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राष्ट्रपति और राज्यपाल आदिवासी इलाक़ों में गुड गवर्नेंस के प्रहरी होने चाहिएँ

आदिवासी इलाक़ों में प्रशासन और विकास के लिए राष्ट्रपति और राज्यपाल को जो अधिकार दिए गए हैं वह दरअसल उनकी ज़िम्मेदारी है. यह ज़िम्मेदारी वंचित, शोषित और कमजोर तबके के अधिकारों को सुनिश्चित करने की है. राष्ट्रपति द्रोपदी मूर्मु संविधान के दायरे में ही यह सुनिश्चित करें कि आदिवासी इलाक़ों के विकास की निगरानी हो सके.

आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर देश अमृत महोत्सव मना रहा है. इस साल राष्ट्रपति पद पर एक आदिवासी महिला द्रोपदी मूर्मु का चुनाव भी हुआ है. द्रोपदी मूर्मु का चुनाव यह संदेश देता है कि भारत के लोकतंत्र में वंचित तबके के व्यक्ति भी सर्वोच्च पद पर पहुँच सकते हैं.

द्रोपदी मूर्मु के इस पद पर चुने जाने के पर कई जायज़ और नाजायज़ आलोचना भी हुई हैं. मसलन कुछ आलोचनाओं में यह बात बताई गई कि राष्ट्रपति पद तो एक प्रतीक मात्र है. इस पद पर बैठा व्यक्ति अंततः सरकार की नीतियों को मानने और उनके अनुमोदन के लिए बाध्य है.

इस तरह के उदाहरण भी दिए गए कि देश में पहले दलित या फिर महिला राष्ट्रपति हो चुके हैं. लेकिन उनके राष्ट्रपति बनने से दलितों या महिलाओं की स्थिति में किसी सुधारा का दावा नहीं किया जा सकता है. 

इसलिए द्रोपदी मूर्मु के राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों का कुछ भला होगा यह सोचना भी ग़लत है. ये सभी बातें जायज़ आलोचना के दायरे में आती हैं. लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि किसी वंचित या शोषित तबके के व्यक्ति का इस सर्वोच्च पद पर पहुँचना मायने रखता है. 

द्रोपदी मूर्मु देश को संबोधित करते हुए

क्योंकि राजनीतिक दल जब इस तरह का कदम उठाते हैं तो यह काम किसी समुदाय पर उपकार के लिए नहीं करते हैं. बल्कि उन राजनीतिक दलों पर उन समुदायों को प्रतिनिधित्व देने और उनके मसलों पर बात करने का दबाव होता है. इसके अलावा कई और तरह के दबाव भी किसी राजनीतिक दल पर हो सकता है. मसलन राज्यों या देश के चुनाव भी इस तरह के फ़ैसलों के पीछे कारण होते हैं. 

राष्ट्रपति पद पर एक आदिवासी महिला को चुने जाने के पीछे कारण जो भी हो लेकिन इस पद पर एक महिला आदिवासी का पहुँचना महत्वपूर्ण है. इसके अलावा मैं यह भी मानता हूँ कि राष्ट्रपति चाहे तो संवैधानिक दायरे में बंधे रहने के बावजूद आदिवासियों के लिए बहुत कुछ कर सकती हैं. 

संविधान की अनुसूची 5 में यह प्रावधान है कि जिन भी राज्यों में अनुसूचित क्षेत्र हैं राष्ट्रपति वहाँ के राज्यपालों से हर साल आदिवासी इलाक़ों के बारे में रिपोर्ट माँग सकती हैं. यह रिपोर्ट अनुसूचित इलाक़ों के प्रशासन के बारे में हर साल या जब भी राष्ट्रपति ज़रूरी समझें, राज्यों से माँगी जा सकती है. 

जिन राज्यों में अनुसूची 5 के इलाक़े हैं वहाँ पर ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल के गठन का प्रावधान है. इसके अलावा ऐसे राज्य जहां पर आदिवासी आबादी है लेकिन उन इलाक़ों को अनुसूचित क्षेत्रों में नहीं रखा गया है, राष्ट्रपति ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल का गठन करने के लिए कह सकती हैं. 

ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल के तीन चौथाई सदस्य आदिवासी समुदाय के जन प्रतिनिधियों में से होने अनिवार्य हैं. संविधान की अनुसूची 5 में ऐसे राज्यों के राज्यपालों को विशेष अधिकार देती है जहां पर अनुसूचित क्षेत्र हैं. मसलन गवर्नर संसद या विधानसभा से पास किसी क़ानून अनुसूचित इलाक़ों में लागू होने से रोक सकते हैं.

गवर्नर आदिवासी इलाक़ों (अनुसूचित क्षेत्र) में शांति और अच्छे प्रशासन के लिए कई तरह के नियम बना सकते हैं. मसलन गवर्नर अनुसूचित क्षेत्र में ज़मीन के लेन-देन या फिर क़र्ज़ देने वाले साहूकारों को नियमित करने वाले नियम बना सकते हैं. 

1974-75 से आदिवासी इलाक़ों में विकास के लिए केंद्र सरकार सरकार बजट में विशेष प्रावधान करती है. इसे ट्राइबल सब प्लान (Tribal Sub Plan, TSP) कहा जाता था. आजकल इसे STC यानि शेड्यूल ट्राइब कॉम्पोनेन्ट कहा जाता है. 

STC के तहत भारत सरकार के 41 मंत्रालय आदिवासी इलाक़ों में अपने बजट का एक निश्चित हिस्सा खर्च करते हैं. भारत सरकार का जनजातीय मंत्रालय इस ख़र्च की निगरानी करता है.

इसके अलावा अलग अलग राज्य सरकारें भी आदिवासी क्षेत्रों में विकास और मूलभूत सुविधाएँ देने के लिए योजनाएँ बनाती हैं. राज्यपाल की रिपोर्ट एक दस्तावेज होती है जिसमें आदिवासी इलाक़ों में विकास और प्रशासनिक काम दोनों का ब्यौरा होता है. 

क्योंकि आदिवासी मामलों का मंत्रालय निगरानी में पैसे के हिसाब किताब पर ज़्यादा ज़ोर देता है. लेकिन राज्यपाल की रिपोर्ट में वहाँ के ज़मीनी हालात और राज्य सरकार या प्रशासन के काम पर टिप्पणी और सुझाव भी शामिल हो सकते हैं.

भारत के 10 राज्यों में अनुसूची 5 के इलाक़े हैं और देश की कुल आबादी का लगभग 8-10 प्रतिशत आदिवासी है. संविधान निर्माताओं को इस बात का एहसास था कि देश की आदिवासी आबादी के लिए विशेष प्रावधानों की आवश्यकता है. 

इसलिए राष्ट्रपति और गवर्नर को आदिवासी इलाक़ों के प्रशासन के सिलसिले में विशेष अधिकार दिए गए हैं. जब संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति को कुछ विशेष अधिकार दिए जाते हैं तो दरअसल वह उनकी एक ख़ास ज़िम्मेदारी होती है. 

इस लिहाज़ से देश के राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों की आदिवासियों के प्रति कई ज़िम्मेदारियां तय की गई है. लेकिन अफ़सोस कि इस ज़िम्मेदारी को अभी तक किसी राष्ट्रपति या गवर्नर ने गंभीरता से नहीं लिया है. 

इस तरह के कई उदाहरण मिलते हैं जब राज्यपालों ने राज्य सरकारों की इच्छा या फ़ैसले के ख़िलाफ़ बयान या रिपोर्ट दी हैं. ये रिपोर्ट आमतौर पर केन्द्र सरकार चला रही राजनीतिक दल के फ़ायदे के लिए दिए जाते हैं. लेकिन आदिवासी इलाक़ों में इस तरह के बयान या रिपोर्ट नज़र नहीं आते हैं. जबकि संविधान उनसे यह उम्मीद करता है.

गुजरात उन दस राज्यों में शामिल है जहां अनुसूची 5 के क्षेत्र हैं. यहाँ के एक आदिवासी नेता राजेश वसावा का दावा है कि इस राज्य के राज्यपाल ने 2006 के बाद एक भी रिपोर्ट आदिवासी इलाक़ों के विकास या प्रशासन से जुड़ी हुई नहीं दी है.

राष्ट्रपति और राज्यपाल का पद तो प्रतीकात्मक है और उन्हें केंद्र या राज्य मंत्रिमंडल की सलाह से ही काम करना पड़ता है. यह बात सच है लेकिन आदिवासी इलाक़ों के प्रशासन के मामले में स्थिति बिलकुल अलग है. 

सितंबर 2008 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने राज्यपालों के सम्मेलन में इस महत्वपूर्ण प्रश्न को उठाते हुए कहा था, “संविधान की 5 अनुसूची अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और अनुसूचित जनजातियों के संबंध में राज्यपाल का एक विशेष रोल तय करता है. राज्यपालों को यह अधिकार है कि वो यह तय करें कि कोई क़ानून अनुसूचित क्षेत्रों में किसी सुधार के साथ, बिना सुधार के या फिर लागू होगा या बिलकुल ही लागू नहीं होगा.”

2008 में राज्यपालों के सम्मेलन में आदिवासी इलाक़ों में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका पर चर्चा हुई थी

वो आगे कहती हैं, “राज्यपाल को यह अधिकार भी है कि वो अनुसूचित इलाक़ों के लिए विशेष नियम भी बना सकते हैं. लेकिन इस मामले में एक तरफ़ तो यह माना जाता है कि राज्यपाल को इन अधिकारों के बारे में सक्रिय रहना चाहिए, दूसरी तरफ़ यह माना जाता है कि कोर्ट के फ़ैसले और संविधान सभा की बहस में यह स्पष्ट है कि राज्यपाल का पद प्रतीकात्मक है.”

तब राष्ट्रपति ने सुझाया था, “सरकार को इस अनिश्चितता को समाप्त करना चाहिए. इसके लिए सरकार को क़ानूनी सलाह लेनी चाहिए. इसके साथ ही गवर्नर की रिपोर्ट नियमित की जानी ज़रूरी हैं. इसके साथ ही ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल का काम भी आशा के अनुसार नहीं हो रहा है. “

अंततः इस अनिश्चितता को समाप्त करने के लिए सरकार ने अपने सबसे बड़े लॉ ऑफ़िसर अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया से सलाह माँगी.  अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया ने इस मामले में क़ानूनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा, “पाँचवीं अनुसूची के क्लॉज़ 2 में यह अनुसूचित इलाक़ों में राज्य की कार्यकारी शक्ति को पाँचवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुरूप रखने का प्रावधान है.” 

इस मामले में विस्तार से बात करते हुए अटॉर्नी जनरल ने स्पष्ट किया है कि आदिवासी इलाक़ों में शांति और बेहतर प्रशासन के लिए गवर्नर को विशेष अधिकार प्राप्त हैं. (Source: National Commission of Scheduled Tribes Report, 2012)

संविधान और क़ानून से प्राप्त अधिकारों प्राप्त होना और उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी मान कर वंचित, शोषित और कमजोर तबकों के अधिकारों को सुनिश्चित करना ये दो बातें हैं. 

जब सर्वोच्च पद पर बैठा व्यक्ति अपने फ़ैसलों और कार्यों से उदाहरण पेश करता है तो उसके मातहत को भी सही रास्ता मिलता है. राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू आदिवासी इलाक़ों के विकास और प्रशासन पर गवर्नर की रिपोर्ट को नियमित करवा सकती हैं. संविधान के दायरे में रह कर इस सीमित शक्ति का भी अगर वो इस्तेमाल करती हैं तो आदिवासी इलाक़ों में बहुत कुछ बदल सकता है. 

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