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झारखंड विधानसभा चुनाव में आदिवासी की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का मुद्दा केंद्र में आया

बीजेपी द्वारा लगातार झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ और आदिवासियों की घटती आबादी का मुद्दा उठाने के जवाब में हेमंत सोरेन आदिवासी सरना धर्म कोड का मामला उठाया था. उन्होंने कहा कि अलग धार्मिक संहिता-सरना के साथ मूल निवासियों को “अपनी पहचान से क्यों वंचित रखा गया.

झारखंड में नई सरकार चुनने के लिए विधानसभा चुनाव (Jharkhand Assembly Elections) होने जा रहे हैं. राज्य में दो चरणों में 13 और 20 नवंबर को मतदान होगा और नतीजे 23 नवंबर को आएंगे.

झारखंड मुख्य रूप से आदिवासी बहुल राज्य है. जिसकी 81 विधानसभा सीटों में से 44 सामान्य श्रेणी में हैं, 28 अनुसूचित जनजातियों (Scheduled tribes) के लिए आरक्षित हैं और नौ अनुसूचित जातियों के लिए हैं.

वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आदिवासी हैं और उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM), कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के गठबंधन का नेतृत्व कर रही है. वहीं भारतीय जनता पार्टी (BJP) जिस गठबंधन का नेतृत्व कर रही है, उसमें ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (AJSU) और चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) प्रमुख भागीदार है.

इन चुनावों को तय करने वाले प्रमुख मुद्दों में से एक आदिवासियों के सामने आने वाला पहचान का संकट है.

सरना धर्म संहिता

देश के आदिवासियों की तरह झारखंड के आदिवासियों के लिए अपनी अलग पहचान हमेशा एक बड़ा मसला रहा है. यह आदिवासियों की धार्मिक पहचान से जुड़ा है.

झारखंड की एक बड़ी आबादी सरना धर्म को मानती है. सरना धर्म संहिता झारखंड के आदिवासी समुदायों के एक बड़े वर्ग की प्रमुख मांग रही है, जो खुद को सरना के रूप में पहचानते हुए प्रकृति देवता की पूजा करते हैं.

झारखंड के आदिवासी वर्षों से अपने लिए अलग से ‘सरना धर्म कोड’ लागू करने की मांग कर रहे हैं. आदिवासियों की ये मांग 80 के दशक से चली आ रही है.

2019 में झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार आने के बाद ये मांग और तेज़ हो गई. जिसके बाद हेमंत सोरेन सरकार ने 2022 में विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित किया था और इसे जनगणना में एक अलग संहिता के रूप में शामिल करने के लिए केंद्र को भेजा था. इसके बाद से सरना धर्म कोड को मान्यता देने का प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास लटका हुआ है.

हालांकि, गृह मंत्री अमित शाह ने रविवार को कहा कि अगर झारखंड में भाजपा सत्ता में आई तो वह दशकीय जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग सरना संहिता पर विचार करेगी.

शाह ने झारखंड विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा का संकल्प पत्र जारी करते हुए कहा, ‘‘झारखंड में अगर भाजपा सत्ता में आती है तो वह सरना धार्मिक कोड के मुद्दे पर विचार-विमर्श करेगी और उचित निर्णय लेगी.’’

लेकिन रांची में आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बताया कि यह बयान केवल चुनावी मजबूरियों को ध्यान में रखते हुए दिया गया था.

पदाधिकारी का कहना है कि इस मुद्दे पर भाजपा खुद को मुश्किल स्थिति में पाती है. आदिवासियों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए कुछ किया जाना चाहिए. बस इतना कहा गया है कि भाजपा सरकार इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करेगी. मांग पूरी होती है या नहीं, यह एक अलग मुद्दा है.

यह मुद्दा भाजपा के लिए पेचीदा रहा है क्योंकि इसके वैचारिक मार्गदर्शक आरएसएस ने हमेशा यह माना है कि जो आदिवासी ईसाई धर्म में परिवर्तित नहीं हुए हैं, वे सनातन धर्म का हिस्सा हैं.

दशकों से आरएसएस और संघ परिवार ने कहा है कि भारत के आदिवासी समुदाय हिंदू धर्म का हिस्सा हैं और यह विचार कि वे एक अलग धर्म बनाते हैं, ईसाई मिशनरियों और ‘राष्ट्र विरोधी’ ताकतों द्वारा भारत को तोड़ने की साजिश के तहत बोया गया है.

लेकिन झारखंड में जहां 2011 की जनगणना के मुताबिक आदिवासी समूह कुल आबादी का 26 प्रतिशत हैं, सत्तारूढ़ झामुमो समर्थित अलग सरना कोड की मांग अब तक के सबसे ऊंचे स्तर पर है.

बीजेपी द्वारा लगातार झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठ और आदिवासियों की घटती आबादी का मुद्दा उठाने के जवाब में हेमंत सोरेन आदिवासी सरना धर्म कोड का मामला उठाया था. उन्होंने कहा कि अलग धार्मिक संहिता-सरना के साथ मूल निवासियों को “अपनी पहचान से क्यों वंचित रखा गया.

वहीं हाल ही में जेएमएम की नेता और सीएम हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन ने भी सरना का मुद्दा उठाया था बीजेपी को चुनौती दी थी कि अगर उसमें हिम्मत है तो वह सरना धार्मिक कोड का समर्थन करे.

आदिवासी समुदाय, जो खुद को हिंदू धर्म, इस्लाम या ईसाई धर्म जैसे किसी संगठित धर्म से संबंधित नहीं मानते, जनगणना में अपने धर्म को “अन्य” के रूप में पहचानते हैं. इसे अपनी आस्था का अपमान मानते हुए, वे मांग कर रहे हैं कि सरना धर्म के लिए एक अलग कॉलम बनाया जाए.

आदिवासी बनाम वनवासी

जहां हेमंत सोरेन आदिवासियों की धार्मिक पहचान यानि सरना धर्म कोड को मुद्दा बनाते हैं तो राहुल गांधी बार-बार आदिवासी बनाम वनवासी के मुद्दे को उठाते हैं.

राहुल गांधी आदिवासी बनाम वनवासी का मुद्दा अक्सर आदिवासी इलाकों की चुनावी रैलियों में उठाते रहे हैं.

हाल ही में संविधान सम्मान सम्मेलन में बोलते हुए राहुल गांधी ने दोहराया कि जब आदिवासियों को बीजेपी वनवासी कहती है तो वह आदिवासियों के सम्मान और अधिकार को नकारती है.

इस दौरान कांग्रेस नेता राहुल ने कहा था कि जब बीजेपी के लोग आदिवासी को वनवासी कहते हैं. तब वे आपके इतिहास, आपके जीने के तरीके को खत्म करने की कोशिश करते हैं. आदिवासी का मतलब है: देश के सबसे पहले मालिक, आदिवासी सिर्फ एक शब्द नहीं हैं बल्कि आपका पूरा इतिहास है.

राहुल का कहना है कि आदिवासी लोगों को ‘वनवासी’ बताने में एक विकृत मानसिकता दिखती है. राहुल के मुताबिक यह शब्द आदिवासियों को जंगलों तक सीमित करता है.

राहुल गांधी ने अक्सर केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा पर जनजातीय समुदायों को जंगलों तक सीमित करने की कोशिश करने और ‘आदिवासी’ की जगह ‘वनवासी’ कहकर उन्हें जमीन के मूल स्वामित्व के दर्जे से वंचित करने का आरोप लगाया है.

आरएसएस और बीजेपी आदिवासियों के लिए ‘वनवासी’ शब्द का उपयोग करते हैं.

आरएसएस आदिवासियों के लिए “आदिवासी” शब्द का उपयोग नहीं करता है क्योंकि इतिहास के हिंदू राष्ट्रवादी पढ़ने के अनुसार, भारत के मूल निवासी वैदिक काल के आर्य थे, न कि आदिवासी, जिन्हें आरएसएस “वनवासी” कहना पसंद करता है.

संघ परिवार शुरू से ही आदिवासियों को वनवासी कहता रहा है. यहां तक कि सन् 1952 में उसने आदिवासियों के हिन्दूकरण के लिए वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की.

धर्मांतरण

वहीं भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की घुसपैठ रोकने का वादा करके इस मुद्दे को उठाया है. हालांकि, यह कोई नई बहस नहीं है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से प्रेरित संगठन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम (ABVKA) 1952 में अपनी स्थापना के बाद से ही इस मुद्दे को उठाता रहा है और इसके समाधान के लिए जमीनी स्तर पर काम करता रहा है.

बांग्लादेशी प्रवासियों के अवैध प्रवास के अलावा आदिवासी क्षेत्रों में मिशनरियों द्वारा सुनियोजित तरीके से आदिवासियों का मुख्य रूप से ईसाई धर्म में धर्मांतरण भी एक महत्वपूर्ण चुनौती है.

2006 में ABVKA की प्रेरणा से शुरू किया गया जनजातीय सुरक्षा मंच (JJSM) एक उच्च-प्रभाव वाला संगठन है, जिसने इस मुद्दे पर आदिवासियों को संगठित करने में एक शानदार भूमिका निभाई है.

झारखंड उन प्रमुख राज्यों में से एक है जहां जनजातीय सुरक्षा मंच ने 2006 से आदिवासी बेल्ट में दर्जनों सार्वजनिक रैलियां और बैठकें की हैं. पिछले चार वर्षों में इसने एक प्रमुख मांग के इर्द-गिर्द आदिवासियों को एकजुट करने के लिए नए सिरे से प्रयास किया है और वो है – उन आदिवासियों को ST श्रेणी से बाहर करना जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया है.

जनजातीय सुरक्षा मंच की कार्यशैली आम तौर पर कैडर आधारित संगठन की है. इसके पदाधिकारी मुख्य रूप से आदिवासी हैं. इसके कैडर दूरदराज के आदिवासी इलाकों में मीलों पैदल चलते हैं और अपने स्थानीय संसाधन व्यक्तियों की मदद से सबसे गरीब आदिवासियों से जुड़ते हैं. वे उनकी भाषा में बात करते हैं, उनके साथ खाना खाते हैं, उनके साथ समय बिताते हैं और उनकी पहचान से जुड़े प्रमुख मुद्दों को समझाते हैं.

जेजेएसएम ने पिछले कुछ सालों में करीब 200 जनसभाएं की हैं. इनमें से 19 राज्य स्तरीय रैलियां थीं, जबकि बाकी मुख्य रूप से जिला और मंडल स्तर पर जनसभाएं थीं.

झारखंड में दो राज्य स्तरीय बैठकें और दर्जनों छोटी जनसभाएं हुई हैं. जेजेएसएम के एक पदाधिकारी ने बताया कि राज्य स्तरीय बैठकों में 35 हज़ार आदिवासी शामिल हुए.

कहने के लिए जेजेएसएम एक गैर-राजनीतिक मंच है जिसमें आदिवासी समुदाय के विभिन्न वर्गों के हितधारक शामिल हैं. लेकिन इसकी गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव भी है.

दिसंबर 2023 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में आदिवासी बहुल इलाकों में अपने मजबूत प्रदर्शन के कारण भाजपा सत्ता में आई. 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 90 सीटों वाली विधानसभा में एसटी के लिए आरक्षित 25 में से तीन सीटें जीती थीं. वहीं 2019 में उसने इनमें से 17 सीटें जीतीं. छत्तीसगढ़ में जेजेएसएम भी काफी सक्रिय रहा है.

जेजेएसएम की अपने उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके नेताओं ने मार्च 2022 में 445 सांसदों (लोकसभा से 337 और राज्यसभा से 108) से मुलाकात की और धर्मांतरित आदिवासियों को सूची से बाहर करने की मांग पर जोर दिया.

अनसुलझा मुद्दा

आदिवासी समुदाय के कार्तिक उरांव ने 1960 के दशक में धर्मांतरित आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर करवाने के लिए प्रयास किए थे. ये प्रयास 1970 के दशक में भी जारी रहे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

तीन बार लोकसभा के सांसद रहे कार्तिक उरांव द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक, संवैधानिक अधिकारों के लाभार्थियों में से कई धर्मांतरित जनजातियां थीं.

सैद्धांतिक रूप से एक बार जब कोई व्यक्ति ईसाई धर्म अपना लेता है तो संबंधित व्यक्ति को एकेश्वरवादी होने और अन्य देवी-देवताओं की पूजा न करने की शपथ लेनी होती है. इसका मतलब यह है कि अनुसूचित जनजाति समुदायों के धर्मांतरित व्यक्ति अपने पारंपरिक देवी-देवताओं की पूजा करना बंद कर देते हैं और वे अपनी पारंपरिक परंपराओं और जीवन शैली को भी त्याग देते हैं.

दिए गए परिदृश्य में सवाल उठता है कि उसे आदिवासी कैसे कहा जा सकता है? अगर कोई व्यक्ति ईसाई धर्म अपना लेता है तो उसे आदिवासी लोगों के लिए निर्धारित अधिकार और लाभ क्यों मिलने चाहिए?

इसलिए, धर्मांतरित व्यक्तियों को आदिवासी समुदायों के लिए दी गई संवैधानिक सुरक्षा से वंचित किया जाना चाहिए, जो अनिवार्य रूप से उनके पारंपरिक लोकाचार, संस्कृति, पहचान और आजीविका की सुरक्षा के लिए हैं.

इसी मुद्दे को कार्तिक उरांव ने संसद में बड़े जोर-शोर से उठाया था. उनके प्रयासों से वर्ष 1968 में एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया, जिसमें लोकसभा के 22 सांसद और राज्यसभा के 11 सांसद शामिल थे.

कार्तिक उरांव खुद इस समिति के सदस्यों में से एक थे. समिति की 22 बैठकें हुईं और 17 नवंबर 1969 को इसने संसद में एक रिपोर्ट पेश की.

इस रिपोर्ट में अन्य बातों के अलावा एक महत्वपूर्ण सिफारिश की गई थी, “धारा 2 के 2ए के मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति अपनी परंपरा, संस्कृति को छोड़कर इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाता है, तो उसे अनुसूचित जनजाति का हिस्सा नहीं माना जाएगा.”

हालांकि, इस रिपोर्ट को कभी लागू नहीं किया.

डीलिस्टिंग

इन सभी के अलावा झारखंड में डीलिस्टिंग एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है. पिछले साल दिसंबर महीने में ‘जनजाति सुरक्षा मंच’ के बैनर तले ‘उलगुलान आदिवासी डीलिस्टिंग रैली’ भी हुई. इस रैली की मुख्य मांग थी कि – धर्मांतरण (ईसाई) कर चुके आदिवासियों को उन्हें मिलने वाली एसटी-आरक्षण आदि सभी सुविधाओं से बाहर करने के लिए विशेष कानून बनाया जाए.

संघ परिवार के सामाजिक-धार्मिक संगठनों द्वारा “आदिवासियों की धर्मांतरण राजनीति” तेज़ की जा रही है.

जानकारों का मानना है कि आदिवासी समाज में पकड़ बनाने के लिए ‘डीलिस्टिंग’ यानी धर्मांतरण का मामला संघ और भाजपा के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है जिसे लेकर बीते कई दशकों से भाजपा काम करती आई है.

झारखंडा विधानसभा के लिए दो चरणों में 13 और नवंबर 20 को मतदान होगा. वहीं नतीजे 23 नवंबर को आएंगे और उस दिन यह तय होने की उम्मीद है कि हेमंत सोरेन सरकार की वापसी होती है या बीजेपी एक अंतराल के बाद सत्ता पर काबिज होगी.

(PTI File image)

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