HomeElections 2024आदिवासियों के लिए ज़मीन का अधिकार घुसपैठ से बड़ा मुद्दा है

आदिवासियों के लिए ज़मीन का अधिकार घुसपैठ से बड़ा मुद्दा है

झारखंड में 2014 से 2019 के बीच रघुबर दास यानि बीजेपी की सरकार थी. इस दौरान आदिवासी की ज़मीन के अधिकार की रक्षा करने वाले क़ानून सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट में बदलाव की कोशिश हुई. इसके साथ ही सरकार ने उद्योगों को ज़मीन उपलब्ध कराने के लिए लैंड बैंक स्थापित किया. इन कदमों से बीजेपी ने राज्य में आदिवासी का भरोसा खो दिया था. 2024 यानि इस विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इस विश्वास को हासिल करने के लिए रोटी, बेटी और माटी की रक्षा का नारा दिया है.

झारखंड के चुनाव में बीजेपी ने आदिवासी की रोटी, बेटी और माटी बचाने का नारा दिया है. दरअसल बीजेपी का दावा है कि झारखंड के आदिवासी इलाकों में बांगलादेशी घुसपैठ हो रही है. इसके अलावा पार्टी का यह दावा भी है कि मुसलमान लड़के आदिवासी लड़कियों को बहका कर शादी करते हैं. पार्टी का कहना है कि जो मुसलमान लड़के आदिवासी लड़कियों से शादी करते हैं वे आदिवासी लड़कियों के नाम पर ज़मीन लूटते हैं.

बीजेपी ने यह ऐलान किया है कि झारखंड में अगर उसकी सरकार बनती है तो वह इस ट्रेंड को रोकने के लिए क़ानून लाएगी. इसके साथ ही बांगलादेशी घुसपैठ को रोकने के लिए NRC को लागू किया जाएगा.

बीजेपी ने रोटी, बेटी और माटी के नारे को ख़ासतौर से संथाल परगना क्षेत्र में मुख्य मुद्दा बनाया है. एक दिन बुधवार को देवघर की एक जनसभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाषण देते हुए कहा,”संथाल परगना में आदिवासी जनसंख्या आधी रह गई है. अगर यही चलता रहा तो आदिवासी का जल, जंगल और ज़मीन पर दूसरों का कब्जा हो जाएगा.”

क्या बीजेपी ने आदिवासी के जल, जंगल और ज़मीन का जो मुद्दा उठाया है, वही राज्य की राजनीति और कम से कम इस चुनाव का मुख्य मुद्दा है? इस बारे में मैं भी भारत की टीम ने झारखंड के अलग अलग इलाकों में लोगों से सवाल पूछे.

इस सिलसिले में लोहरदगा में उरांव आदिवासी बच्चों के लिए एक ख़ास सांस्कृतिक स्कूल चलाने वाले संजीव भगत कहते हैं, “इस बात में कोई दो राय नहीं हैं कि आदिवासी के लिए सबसे बड़ा मुद्दा ज़मीन है. लेकिन झारखंड में जो ज़मीन की लूट की कोशिशें हुई है वो सुनियोजित तरीके से बीजेपी की रघुबरदास की सरकार के ज़माने में हुई थी. तत्कालीन बीजेपी सरकार ने लैंडबैंक योजना शुरू की थी, जिसका मकसद आदिवासियों की ज़मीन उद्योगों को देना था.”

झारखंड में आदिवासी और ज़मीन के अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी भी कहते हैं कि बीजेपी ने एक बेहद ज़रूरी और संवेदनशील मुद्दे पर एक फ़ेक नेरेटिव खड़ा करने की कोशिश की है.

उनके अनुसार बीजेपी आदिवासी जनसंख्या घटने के बारे में जो दावे कर रही है वह भी ग़लत है. इन सभी कार्यकर्ताओं में एक ही मत है कि राज्य में बीजेपी की रघुबरदास सरकार (2014-2019) के ज़माने में आदिवासियों की ज़मीन के अधिकारों को कमज़ोर करने की सबसे अधिक कोशिशें हुई थीं.

इन कार्यकर्ताओं में दयामणि बारला, वासवी किड़ो और प्रोफेसरन रजनी मुर्मू जैसे लोग शामिल हैं. इन लोगों का कहना है कि आदिवासियों के ज़मीन के अधिकार से छेड़छाड़ की वजह से ही बीजेपी ने आदिवासियों का विश्वास खोया था.

इस विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने ज़मीन के मुद्दे को संजीदगी से उठाने की बजाए, इस मुद्दे के सहारे आदिवासी वोटर्स में बंटवारा पैदा करने की कोशिश की है.

ज़मीन का असली मुद्दा

आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में जमीन अधिग्रहण जटिल और विवादास्पद मुद्दा रहा है. राज्य में 23,605 वर्ग किलोमीटर (लगभग 20 लाख हेक्टेयर) वन क्षेत्र है जो राज्य की कुल भौगोलिक भूमि का लगभग 29.6 प्रतिशत है.

इसके अलवा झारखंड की भूमि खनिज संसाधनों से भी समृद्ध है. झारखंड राज्य खनिज विकास निगम के आंकड़ों के मुताबिक, कोयले से लेकर बॉक्साइट और ग्रेफाइट तक भारत के 40 प्रतिशत खनिज भंडार इसी राज्य में हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड में आदिवासी समूह कुल आबादी का 26 प्रतिशत हैं. झारखंड इन्हीं आदिवासियों के संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है.

पारंपरिक निवासी 300 से अधिक वर्षों से अपनी पहचान, स्वायत्तता, संस्कृति, भाषा, भूमि, भूभाग और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं. झारखंड का निर्माण 15 नवंबर, 2000 को भारत के राजनीतिक मानचित्र पर एक नए राज्य के रूप में बिहार के दक्षिणी भाग से अलग किया गया था, जो संघर्ष के परिणामों में से एक था.

राज्य के गठन के बाद आदिवासी संघर्ष विस्थापन विरोधी आंदोलन पर केंद्रित रहा है. एक दशक के भीतर एक के बाद एक सरकारों द्वारा 74 समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए गए. लेकिन कोई भी बड़ी परियोजना मूर्त रूप नहीं ले पाई.

आदिवासियों ने आर्सेलर मित्तल, जिंदल समूह और टाटा स्टील लिमिटेड को अपने सपनों की स्टील परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित भूमि को छोड़ने के लिए मजबूर किया.

अतीत से सबक लेते हुए 2014 में सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी सरकार ने भूमि अधिग्रहण की रणनीति में बदलाव किया. 31 दिसंबर 2014 को सरकार ने अपने राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के माध्यम से सभी 24 जिलों के उपायुक्तों को एक परिपत्र जारी कर सर्वेक्षण करने और भूमि बैंक के लिए निजी भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमि का डेटा तैयार करने को कहा.

डेटा तैयार होने के बाद विभाग ने एक नई वेबसाइट बनाई…भूमि बैंक, जिसमें 2,097,003.81 एकड़ भूमि को सरकारी भूमि के रूप में दिखाया गया.

लैंड बैंक अस्तित्व में आया

जनवरी 2016 में, राज्य सरकार (उस समय बीजेपी की सरकार थी) ने एक ‘भूमि बैंक’ पोर्टल का उद्घाटन किया, जिसमें उद्योग और गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल की जा सकने वाली भूमि के बारे में जिलेवार जानकारी सूचीबद्ध की गई थी.

कई आदिवासी समूहों ने इसका विरोध किया, उनका कहना था कि उनकी आम भूमि के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से खेती की जाने वाली कृषि भूमि को भी इस भूमि बैंक में शामिल किया गया है. साथ ही आदिवासी धार्मिक और दफन स्थलों को इस भूमि बैंक में शामिल किया गया था.

उसी वर्ष बाद में, नवंबर 2016 में दास की सरकार ने दो कानूनों – छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 और संथाल परगना अधिनियम 1949 में संशोधन का प्रस्ताव रखा.

ये दोनों कानून अनुसूचित जनजातियों (एसटी) की भूमि को उन श्रेणियों से संबंधित नहीं होने वाले व्यक्तियों को हस्तांतरित होने से बचाते हैं.

संशोधन सरकार को इन भूमियों का उपयोग गैर-कृषि उद्देश्यों जैसे उद्योगों की स्थापना के साथ-साथ सार्वजनिक सुविधाओं के लिए करने की अनुमति देता.

झारखंड विधानसभा और पूरे राज्य में इस पर तत्काल प्रतिक्रिया हुई. आदिवासी समूहों ने विरोध किया और संशोधन वापस लिए जाने तक अपना आंदोलन जारी रखने की धमकी दी.

राज्य की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने संशोधनों पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया और उन्हें सरकार को वापस कर दिया, जिससे अगस्त 2017 में सरकार को दोनों विधेयक वापस लेने पड़े.

लैंड बैंक को किस तरह आगे बढ़ाया गया

वैसे तो खदानों की नीलामी साल 2020 में हुई थी लेकिन भूमि के अधिग्रहण को “आसान” बनाने का काम कई सालों से चल रहा है. इस प्रक्रिया के हिस्से के रूप में केंद्र सरकार ने कई राज्यों में भूमि बैंकों के निर्माण की सुविधा प्रदान की.

इन भूमि बैंकों का इस्तेमाल तैयार भूमि के जरिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए किया जाना था, जिस पर अधिग्रहित की जा रही भूमि के बदले में कारोबार किया जा सकता था.

कई राज्य सरकारों ने भी इस विचार को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाया, जिसमें तब की झारखंड राज्य सरकार भी शामिल थी.

साल 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुबर दास की अगुवाई में झारखंड सरकार ने इन बैंकों का निर्माण शुरू किया था. यह झारखंड पहल के शुभारंभ से पहले शुरू हुआ था, जहां उद्योगों के साथ तीन लाख करोड़ रुपए के समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए थे.

भूमि बैंक बनाने से पहले लोगों से न तो कोई सलाह-मशविरा किया गया और न ही भूमि का कोई भौतिक सर्वेक्षण कराया गया था. भूमि जिनकी वास्तविक स्थिति स्वतंत्रता पूर्व सर्वेक्षणों के बाद से बदल गई थी, उनको भी भूमि बैंक में शामिल किया गया था. जो भूमि खेती लायक बनाई गई थी, उसे भी भूमि बैंक में डाल दिया गया था.

भूमि बैंक का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि भूमि बैंक में पंजीकृत 2,097,003.81 एकड़ भूमि में से 1,016,680.48 एकड़ (जो भूमि बैंक में पंजीकृत कुल भूमि का 48.4% है) वन भूमि है.

जबकि वन अधिकार कानून, 2006 इस तरह की भूमि पर लागू होता है ताकि क्षेत्र में रहने वाले लोग, विशेष रूप से मूल निवासी और अन्य पारंपरिक वनवासी, निजी और सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों का दावा कर सकें.

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