HomeAdivasi Dailyआदिवासी और दलितों से क्यों भरी हैं भारत की जेल

आदिवासी और दलितों से क्यों भरी हैं भारत की जेल

आदिवासी लोग देश की कुल आबादी का 8.6% हैं, लेकिन जेलों में इनकी तादाद उससे लगभग तीन गुना है. इन आकंड़ों से एक बात साफ़ हो जाती है कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली केवल ख़राब ही नहीं, बल्कि ग़रीबों के ख़िलाफ़ भी है.

‘ज़मानत नियम है, जेल अपवाद’ – यह एक क़ानूनी सिद्धांत है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में सबके सामने रखा था. जस्टिस वी कृष्णा अय्यर ने इस फ़ैसले को भारत के संविधान द्वारा निर्धारित मौलिक अधिकारों पर आधारित किया था. लेकिन, जब बात आदिवासी और पिछड़े वर्ग की आती है तो जेल को इन समुदायों को और दबाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक़ देश की जेलों में 13.6% अपराधी और 10.5% विचाराधीन क़ैदी अनुसूचित जनजातियों से हैं, जबकि 21.7% अपराधी और 21% विचाराधीन क़ैदी अनुसूचित जातियों से हैं, और 16.6% अपराधी और 18.7% विचाराधीन क़ैदी अल्पसंख्यक समुदायों से हैं. हालांकि यह सच है कि समाज में मौजूद आबादी का मिश्रण जेलों में प्रतिबिंबित नहीं होता, लेकिन एनसीआरबी के यह आंकड़े साफ़ बताते हैं कि भारत में यह समुदाय ऐतिहासिक तौर पर हाशिए पर हैं, और इन्हें और अंधकार में धकेला जा रहा है.

यह समुदाय सामाजिक और आर्थिक तौर पर पहले से ही कमजोर हैं, आजीविका के अवसरों का उपयोग करने में असमर्थ हैं, और जब यह क़ानूनी मशीनरी से भिड़ते हैं तो यह सामना आमतौर पर क्रूर होता है. यह लोग साधारण मामलों में भी भेदभाव का शिकार होते हैं, और इस कारण प्रभावी कानूनी सहायता तक पहुंचने में असमर्थ हो जाते हैं.

देश की जनसंख्या में हिस्से के मुक़ाबले आदिवासी समुदायों की देश की जेलों में हिस्सेदारी काफ़ी ज़्यादा है. आदिवासी लोग देश की कुल आबादी का 8.6% हैं, लेकिन जेलों में इनकी तादाद उससे लगभग तीन गुना है. इन आकंड़ों से एक बात साफ़ हो जाती है कि हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली केवल ख़राब ही नहीं, बल्कि ग़रीबों के ख़िलाफ़ भी है. जो लोग अच्छे, महंगे वकील रख सकते हैं, उन्हें आसानी से ज़मानत भी मिलती है, और न्याय भी. देश के ज़्यादातर आदिवासी जो रोज़मर्रा के जीवन में भी ग़रीबी से जूझते हैं, देश की न्याय प्रणाली उनकी पहुंच से बहुत दूर है.

अफ़सोस की बात यह है कि स्थिति पिछले कुछ सालों में ज़रा भी नहीं सुधरी है. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2015 में जेल में आदिवासी अपराधियों की संख्या 13.7% थी, जबकि 2019 में 13.6%. लेकिन विचाराधीन आदिवासी क़ैदियों में थोड़ी गिरावट आई – 2015 में 12.4%, 2019 में 10.5%.

राज्यों की अगर बात करें तो 2019 में मध्य प्रदेश में 5,894 आदिवासी विचाराधीन क़ैदी थे, उत्तर प्रदेश में 3,954, और छत्तीसगढ़ 3,471. दोषी पाए गए आदिवासियों की बात करें तो यह मध्यप्रदेश में 5,303, छत्तीसगढ़ में 2,906 और झारखंड में 1,985 थे.

इस भेदभाव को ख़त्म करना हमारा पहला लक्ष्य होना चाहिए, लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक कम से कम यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इन समुदायों को अच्छी कानूनी सहायता मिले. क्योंकि जेलों के इस असंतुलन को ठीक करने के लिए न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करना पहला क़दम है. 

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