HomeElections 2024झारखंड: आदिवासी पहचान, विकास और राजनीतिक स्थिरता के संघर्ष में उलझा है

झारखंड: आदिवासी पहचान, विकास और राजनीतिक स्थिरता के संघर्ष में उलझा है

जल जंगल और जमीन के आधार पर अलग राज्य बने झारखंड से लोगों को काफी उम्मीदें थी, लेकिन राज्य में अब तक लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुई. इसका एक कारण शायद राज्य में बनी लगातार राजनीतिक अस्थिरता भी मानी जाती है.

भारत के 28वें राज्य झारखंड का गठन राज्य के लिए लंबे समय से चले आ रहे आदिवासी आंदोलन के बाद 15 नवंबर 2000 को हुआ था. झारखंड पहले बिहार का हिस्सा था, यह तब दक्षिण बिहार था, जो एक महत्वपूर्ण आदिवासी आबादी वाला अत्यधिक खनिज समृद्ध क्षेत्र था.

इस साल के अंत में राज्य की विधानसभा का पांचवा चुनाव होगा.

असल में झारखंड राज्य का दर्जा मुख्य रूप से आदिवासियों द्वारा किए गए लंबे संघर्ष की परिणति था. झारखंड राज्य देश के उत्तरपूर्वी भाग में स्थित है. इसकी सीमा उत्तर में बिहार, पूर्व में पश्चिम बंगाल, दक्षिण में ओडिशा, पश्चिम में छत्तीसगढ़ और उत्तर पश्चिम में उत्तर प्रदेश राज्यों से लगती है.

झारखंड का क्षेत्रफल 74,677 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है. वन और जंगल राज्य के 29 प्रतिशत से अधिक को कवर करते हैं जो देश में सबसे अधिक है.

2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य की जनसंख्या 3 करोड़ 29 लाख 66 हज़ार 238 है और अनुसूचित जनजाति कुल आबादी का 86.5 लाख है.

राज्य की आदिवासी आबादी झारखंड की कुल जनसंख्या का 26.2 फीसदी है. संथाल, ओराँव (कुरुख), मुंडा, खरिया और हो प्रमुख आदिवासी समुदाय हैं और साथ में वे कुल आदिवासी आबादी का बड़ा बहुमत बनाते हैं.

झारखंड क्षेत्रफल के हिसाब से भारत का 15वां और जनसंख्या के हिसाब से 14वां सबसे बड़ा राज्य है.

झारखंड अभ्रक, बॉक्साइट, कोयला, लौह अयस्क, तांबा अयस्क, यूरेनियम, चांदी, ग्रेफाइट, मैग्नेटाइट, ग्रेनाइट, चूना पत्थर और डोलोमाइट जैसे खनिज संसाधनों से समृद्ध है. यह एकमात्र राज्य है जो यूरेनियम, कुकिंग कोल और पाइराइट का उत्पादन करता है.

छोटा नागपुर भारत में सबसे समृद्ध खनिज बेल्ट है और यह देश की खनिज उपज के एक महत्वपूर्ण हिस्से का उत्पादन करता है.

जल जंगल और जमीन के आधार पर अलग राज्य बने झारखंड से लोगों को काफी उम्मीदें थी, लेकिन राज्य में अब तक लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुई. इसका एक कारण शायद राज्य में बनी लगातार राजनीतिक अस्थिरता भी मानी जाती है.

झारखंड का राजनीतिक इतिहास उतार-चढ़ाव भरा रहा है. राज्य की जनता ने 23 वर्षों में 11 मुख्यमंत्री और तीन बार राष्ट्रपति शासन देखा है.

झारखंड के 23 सालों के राजनीतिक इतिहास में मुख्यमंत्रियों का औसत कार्यकाल लगभग 1.5 वर्ष ही है. इसमें ख़ासतौर पर नोट करने वाली बात ये है कि आदिवासी या मूल निवासियों के समुदाय से आने वाला कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाता है.

बीजेपी के रघुबर दास एकमात्र सीएम हैं जिन्होंने 2014 से 2019 तक पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया है.

झारखंड के 11 मुख्यमंत्री

15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग राज्य बनने के बाद बीजेपी के बाबूलाल मरांडी ने राज्य की कमान संभाली और झारखंड के पहले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिया. हालांकि पार्टी में आंतरिक विरोध के कारण वो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा.

इसके बाद अर्जुन मुंडा ने 18 मार्च 2003 से 2 मार्च 2005 तक झारखंड के मुख्यमंत्री का पद संभाला और वे बीजेपी से जुड़े हुए थे.

जब भी झारखंड की बात होती है तो लोगों की जुबान पर शिबू सोरेन का नाम सबसे पहले आ जाता है. झारखंड आंदोलन के नायक रहे शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने. 2005 में वो पहली बार राज्य के सीएम की कुर्सी पर बैठे लेकिन बहुमत साबित न हो पाने के कारण उन्हें 10 दिनों में ही इस्तीफा देना पड़ा था.

फिर राज्य की राजनीति में नया मोड़ तब आया जब 18 सितंबर 2006 को निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा ने राज्य के मुख्यमंत्री तौर पर शपथ ली थी. तब मधु कोड़ा ने राज्य के पांचवें सीएम के तौर पर शपथ ली थी. लेकिन वो भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. मधु कोड़ा लगभग दो साल तक झारखंड के मुख्यमंत्री रहे.

इसके बाद फिर एक बार शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बने. लेकिन इस बार भी वो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके. उन्होंने 27 अगस्त 2008 से 18 जनवरी 2009 तक झारखंड के मुख्यमंत्री का पद संभाला.

इसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया. राष्ट्रपति शासन 19 जनवरी 2009 से 29 दिसंबर 2009 तक लगा रहा और फिर शिबू सोरेन 30 दिसंबर 2009 को मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली. लेकिन तीसरी बार भी वो अपने मुख्यमंत्री का कार्यकाल पूरा करने में नाकाम रहे और 1 जून 2010 तक झारखंड के मुख्यमंत्री रहे.

इसके बाद एक बार फिर अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे और 11 सितंबर 2010 से 18 जनवरी 2013 तक झारखंड के मुख्यमंत्री का पद संभाला.

इसके बाद झारखंड के नए मुख्यमंत्री बने हेमंत सोरेन. लेकिन ये भी अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सके और 13 जुलाई 2013 से 28 दिसंबर 2014 तक झारखंड के मुख्यमंत्री रहे.

फिर राज्य विधानसभा चुनाव होने पर बीजेपी के रघुबर दास मुख्यमंत्री बने और वो 28 दिसंबर 2014 से 23 दिसंबर 2019 तक झारखंड के मुख्यमंत्री रहे. ये झारखंड के एकमात्र सीएम हैं जिन्होंने अब तक पांच साल का कार्यकाल पूरा किया.

इसके बाद 2019 झारखंड विधानसभा चुनाव में राज्य की जनता ने हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया. उन्होंने 29 दिसंबर 2019 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. लेकिन 1 फरवरी 2024 को कथित जमीन घोटाले में ईडी ने हेमंत सोरेन को गिरफ्तार कर लिया. इससे पहले 31 जनवरी 2024 को सोरेन ने राज्यपाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. इस्तीफे के बाद ही ईडी ने उन्हें गिरफ्तार किया.

इसके साथ सोरेन भी उन मुख्यमंत्रियों की लंबी सूची में शामिल हो गए जो अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सके हैं. हेमंत सोरेन के बाद झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के नेता चंपई सोरेन राज्य के मुख्यमंत्री बने थे.

JMM नेता हेमंत सोरेन जेल से छूटने के बाद चंपाई सोरेन को हटा कर एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बन गए हैं. अब उनके ही नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा इंडिया गठबंधन के साथ चुनवा लड़ने को तैयार है.

झारखंड के मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने से नाराज चंपाई सोरेन ने यह कहते हुए झारखंड मुक्ति मोर्चा छोड़ दिया है कि पार्टी में उनका सम्मान नहीं रहा. अब वे बीजेपी का दामन थाम चुके हैं.

JMM का इतिहास

झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की उत्पत्ति का पता झारखंड आंदोलन में मिलती है. इस आंदोलन की शुरुआत 1950 के दशक में झारखंड फॉर्मेशन पार्टी (JHP) की स्थापना के साथ हुई थी. जिसकी स्थापना जयपाल सिंह मुंडा ने की थी, जो संविधान सभा के सदस्यों में से एक थे.

दक्षिण बिहार में जनजातीय क्षेत्रों को समर्पित एक अलग राज्य के लिए अग्रणी, जेएचपी शुरू में फली-फूली. 1950 में गठित झारखंड फॉर्मेशन पार्टी ने ही सबसे पहले औपचारिक रूप से अलग झारखंड की मांग उठाई थी.

अद्वितीय आदिवासी पहचान, सामुदायिक भूमि और अविभाजित बिहार के दक्षिणी हिस्सों में आने वाले जिलों में शोषण को समाप्त करने की मांग इसके केंद्र में थी.

जेएचपी दक्षिण बिहार में “झारखंडी” के तहत आदिवासियों और गैर-आदिवासियों को एकजुट करने वाली पहली राजनीतिक पार्टी थी.

जेएचपी ने 1952 में पहले आम चुनाव में 32 सीटें जीतीं और एक नए राज्य के निर्माण के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग (एसआरसी) को एक ज्ञापन सौंपा. हालांकि, उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया. जिससे इसकी लोकप्रियता में गिरावट आ गई.

अपने राजनीतिक स्थान पर पकड़ बनाए रखने के कोशिश में जेएचपी का 1963 में कांग्रेस में विलय हो गया. हालांकि, विलय से गुटबाजी और अन्य समस्याएं पैदा हुईं. लगभग उसी समय क्षेत्र के आदिवासी एक साथ आ रहे थे और क्षेत्र के पिछड़ेपन को उजागर करने के लिए छोटे आंदोलनों का नेतृत्व कर रहे थे.

कुर्मी नेता बिनोद बिहारी महतो ने शिवाजी समाज नामक एक सामाजिक सुधार संगठन चलाया. यह संगठन 1960 और 1970 के दशक में समुदाय के सदस्यों के लिए भूमि बहाली के लिए काम करता था. संगठन ने शिबू सोरेन के नेतृत्व वाले संथालों के साथ गठबंधन किया, जो भूमि अधिकारों के लिए भी लड़ रहे थे.

यह गठबंधन औपचारिक रूप से 1973 में अस्तित्व में आया और इसे झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के नाम से जाना गया. कम्युनिस्ट नेता एके रॉय की अध्यक्षता वाली मार्क्सवादी समन्वय समिति (एमसीसी) भी झामुमो के समर्थन में आ गई.

साथ में उन्होंने क्षेत्र में सामाजिक कार्यों में कदम रखा और दक्षिण बिहार में अपनी पकड़ बनाई. शिबू सोरेन आंदोलन के सबसे बड़े नेताओं में से एक के रूप में उभरे. उन्होंने अवैध खनन के खिलाफ आदिवासियों को एकजुट किया और 1970 के दशक में देश के बाकी हिस्सों में राजनीतिक उथल-पुथल के बीच विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया. झामुमो के लिए वामपंथी समर्थन तब समाप्त हो गया, जब पार्टी ने बिहार में 1980 के विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया.

झामुमो को आदिवासी चिंताओं से जुड़ी पार्टी के रूप में चित्रित किया गया. वहीं आपातकाल के बाद एक अलग राज्य के लिए जन लामबंदी पर ध्यान केंद्रित करते हुए, राजनीतिक गतिविधि को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया गया.

इसके बाद शिबू सोरेन ने महासचिव की भूमिका निभाई और निर्मल महतो को झारखंड मुक्ति मोर्चा का अध्यक्ष नियुक्त किया. झारखंड के हितों की रक्षा के लिए एक अधिक मजबूत आंदोलन की आवश्यकता को पहचानते हुए, महतो ने झारखंड मुक्ति मोर्चा से संबद्ध एक छात्र संघ की स्थापना का प्रस्ताव रखा.

उभरते राजनीतिक परिदृश्य के जवाब में शिबू सोरेन ने 1984 में आदिवासी क्षेत्रों के लिए एक अलग पहचान पर जोर देते हुए झामुमो को एक राजनीतिक दल के रूप में फिर से लॉन्च किया.

पार्टी के संविधान में “दिकुओं” (शोषक या बाहरी लोगों) के खिलाफ लड़ाई की कल्पना की गई और चुनावी राजनीति में भाग लेने के लिए आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच संबंधों को फिर से परिभाषित करने की मांग की गई.

निर्मल महतो का दृष्टिकोण 22 जून 1986 को साकार हुआ, जिससे ऑल-असम स्टूडेंट्स यूनियन की तर्ज पर ऑल-झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन का उदय हुआ. प्रभाकर तिर्की ने अध्यक्ष की भूमिका निभाई, जबकि सूर्य सिंह बेसरा महासचिव के रूप में कार्यरत रहे.

महतो ने रणनीतिक रूप से आजसू के सभी नेताओं और सदस्यों के लिए असम, बोडोलैंड और गोरखालैंड में क्रांतिकारी आंदोलनों के समान गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षण प्रदान करने की कल्पना की.

शुरुआत में आजसू झामुमो के एक छात्र संगठन के रूप में काम कर रहा था लेकिन 8 अगस्त 1987 को निर्मल महतो की हत्या के तुरंत बाद एक संगठन के रूप में आजसू अगले कुछ वर्षों के लिए बंद हो गया.

1987 में झारखंड समन्वय समिति (जेसीसी) के गठन ने झामुमो गुटों सहित विभिन्न राजनीतिक दलों को एक अलग राज्य के लिए आंदोलन करने के लिए एक साथ लाया. कांग्रेस के साथ झामुमो के गठबंधन और आखिरकार राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को उसके समर्थन ने नवंबर 2000 में झारखंड के निर्माण में योगदान दिया.

झारखंड आंदोलन से जन्मे झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्य के राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. हालांकि, आंतरिक विभाजन, बदलते गठबंधन और अपने समर्थन आधार को व्यापक बनाने में विफलता जैसी चुनौतियों ने झारखंड की राजनीति में केंद्र स्तर पर कब्जा करने की पार्टी की क्षमता में बाधा उत्पन्न की है.

वहीं आदिवासी हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी के रूप में पहचाने जाने के बावजूद, झामुमो ने आदिवासी आबादी के बीच व्यापक समर्थन को मजबूत करने के लिए संघर्ष किया है. पार्टी का समर्थन अक्सर क्षेत्रीय और आदिवासी आधार पर विभाजित होता है, भाजपा और कांग्रेस जैसे अन्य राजनीतिक दलों से प्रतिस्पर्धा होती है, जिससे आदिवासी वोट बैंक और भी विभाजित हो जाता है.

विभिन्न आदिवासी समूहों को एक बैनर के नीचे एकजुट करने में असमर्थता ने झामुमो की चुनावी सफलता में बाधा उत्पन्न की है.

झारखंड के आदिवासी की स्थिति

झारखंड जनजातियों का राज्य है. यहां 30 अनुसूचित जनजातियां रहती है जिसमें 22 बड़ी जनजातियां हैं. जबकि आठ यानी असुर, बिरजिया, बिरहोर, कोरवा, मालपहाड़िया, परहिया, हिल खड़िया, सौरिया पहाड़िया को आदिम जनजाति (PVTG) के श्रेणी में रखा गया है. आदिम जनजाति अल्पसंख्यक हैं. इनमें से ज़्यादतर समुदाय गरीबी रेखा के नीचे हैं.

सौरिया पहाड़ी, करमाली, चिक बैराक और चेरों झारखंड की चार ऐसी जनजातियां हैं. जिनकी आबादी आदिवासियों की कुल आबादी का 1 प्रतिशत से भी कम है. ये आदिवासी समुदाय आर्थिक, सामाजिक और राजनितिक रुप से पिछड़े हुए हैं.

सौरिया पहाड़ियां और सावर ऐसी पिछड़ी जनजातियों में से हैं जिनकी आबादी घटती जा रही है. इसकी जानकारी 2001 और 2011 के जनगणना रिर्पोट से मिलती है.

झारखंड राज्य आदिवासियों के लंबे संघर्ष के बाद अस्तित्व में आया. लेकिन बावजूद इसके राज्य की कई जनजातियां आज भी बुनियादी सुविधाओं के अभाव में जीवन जी रहे हैं. इन जनजातियों का विकास न हो पाना सरकार की गैर जिम्मेदारी का भी नतीजा है.

गरीबी और जरूरी सुविधाओं के अभाव के कारण इन जनजातियों में मातृ-मृत्यु दर, शिशु-मृत्यु दर अधिक है. बीमारियों में इलाज-उपचार न होने के कारण इनकी अधिक मृत्यु होती है.

झारखंड के आदिवासियों के मुद्दे

डीलिस्टिंग – झारखंड में डीलिस्टिंग एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है. पिछले साल दिसंबर महीने में ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ के बैनर तले ‘उलगुलान आदिवासी डीलिस्टिंग रैली’ भी हुई. इस रैली की मुख्य मांग थी कि – धर्मांतरण (ईसाई) कर चुके आदिवासियों को उन्हें मिलने वाली एसटी-आरक्षण आदि सभी सुविधाओं से बाहर करने के लिए विशेष कानून बनाया जाए.

संघ परिवार के सामाजिक-धार्मिक संगठनों द्वारा “आदिवासियों की धर्मांतरण राजनीति” तेज़ की जा रही है.

जानकारों का मानना है कि आदिवासी समाज में पकड़ बनाने के लिए ‘डीलिस्टिंग’ यानी धर्मांतरण का मामला संघ और भाजपा के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है जिसे लेकर बीते कई दशकों से भाजपा काम करती आई है.

सरना – आदिवासियों का एक बड़ा तबका ऐसा है जो खुद को हिंदू नहीं मानता है. इनमें झारखंड के आदिवासियों की आबादी सबसे ज्यादा है. ये आदिवासी खुद को ‘सरना धर्म’ का बताते हैं.

झारखंड के आदिवासी वर्षों से अपने लिए अलग से ‘सरना धर्म कोड’ लागू करने की मांग कर रहे हैं. आदिवासियों की ये मांग 80 के दशक से चली आ रही है. 2019 में झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार आने के बाद ये मांग और तेज़ हो गई. सोरेन सरकार ने ‘सरना धर्म कोड बिल’ पास भी किया था. लेकिन ये बिल अभी केंद्र सरकार के पास मंजूरी के लिए अटका है.

इस मामले में पिछले साल सितंबर में झारखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक पत्र भी लिखा था. जिसमें उन्होंने सरना धर्म कोड को लागू करने की मांग की. पीएम को लिखे पत्र में सीएम सोरेन ने कहा था कि हम आदिवासी पेड़ो, पहाड़ो एंव जंगलों को बचाने को अपना धर्म मानते हैं.

उन्होंने कहा कि झारखंड आदिवासी बहुल राज्य है. यहां आदिवासियों की संख्या एक करोड़ से भी ज्यादा है. राज्य की एक बड़ी आबादी सरना धर्म को मानती है इसलिए पूरे आदिवासी समुदाय के लोग जनगणना कोड में सरना धर्म को शामिल करने की मांग कर रहे हैं.

आदिवासी आबादी का कम होना – झारखंड में आदिवासी आबादी 35 फीसदी से घटकर 24 फीसदी हो गई है. आंकड़े बताते हैं कि 1931 से 2011 के बीच राज्य में आदिवासी आबादी में 11.9 फीसदी का अंतर आया है. 1931 की जनगणना में आदिवासी आबादी 38 प्रतिशत थी, 80 वर्षों की अवधि में यह घटकर 26.2 प्रतिशत (2011 की जनगणना) हो गई.

1991 की जनगणना के मुताबिक राज्य में आदिवासी आबादी 27.7 प्रतिशत थी, 2001 की जनगणना के मुताबिक 26.3 प्रतिशत और 2011 की जनगणना के मुताबिक 26.2 प्रतिशत थी.

बीजेपी ने संथाल परगना की “बदलती जनसांख्यिकी” का मुद्दा बार-बार उठाया है. पार्टी का दावा है कि बांग्लादेश से अवैध आप्रवासन के कारण राज्य में आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आबादी में गिरावट आई है.

बीजेपी का दावा है कि संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठिए बस गए हैं और वर्तमान राज्य सरकार ने उन्हें वोट के लिए यहां बसने की अनुमति दी है और उन्हें सभी सुविधाएं प्रदान की हैं.

हांलाकि आदिवासी मसलों के जानकार कहते हैं कि घटती आदिवासी आबादी के लिए पलायन, गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण बड़े कारण हैं.

ये जानकार कहते हैं कि आदिवासी आबादी कम नहीं हो रही है; वे बस बेरोजगारी के कारण बाहर जा रहे हैं. विशेष रूप से गुमला, सिमडेगा और लातेहार जिलों से स्थानीय लोग काम के लिए बड़े शहरों में जा रहे हैं.

भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि प्रवास के कारण 2001 से 2011 के बीच झारखंड ने अपनी कामकाजी उम्र की आबादी के करीब 5 मिलियन लोगो को खो दिया.

गरीबी और बेरोजगारी – झारखंड में 2021 में जारी नीति आयोग की पहली बहुआयामी गरीबी सूचकांक (Multidimensional Poverty Index) रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड में 42.2 प्रतिशत लोग गरीब हैं, जिसमें आदिवासी आबादी भी शामिल है.

घोर गरीबी के कारण यहां के आदिवासियों में कुपोषण और एनीमिया जैसी समस्याएं भी व्याप्त हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के मुताबिक, झारखंड में 45 प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से बहुत छोटे कद के हैं और 22 प्रतिशत बच्चे अपनी लंबाई के हिसाब से बहुत पतले हैं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि राज्य में 6 से 59 महीने के 67 प्रतिशत बच्चे एनीमिया के शिकार हैं.

वहीं सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के सर्वेक्षण के मुताबिक, मई 2020 में झारखंड की बेरोजगारी दर बढ़कर 59.2 प्रतिशत हो गई. काम के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में प्रवास करने वालों में झारखंड के ग्रामीण इलाकों से बड़ी संख्या में आदिवासी शामिल हैं.

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