झारखंड में आदिवासियों के बीच अपनी जमीन फिर से हासिल करने की कोशिश में भाजपा ने संथाल परगना क्षेत्र में कथित सीमा पार घुसपैठ को अपने प्रमुख चुनावी मुद्दों में से एक बनाया है.
यह इस बात से प्रेरित है कि अतीत में असम और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में इस तरह के मुद्दे ने मतदाताओं के बीच किस तरह भूमिका निभाई थी.
बीजेपी के दावे के केंद्र में झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में “बदलती” जनसांख्यिकी है. जिसमें आदिवासी आबादी में “गिरावट” का हवाला दिया गया है, खासकर बंगाल और बिहार की सीमा पर स्थित संथाल परगना में.
सरकारी डेटा और स्वतंत्र शोध से पता चलता है कि राज्य की आदिवासी आबादी आजादी से पहले से ही घट रही है. लेकिन आबादी की बदलती संरचना में बाहरी लोगों के यहां बसने की भूमिका है.
विधानसभा चुनावों में आदिवासी वोट अहम है. 81 सदस्यीय विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए 28 सीटें आरक्षित हैं और कुल 39 सीटें हैं जहां एसटी आबादी का कम से कम एक चौथाई हिस्सा है.
ऐसे में इस समुदाय को लुभाने के लिए बीजेपी ने अपना दांव इस बार जनसंख्या के अनुपात और संतुलन में बदलाव पर खेला है.
झारखंड का गठन बिहार से अलग होकर 2000 में हुआ था. लेकिन रांची स्थित शोधकर्ता एलेक्सियस एक्का (Alexius Ekka) द्वारा 2001 में इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (EPW) पत्रिका में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर में बताया गया है कि ब्रिटिश शासन के दौरान 1881 तक के जनगणना रिकॉर्ड बताते हैं कि इस क्षेत्र में आदिवासी कभी भी बहुसंख्यक नहीं थे.
आज़ादी से पहले के जनगणना के आंकड़े, 1881 से 1941 तक दक्षिणी बिहार के तत्कालीन छोटानागपुर क्षेत्र के लिए बताते हैं कि 1911 में आदिवासी आबादी कुल आबादी का 38.42 फीसदी थी और 1941 में यह सबसे कम 30.89 फीसदी थी.
1951 तक जब स्वतंत्र भारत में पहली जनगणना जनजातीय और गैर-जनजातीय समूहों को वर्गीकृत करने के लिए अप-टू-डेट मानदंडों के साथ की गई थी. तब एसटी इस क्षेत्र की आबादी का 35.38 फीसदी थे, जिसकी गणना बिहार के उन जिलों से की गई थी जो अब झारखंड में आते हैं. यह आंकड़े 2004 में ईपीडब्ल्यू में अरूप महारत्न और रसिका चिटके द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार किया गया था.
राज्य के गठन से पहले की आखिरी जनगणना 1991 में हुई थी. तब इस क्षेत्र की जनजातीय आबादी 27.66 फीसदी थी, जो पिछले चार दशकों में 1.42 फीसदी की वार्षिक दर से बढ़ी थी.
वहीं राज्य की जनजातीय आबादी 2001 में 26.3 फीसदी और 2011 में 26.21 फीसदी दर्ज की गई, जो नवीनतम उपलब्ध जनगणना वर्ष है, जिसके अनुसार एसटी का अखिल भारतीय अनुपात 8.61 फीसदी है.
नवीनतम उपलब्ध जनगणना वर्ष के मुताबिक, अनुसूचित जनजातियों का अखिल भारतीय अनुपात 8.61 फीसदी है.
आदिवासी आबादी घटने के कारण
आज़ादी से पहले भी इस क्षेत्र की घटती जनजातीय आबादी के पीछे पहचाने गए कारणों में कम जन्म दर और उच्च मृत्यु दर, गैर-आदिवासियों का प्रवास और आदिवासियों का पलायन और प्राकृतिक संसाधनों पर आजीविका के लिए निर्भर आदिवासियों पर शहरीकरण और औद्योगीकरण का प्रतिकूल प्रभाव शामिल थे.
2001 की जनगणना के मुताबिक, झारखंड के 14.72 लाख निवासी, जिनमें आदिवासी और गैर-आदिवासी शामिल हैं, राज्य से पलायन कर गए, जो राज्य की आबादी का 5.46 फीसदी है.
लेकिन झारखंड की आबादी का 1.8 लाख या 6.67 फीसदी हिस्सा अन्य राज्यों से आए प्रवासियों का था, जो संभवतः इसके महत्वपूर्ण खनन उद्योग की ओर आकर्षित हुए थे.
साल 2011 तक झारखंड से बाहर जाने वालों की संख्या बढ़कर 17.61 लाख या राज्य की आबादी का करीब 5.34 प्रतिशत हो गई, जबकि अन्य राज्यों से आए 22.65 लाख प्रवासी कुल आबादी का 6.87 प्रतिशत थे.
2011 की जनगणना के मुताबिक, अंतरराज्यीय प्रवासियों के लिए अखिल भारतीय औसत आंकड़ा – जो अपने मूल राज्य के बजाय एक नए राज्य में प्रवास करते हैं – 12.06 फीसदी था.
झारखंड में अपने घरों से दूर जाने वाले 18.66 प्रतिशत लोगों ने राज्य के भीतर रहने के बजाय उसे पूरी तरह से छोड़ना चुना. इसकी तुलना में पड़ोसी राज्य ओडिशा में अंतरराज्यीय प्रवास की दर 8.07 फीसदी और और छत्तीसगढ़ 8.41 फीसदी थी.
झारखंड से प्रवासियों के लिए सबसे पसंदीदा आउट-ऑफ-स्टेट डेस्टिनेशन पश्चिम बंगाल (2011 की जनगणना के अनुसार 4.59 लाख) हैं, इसके बाद बिहार (4.34 लाख), ओडिशा (1.67 लाख), छत्तीसगढ़ (1.11 लाख), उत्तर प्रदेश (1.1 लाख), महाराष्ट्र (1 लाख) और दिल्ली (69,196) हैं.
पुरुषों के लिए झारखंड से पलायन का सबसे आम कारण कहीं और बेहतर रोजगार के अवसर हैं. ये 51.1 फीसदी पुरुष प्रवासियों ने बताया है, जैसा कि जर्नल ऑफ माइग्रेशन अफेयर्स में आईआईएम-रायपुर के शोधकर्ता पिनाक सरकार द्वारा 2023 के अध्ययन में बताया गया है. महिलाओं में 70.1 फीसदी प्रवासियों ने विवाह को पलायन का कारण बताया.
झारखंड में आय के स्तर को देखते हुए विशेष रूप से आदिवासियों के बीच, पलायन का पैमाना शायद हैरान करने वाला नहीं है. 2023-24 में झारखंड की वार्षिक प्रति व्यक्ति आय 65 हज़ार 62 रुपये थी जो भारत के औसत 1.07 लाख रुपये से बहुत पीछे थी.
2011 की सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना में पाया गया कि झारखंड के केवल 6.08 प्रतिशत आदिवासी परिवार वेतनभोगी नौकरियों से आय प्राप्त करते हैं. जबकि उनमें से करीब 80 प्रतिशत प्रति माह 5 हज़ार रुपये से कम कमाते हैं.
भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा संकलित आंकड़ों के मुताबिक, 2022-23 में जब भारत की औसत शहरी बेरोजगारी दर प्रति 1,000 लोगों पर 54 और और ग्रामीण बेरोजगारी दर प्रति 1,000 लोगों पर 24 थी.
झारखंड के लिए यही, शहरी बेरोजगारी दर प्रति 1,000 लोगों पर 63 और ग्रामीण बेरोजगारी दर प्रति 1,000 लोगों पर 9 थी.
सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा प्रकाशित 2022-23 के घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण में पाया गया कि मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (MPCE), जिसमें सभी खाद्य और गैर-खाद्य व्यय शामिल हैं, झारखंड के लिए पूरे भारत की तुलना में काफी कम था, जो कम खर्च करने की क्षमता का संकेत है.
झारखंड की ग्रामीण एमपीसीई 2,763 रुपये और शहरी एमपीसीई 4,931 रुपये थी. जबकि अखिल भारतीय औसत ग्रामीण एमपीसीई 3,773 रुपये और शहरी एमपीसीई 6,459 रुपये थी.
झारखंड में आदिवासियों के लिए एमपीसीई राज्य औसत से भी कम है. ग्रामीण के लिए 2,218 रुपये और शहरी के लिए 3,767 रुपये. और यह अनुसूचित जाति और ओबीसी सहित अन्य हाशिए के समुदायों से भी कम है.
इन सभी आंकड़ों और तथ्यों के बावजूद बीजेपी झारखंड में जनसांख्यिकी बदलाव और अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की मौजूदगी को चुनावी मुद्दा बना रही है.
राज्य में आए दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, हिमंत बिस्वा सरमा, बाबूलाल मरांडी, चंपई सोरेन समेत सभी बीजेपी नेता इसी मुद्दे पर जोरशोर प्रचार कर रहे हैं.
सोमवार (11 नवंबर, 2024) को ही अमित शाह ने झारखंड में स्पष्ट किया कि अगर भारतीय जनता पार्टी राज्य में सत्ता में आती है तो वह घुसपैठियों की पहचान के लिए एक कमेटी का गठन करेगी.
शाह ने कहा कि अगर कोई घुसपैठिया आदिवासी समुदाय की लड़की से शादी करता है तो उसे उसके नाम पर जमीन नहीं मिलेगी. उन्होंने कहा कि ‘घुसपैठियों’ को जमीन का हस्तांतरण रोकने के लिए बीजेपी कानून भी पारित करेगी.