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त्रिपुरा में आदिवासी और बंगाली के बीच हिंसा की असली वजह क्या है

एक आदिवासी लड़के परमेश्वर रियांग की मौत के बाद भड़की हिंसा ने एक बार फिर आदिवासी और बंगाली समुदायों के बीच की दरार को उजागर कर दिया है.

त्रिपुरा के ढ़लाई ज़िले के गंडातिसा में परमेश्वर रियांग नाम के एक लड़के की 7 जुलाई की शाम को एक स्थानीय मेले में कुछ लड़कों ने उसकी बेरहमी से पिटाई कर दी.

इस लड़के के परिवार ने बताया कि मेले में कुछ लोग एक ऐसे लड़के को पीट रहे थे जो मानसिक रुप से स्वस्थ नहीं है. परमेश्वर रियांग ने उसने इन लड़कों को रोकने की कोशिश की थी.

इससे नाराज़ उन लड़कों ने परमेश्वर रियांग की बेरहमी से इतनी पिटाई कर दी कि उसे अस्पताल ले जाना पड़ा.

परमेश्वर रियांग का स्थानीय अस्पताल में रात को इलाज चलता रहा, लेकिन उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था. इसलिए सुबह उसको ज़िला अस्पताल में रेफ़र कर दिया गया. लेकिन उसकी हालत बिगड़ रही थी.

अंतत: उसे राजधानी अगरतला के जीपी पंत अस्पताल भेज दिया गया. इस दौरान परमेश्वर रियांग की मां और भाई उसके साथ था. लेकिन उनकी प्रार्थना और डॉक्टरों की कोशिश बेअसर रहीं और परमेश्वर रियांग ने 11 जुलाई को दुनिया से विदा हो गया.

परमेश्वर का परिवार जिस घर में अभी रह रहा है वह उनका पुराना गांव का घर है. इस घर को छोड़ कर यह परिवार काफ़ी पहले गंडातिसा शहर में बस गया था.

लेकिन जब परमेश्वर रियांग की मौत की ख़बर फैली तो इलाके में तनाव पैदा हो गया. इलाके में 300 से ज़्यादा घरों को आग के हवाले कर दिया गया. कई परिवारों को अपनी जान बचाने के लिए घर छोड़ कर भागना पड़ा. 

गंडाछेरा में लोग पुलिस प्रशासन और सरकार से नाराज थे. सत्ताधारी दल के नेताओं को लोग इलाके में देखना नहीं चाहते थे. अलबत्ता जनजातीय नेता और त्रिपुरा राज परिवार के उत्तराधिकारी प्रद्योत किशोर माणिक्य परमेश्वर रियांग के परिवार से मिलने पहुंचे.

उन्होंने परिवार और लोगों को आश्वासन दिया कि परमेश्वर रियांग की हत्या में शामिल लोगों को सज़ा दिलाई जाएगी.

पुलिस और ज़िला प्रशासन को स्थिति को समान्य बनाने में काफ़ी समय लगा….परमेश्वर रियांग के परिवार से मिलने के बाद हम लोग गंडातिसा का हाल देखने निकले.

कई जगहों पर जला दिये गए या तोड़ दिए गए घर दिखाई दिये. लेकिन शहर पहली नज़र में सामान्य ही नज़र आ रहा था. लोग अपने रोज़मर्रा के काम में लगे हुए नज़र आ रहे थे. पर लोगों के मन में आशंका और डर मिटा नहीं है. 

यहां आगजनी और हिंसा की घटना ने लोगों की रोज़ी रोटी को प्रभावित किया है. इस मामले में जनजाती और बंगाली दोनों ही समुदायों के लोग प्रभावित हुए हैं. अब जब स्थिति सामान्य हो रही है तो लोग काम धंधे पर लौट रहे हैं. लेकिन अभी भी किसी दुर्घटना या हिंसा का डर मन से निकला नहीं है. 

त्रिपुरा के विपक्षी दलों की शिकायत है कि स्थानीय प्रशासन और पुलिस ने स्थिति को सही समय पर नहीं संभाला और हिंसा होने दी गई.

इसके साथ ही विपक्ष का यह भी कहना है कि परमेश्वर रियांग को पहले ही दिन अगरतला भेज दिया गया होता तो शायद उसे बचाया जा सकता था.

इसके अलावा विपक्षी दलों का यह भी कहना है कि सरकार के आदेश पर स्थानीय प्रशासन ने उन्हें हिंसाग्रस्त इलाकों में लोगों का हालचाल जानने के लिए भी नहीं जाने दिया गया. 

अंतत: 1 अगस्त को त्रिपुरा विधान सभा में नेता विपक्ष और सीपीआई (एम) के राज्य सचिव जितेंद्र चौधरी को घटना स्थल पर जाने दिया गया.

उन्होंने यहां पर प्रभावित परिवारों से मुलाकात की. उन्होंने पूरी स्थिति पर अफ़सोस जताते हुए राज्य सरकार से जवाब मांगा है. उन्होंने कहा कि एक जनजातीय युवक को पीट पीट कर मार डालने की घटना के बाद आगजनी और लूट की घटनाओं को पुलिस तमाशबीन बन कर देखती रही. पुलिस और प्रशासन ने ज़रूरी कदम नहीं उठाए और स्थिति को बिगड़ने दिया गया.

कांग्रेस पार्टी के एक प्रतिनिधि दल ने भी उन इलाकों का दौरा किया जहां पर हिंसा हुई थी. इसके साथ ही इन नेताओं ने प्रभावित परिवारों से मुलाक़ात की है.

त्रिपुरा में हुई एक जनजातीय युवक की हत्या और उसके बाद आगजनी और हिंसा की घटनाओं पर सीपीआई (एम) या फिर कांग्रेस दोनों का ही कहना है कि इन घटनाओं को दो समुदायों के बीच नफ़रत के तौर पर पेश करने से बचना चाहिए. बल्कि इस मामले में राज्य सरकार की जवाबदेही तय की जानी चाहिए.

त्रिपुरा में विपक्षी दलों ने जहां हाल की हिंसा को जनजातीय समुदाय बनाम बंगाली समुदाय बनाने से बचने की सलाह दी है. वहीं सरकार में शामिल टिपरा मोथा का कहना है कि जनजातीय इलाकों में घुसपैठ एक बड़ी चुनौती है.

पार्टी का कहना है कि परमेश्वर रियांग की हत्या एक तात्कालिक कारण था जिससे हिंसा फैल गई. लेकिन यहां बांग्लादेशी घुसपैठ की वजह से अक्सर तनाव पैदा हो जाता है.

एक जनजातीय युवक की हत्या एक बेहद मामूली वजह से कर दी गई. इसे कुछ सिरफिरे लोगों की करतूत कहा जा सकता है. इसके साथ ही आदिवासी युवक की हत्या के बाद जो आगजनी हुई, उसे भी कुछ शरारती तत्वों की कारस्तानी क़रार दिया जा सकता है.

लेकिन पुलिस- प्रशासन और ख़ासतौर से राज्य की सरकार यानि राजनीतिक नेतृत्व को यह नहीं भूलना चाहिए कि त्रिपुरा ने जातीय हिंसा का एक लंबा दौर देखा है.

1980 -2001 यानि लगभग दो दशक तक चली जातीय हिंसा के बाद राज्य में स्थिति शांति लौटी… इस शांति को दांव पर नहीं लगाया जा सकता है.

इस मामले में मुख्यमंत्री को अपने राजनीतिक फ़ायदे या नुकसान को भूल कर…प्रभावित लोगों से मिलना चाहिए था.

लेकिन यह बेहद अफ़सोस की बात है कि परमेश्वर रियांग के परिवार और हिंसा में तबाह हुए घरों के सदस्यों से मिलने जो सबसे देर में पहुंचे वे मुख्यमंत्री माणिक साहा थे. 

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