HomeAdivasi Dailyजंगल की ज़मीन का पट्टा होने के बावजूद बेघर होना पड़ा, ज़िंदा...

जंगल की ज़मीन का पट्टा होने के बावजूद बेघर होना पड़ा, ज़िंदा रहना बन गया है चुनौती

जुलाई 2020 में वन विभाग ने 15 एकड़ से अधिक आदिवासी भूमि को खाली करा दिया था. अब इसके ख़िलाफ़ क्षेत्र में आदिवासी आंदोलन तेज़ हो गया है. अधिकारों को बहाल करने और अपने घरों को वापस पाने के लिए आदिवासियों ने इस सप्ताह कोरबा ज़िला प्रशासन को एक ज्ञापन दिया है.

छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले में कुछ आदिवासी परिवार अपने हक़ों की लड़ाई लड़ रहे हैं. फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट के तहत ज़मीन के हक़दार होने के बावजूद, इन परिवारों को अपनी ज़मीन और घर खोने पड़े हैं. कोरबा ज़िले के उड़ता गांव में वन विभाग ने इन परिवारों को बेदख़ल कर दिया है.

उड़ता, कोरबा ज़िले का सबसे पुराना और सबसे बड़ा गाँव है. यहां रह रहे इन परिवारों का कहना है कि वह पिछले 300 साल से यहां बसे हैं. यहां वह सब्जियों और फलों की खेती करते हैं, और इन्होंने यहां एक कुआं भी खोदा है.

इनमें से एक आदिवासी परिवार के मुखिया रतन सिंह कहते हैं कि वन अधिकार क़ानून के तहत पट्टा होने के बावजूद उन्हें जबरन निकाला गया है. यहां के अन्य किसानों ने कहा कि उनके पास अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकार की मान्यता) अधिनियम, 2006 के तहत ज़मीन की लीज़ है, और ग्राम पंचायत ने भी इनके अधिकारों को 2009 में ही मान लिया था.

किसान मानसिंह कंवर कहते हैं, “मेरी और चार अन्य किसानों की भूमि वन विभाग ने जबरन छीन ली. हम में से एक के पास तो एफ़आरए के तहत पट्टा भी है. हमारे घरों को तोड़ दिया गया, और हमको रहने की दूसरी जगह ढूंढने पर मजबूर कर दिया गया. यह जंगल हमारी आजीविका का साधन हैं, यहां हम अपने पशुओं की चराई करते हैं.”

जुलाई 2020 में वन विभाग ने 15 एकड़ से अधिक आदिवासी भूमि को खाली करा दिया था. अब इसके ख़िलाफ़ क्षेत्र में आदिवासी आंदोलन तेज़ हो गया है. अधिकारों को बहाल करने और अपने घरों को वापस पाने के लिए आदिवासियों ने इस सप्ताह कोरबा ज़िला प्रशासन को एक ज्ञापन दिया है. वन विभाग को दस दिन का अल्टीमेटम भी दिया गया है, जिसमें बीस से चालीस गांवों के आदिवासी किसानों ने घोषणा की है कि वह अपनी ज़मीन के लिए उड़ता पर मार्च करेंगे.

आदिवासी, जो देश की आबादी का 8.6% हिस्सा हैं, कृषि पर काफ़ी हद तक निर्भर हैं. पिछले एक दशक में आदिवासी कृषकों की संख्या में 10% की कमी आई है, जबकि कृषि श्रमिकों की संख्या में 9% की वृद्धि हुई है. यही वजह है कि कोविड-19 के चलते हुए लॉकडाउन ने आदिवासी समुदायों को और कमज़ोर कर दिया है, क्योंकि इनके लिए आजीविका के दूसरे विकल्पों तक पहुंचना बहुत मुश्किल हो गया है.

आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि वन विभाग और जिला प्रशासन इस कमज़ोरी का फ़ायदा उठा रहे हैं. कोरबा नगर निगम क्षेत्र में हज़ारों एकड़ वन भूमि के रूप में पंजीकृत है, और कई परिवार यहां कई पीढ़ियों से रह रहे हैं. यहां के आदिवासी समुदाय अब न सिर्फ़ अपनी जमीन वापस चाहते हैं, बल्कि उनकी मांग है कि दोषी अधिकारियों पर मुकदमा चलाया जाए. 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments