र उत्तीर्ण हुए.  

तेलंगाना एकमात्र ऐसा राज्य है जहां 2020 में 10वीं और 12वीं कक्षा में पढ़ने वाले 100 प्रतिशत आदिवासी छात्र पास हुए हैं.

Careers360 के मुताबिक, यह डेटा 2020 का है जब कोविड-19 महामारी फैली थी और कई बोर्ड परीक्षाएं रद्द कर दी गई थीं या फिर मूल्यांकन पैटर्न बदल दिया गया था.

आदिवासियों कि शैक्षिक स्थिति

2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल 121.08 करोड़ आबादी में 10.45 करोड़ यानी 8.6 प्रतिशत व्यक्ति अनुसूचित जनजाति वर्ग से थे. इनमें लगभग 5.25 करोड़ पुरुष और 5.2 करोड़ महिलाएं थीं. जनगणना के इन्हीं आंकड़ों के अनुसार आदिवासियों में 5.28 करोड़ (50.53%) लोग निरक्षर थे.

देश को आजादी मिलने के बाद से शिक्षा भारत के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण सीमाओं में से एक रही है. बेशक आज देश की साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत है. फिर भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसके लिए औपचारिक शिक्षा का लाभ पहुंच से बाहर हैं.

खासतौर पर ग्रामीण समुदाय शिक्षा की पहुंच से दूर है. यहां यह यह ध्यान रखना है कि ग्रामीण भारत में कुल आबादी का 65.07 प्रतिशत हिस्सा रहता हैं.

जब शिक्षा की बात आती है तो वे शहरी मुख्यधारा और ग्रामीण भारत में एक बड़ी खाई नज़र आती है. इस खाई को कोविड-19 महामारी ने और बढ़ा दिया है. इससे अधिक संख्या में बच्चों की शिक्षा तक पहुंच कम हो गई.

कोविड-19 महामारी के दौरान आदिवासी छात्रों का बहुत ज्यादा नुकसान हुआ था. पिछले साल संसदीय समिति की रिपोर्ट ने भी इस पर अपनी चिंता जाहिर की थी.

केंद्र द्वारा गठित एक स्वतंत्र निकाय द्वारा जारी आदिवासी विकास रिपोर्ट, 2022 में इस बात का खुलासा हुआ है कि आदिवासी क्षेत्रों में स्कूलों में नामांकित कुल बच्चों में से लगभग आधे बच्चे यानि 48.2 प्रतिशत कक्षा 8 की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही पढ़ाई छोड़ देते हैं.

कुल मिलाकर कक्षा 1 में दाखिला लेने वाले अनुसूचित जनजाति के बमुश्किल 40 प्रतिशत बच्चे कक्षा 10 तक पहुँच पाते हैं क्योंकि वे विभिन्न चरणों में पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं.

EMRS का लक्ष्य

साल 1997-98 में आदिवासी छात्रों के लिए एक बेहतरीन शुरुआत की गई. सरकार ने यह फैसला किया कि आदिवासी इलाकों में भी पढ़ाई लिखाई की अच्छी व्यवस्था की जाएगी.

इसके तहत एकलव्य मॉडल रेज़िडेंशियल स्कूल (EMRS) की स्थापना की शुरुआत हुई. EMRS के स्थापना का उद्देश्य देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति के बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना है. इन स्कूलों का मॉडल जवाहर नवोदय विद्यालयों से मिलता जुलता है. इनके नाम से ही आप अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इन स्कूलों में हॉस्टल की व्यवस्था होती है.

फिलहाल देश भर के अलग अलग आदिवासी इलाक़ों में कुल 226 एकलव्य आदर्श आवासीय स्कूल चल रहे हैं. इनमें से 68 सीबीएसई से affiliated हैं. इन स्कूलों में से हर एक में छठी से बारहवीं कक्षा तक के 480 छात्रों की व्यवस्था होती है.

इन स्कूलों को जिस लक्ष्य के साथ स्थापित किया गया था, उस दिशा में इन स्कूलों का योगदान काबिले तारीफ कहा जा सकता है.

लगभग दो दशक के अनुभव के बाद यह महसूस किया गया कि आदिवासी इलाक़ों में इन स्कूलों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए. और सरकार ने साल 2018-19 के बजट में नए एकलव्य स्कूलों की स्थापना से जुड़ी एक बड़ी घोषणा की.

सरकार ने संसद में यह ऐलान किया कि साल 2022 तक देश की हर उस तहसील या ब्लॉक में कम से कम एक एकलव्य आदर्श आवासीय स्कूल यानि EMRS की स्थापना कर दी जाएगी, जहां की आधी जनसंख्या आदिवासी है या फिर कम से कम 20 हज़ार आदिवासी वहाँ रहते हैं.

सरकार के इस फ़ैसले को 17 दिसंबर 2018 को CCEA यानि आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने मंजूरी भी दे दी थी. इसका मतलब ये था कि अब देश के हर आदिवासी ब्लॉक में एक हॉस्टल युक्त स्कूल आदिवासी छात्रों के लिए मौजूद होना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं है.

सरकार ने ऐलान किया था कि 2022 तक कम से कम 452 नए एकलव्य स्कूल स्थापित कर दिये जाएँगे. लेकन साल 2022 खत्म हो गया और सरकार इस लक्ष्य को पूरा नही कर सकी.

अभी तक सरकार ने कुल 396 स्कूलों के निर्माण को मंजूरी दी है. इनमें से 100 स्कूलों में निर्माण का काम चल रहा है. 332 स्कूलों के निर्माण का काम मार्च 2023 में शुरु होने की उम्मीद है.

इसका मतलब 2018 में आदिवासी इलाक़ों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रसार के लिए स्कूलों की स्थापना का जो लक्ष्य रखा गया था, वो लक्ष्य अभी काफ़ी दूर नज़र आता है.

संसदीय समिति की रिपोर्ट ने भी आदिवासी मंत्रालय द्वारा 2022 तक लक्षित ईएमआरएस स्थापित करने में विफलता की ओर इशारा किया था. आदिवासी मंत्रालय से जुड़ी संसदीय स्थाई समिति ने आदिवासी छात्रों या स्कूलों की स्थिति पर कई बार सवाल उठाए हैं. कई रिपोर्ट में भी लगातार इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि आदिवासी इलाक़ों में एकलव्य मॉडल स्कूलों की स्थापना के लक्ष्य को हासिल करने से सरकार बहुत दूर खड़ी है.

इसके अलावा जो स्कूल फ़िलहाल चल रहे हैं उनमें कोविड के दौरान जो पढ़ाई का नुक़सान हुआ है, उसकी भरपाई के लिए सरकार ने कोई विशेष उपाय नहीं किए हैं.

लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि संसद की स्थाई समिति के सिफ़ारिशों को सरकार लगातार अनदेखी कर रही है. हालत ये है कि कोविड के दौरान कितने आदिवासी बच्चों का स्कूल छूट गया, ये आँकड़े भी सरकार के पास नहीं हैं.

ऐसे में अब सरकार ने औपचारिक तौर पर यह कहा है कि 2025 तक इस लक्ष्य (452 EMRS की स्थापना) को हासिल कर लिया जाएगा.

वहीं बजट 2023-24 में भी सरकार ने आदिवासी छात्रों के लिए बड़ी घोषणा की है. छात्रों की पढ़ाई के लिए बनाए गए एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालयों में 38,800 शिक्षकों और सहायक कर्मचारियों की भर्ती की जाएगी. ये भर्ती 740 विधालयों में साल 2025 तक पूरी की जाएगी. इससे देश के 3.5 लाख आदिवासी छात्रों को फायदा होगा.

पिछले कुछ सालों में आदिवासी समुदाय राष्ट्रीय स्तर पर दलितों, मुसलमानों और पिछड़ों की तरह ही एक नया वोट बैंक बन रहे हैं. अगले साल होने वाले आम चुनाव और कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में इस समुदाय को लुभाने के लिए आए दिन बड़े बड़े वादे किए जा रहे हैं. लेकिन जमीनी स्तर पर कई मायनों में इनकी स्थिति में अभी भी कुछ ख़ास सुधार होता नहीं दिख रहा है.  

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