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आदिवासी बच्चों की मौतें बढ़ने पर महाराष्ट्र सरकार को हाई कोर्ट की फटकार

याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता जुगल किशोर गिल्डा ने कहा कि पिछले 30 वर्षों में आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर में वृद्धि हुई है. जबकि पिछले दो महीनों में मेलघाट और अन्य आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण और दूषित पानी के अलावा अन्य कारणों से कई बच्चों की मौत हुई है.

बॉम्बे हाई कोर्ट ने पालघर ज़िले में समय पर अस्पताल ना पहुंच पाने के कारण आदिवासी गर्भवती महिला के नवजात जुड़वा शिशुओं की मौत पर बुधवार को चिंता जताते हुए चिंता जताई महाराष्ट्र सरकार से कहा कि वह आदिवासी क्षेत्रों में गर्भवती माताओं और शिशुओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं को सुलभ बनाने के लिए तत्काल कदम उठाए.

हाई कोर्ट ने आदिवासियों की स्थिति में सुधार के लिए पिछले दो दशकों में दिए गए निर्देशों को लागू करने के लिए राज्य द्वारा अपर्याप्त कदमों पर भी नाराजगी व्यक्त की.

वहीं राज्य ने हाई कोर्ट को सूचित किया कि उसने ऐसे क्षेत्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों को भेजने की पहल की है. जबकि याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि स्त्री रोग विशेषज्ञों और बाल रोग विशेषज्ञों सहित आधे डॉक्टर आदिवासी बहुल मेलघाट में नहीं आते हैं. जिसके बाद अदालत ने इसे “गंभीर मुद्दा” कहा था.

चीफ जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एम एस कार्णिक मेलघाट में बच्चों में कुपोषण पर कार्यकर्ता डॉक्टर राजेंद्र बर्मा और बंदू संपतराव साने द्वारा दायर याचिकाओं सहित कई मामलों पर सुनवाई कर रहे थे.

याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता जुगल किशोर गिल्डा ने कहा कि पिछले 30 वर्षों में आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर में वृद्धि हुई है. जबकि पिछले दो महीनों में मेलघाट और अन्य आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण और दूषित पानी के अलावा अन्य कारणों से कई बच्चों की मौत हुई है. उन्होंने कहा कि इन क्षेत्रों में प्रतिनियुक्ति (Deputation)पर रखे गए आधे डॉक्टर ड्यूटी पर नहीं आ रहे हैं.

व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हुए बंदू संपतराव साने ने कहा कि आदिवासी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु को कम करने के लिए जिम्मेदार विभिन्न विभागों के बीच समन्वय की कमी के कारण विशेषज्ञ डॉक्टर नियमित दौरे नहीं कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि जो डॉक्टर शामिल होने के लिए तैयार हैं उनके पास रहने के लिए जगह नहीं है और उन्हें परिवर्तनीय वेतन दिया जाता है और क्योंकि कलेक्टर ऐसे क्षेत्रों का दौरा नहीं करते हैं इसलिए पर्याप्त धनराशि का वितरण नहीं किया जा रहा है.

साने ने मांग की कि स्वास्थ्य सेवा के लिए बजटीय प्रावधान, जैसा कि वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी डॉक्टर छेरिंग दोरजे की पिछले साल इस क्षेत्र की यात्रा के बाद की रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी, को मंजूरी दी जाए.

वहीं सरकारी वकील प्रियभूषण पी काकड़े ने कहा कि राज्य सरकार ड्यूटी पर नहीं आने वाले डॉक्टरों के खिलाफ कार्रवाई कर रही है और उन्हें हटाने के बारे में कारण बताओ नोटिस जारी कर रही है.

हाई कोर्ट ने पालघर में मोखाडा तालुका से एक समाचार रिपोर्ट का उल्लेख किया, जहां वंदना बुधर ने इस सप्ताह की शुरुआत में घर पर जुड़वा बच्चों को जन्म दिया था. इसके तुरंत बाद, समय से पहले हुए बच्चों को सांस लेने में समस्या होने लगी. परिवार बुधर और उसके बच्चों को अपने गांव से लगभग 12 किलोमीटर दूर खोडाला के निकटतम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक अस्थायी स्ट्रेचर में ले गया. हालांकि परिवार के 3 किलोमीटर चलने के बाद रास्ते में ही जुड़वा बच्चों की मौत हो गई.

हाई कोर्ट ने राज्य से पूछा.. “यह कहानी पालघर की है. अस्पताल तक पहुंच नहीं होने के कारण मां ने जुड़वा बच्चों को खो दिया. यह अदालत समय-समय पर निर्देश देती रही है. 2006 में इसने 13 निर्देश जारी किए थे… तब से 16 साल बीत चुके हैं. तब से क्या विकास हुआ है?”

आगे कहा, “हमें बताएं कि सरकार को तत्काल क्या निर्देश दिए जा सकते हैं … विशेष क्षेत्रों के लिए जहां तत्काल ध्यान देने की जरूरत है. हम उसके अनुसार एक आदेश पारित करेंगे.”

हाई कोर्ट मामले की अगली सुनवाई 12 सितंबर को करेगा.

क्या है मामला?

दरअसल सोमवार को पालघर ज़िले के मोखाडा तालुक के मरकटवाड़ी गांव की 26 साल की एक गर्भवती आदिवासी महिला को कंधे पर टांगकर अस्पताल पहुंचाया गया. गांव तक ढंग की सड़क नहीं थी और इस वजह से ऐंबुलेंस नहीं पहुंच पाई. समय पर इलाज न मिलने की वजह से महिला के जुड़वां बच्चों की मौत हो गई.

गांववालों ने कपड़े और डंडे से स्ट्रेचर बनाकर गर्भवती महिला को कंधे पर टांग कर 3 किलोमीटर चले और मेन रोड तक पहुंचे. भारी बरसात के बीच ये जोखिम उठाया गया.

गर्भवती महिला को मेन रोड से ऐंबुलेंस के ज़रिए खोडाला पीएचसी लाया गया. उसने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया लेकिन उनकी जन्म के समय ही मौत हो गई. मेडिकल विभाग से जुड़ी डॉक्टर पुष्पा माथुरे ने ये जानकारी दी थी. डॉक्टर पुष्पा ने ये भी कहा कि अगर सड़क होती औ महिला का समय पर इलाज हो जाता तो बच्चों को बचाया जा सकता था.

वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने बुधवार को पालघर ज़िले के आदिवासी बस्ती मरकटवाड़ी का दौरा किया. इसमें ज़िला स्वास्थ्य अधिकारी (District Health Officer) दयानंद सूर्यवंशी, पालघर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सिद्धराम सलीमठ और मोखाड़ा तालुका उपमंडल अधिकारी आयुषी सिंह शामिल थे. ये लोग उन परिस्थितियों का अनुभव करने गए थे जो स्थानीय लोग दशकों से झेल रहे हैं.

ज़िला स्वास्थ्य अधिकारी डॉक्टर सूर्यवंशी ने बाद में बताया कि स्थानीय आदिवासी, विशेष रूप से गर्भवती महिलाएं, अपने स्वास्थ्य को महत्व नहीं देती हैं.

उन्होंने कहा, “यदि कोई महिला गर्भवती है, तो उसे स्थानीय स्वास्थ्य कर्मचारियों से संपर्क करने की आवश्यकता है. एक आशा कार्यकर्ता उसी गांव में रहती है और उसने महिला (वंदना बुधर) को खेत में काम नहीं करने के लिए कहा था लेकिन उसने उसकी एक नहीं सुनी.”

उन्होंने कहा कि गांव सड़क से नहीं जुड़ा है. हमारे पास कुछ चिन्हित क्षेत्र हैं जहां सड़क संपर्क की आवश्यकता है. ज़िला कलेक्टर ने गुरुवार को बैठक बुलाकर सड़कों, भवनों की स्वीकृति पर चर्चा की है, जिसमें लंबा समय लगेगा.

सूर्यवंशी ने कहा, “कलेक्टर ने हमें क्षेत्र का दौरा करने और स्थिति का जायजा लेने और एक समाधान के साथ आने के लिए कहा, ताकि समय से पहले प्रसव या अन्य स्वास्थ्य आपात स्थितियों जैसी समस्याओं से समय पर निपटा जा सके.”

उन्होंने कहा कि वे गुरुवार को कलेक्टर के साथ बैठक में अपने निष्कर्षों पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे. उन्होंने कहा, “मैं कलेक्टर को सुझाव दूंगा कि दूरदराज के आदिवासी इलाकों में गर्भवती महिलाओं को आशा कार्यकर्ताओं सहित हमारे स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के साथ लगातार संपर्क में रहना चाहिए. कोई कम्युनिकेशन गैप नहीं होना चाहिए.”

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, जुलाई 2022 भी इस क्षेत्र में एक गर्भवती महिला को कपड़े और बांस से बने अस्थायी स्ट्रेचर से कंधे पर टांगकर अस्पताल पहुंचाया गया था. हालांकि किस्मत से महिला वक्त पर अस्पताल पहुंच गई, वो और उसके बच्चे जीवित बच गए.

अप्रैल 2022 में भी पालघर ज़िले के मुकुंदपदा (Mukundpada) गांव से एक ऐसी ही तस्वीर सामने आई थी. गांव की एक गर्भवती महिला को कंधे पर टांगकर 4 किलोमीटर चलकर अस्पताल पहुंचाया गया था.

पालघर ज़िले में ऐसे कई गांव हैं जहां तक पक्की सड़क नहीं है. मरीज़ों और गर्भवती महिलाओं को ऐसे ही कंधे पर टांगकर मेन रोड तक लाया जाता है और उन्हें अस्पताल या पीएचसी पहुंचाया जाता है. आज़ादी के 75 साल हो गए हैं लेकिन ये छवि नहीं बदली है.

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