मध्य प्रदेश में अगरिया जनजाति की कुल जनसंख्या लगभग 50,000 से 60,000 के बीच मानी जाती है. अगरिया जनजाति की कुल जनसंख्या के आंकड़े समय-समय पर बदलते रहते हैं.
यह जनजाति मुख्यतः मध्य प्रदेश के शहडोल, डिंडोरी, मंडला, और बालाघाट जिलों में बसी हुई है.
अगरिया जनजाति महिलाएँ सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. लेकिन इस आदिवासी समाज में परिवार का मुखिया पुरूष ही माना जाता है.
यह जनजाति छोटे-छोटे गाँवों में समूहों में रहती है. अगरिया आदिवासी समाज में पारंपरिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को महत्व दिया जाता है. इस समाज में आपसी सहयोग और सहनशीलता के मूल्यों को उच्च सम्मान दिया जाता है.
अगरिया जनजाति में जीविका का परंपरागत साधन लोहे का काम रहा है. इन आदिवासियों को लौह अयस्क से लोहा निकालने में माहिर माना जाता है.
इस समुदाय के लोग लोहे के औजारों का निर्माण करते हैं और उन्हें स्थानीय बाजारों में बेचते हैं. लेकिन वक़्त के साथ औद्योगिकरण बढ़ा तो इनकी पारंपरिक धातुकर्म कला अब धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है.
आज के समय में अगरिया जनजाति के लोग कृषि और छोटे पैमाने पर पशुपालन करते हैं. लेकिन इनकी खेती में पारंपरिक उपकरणों का ही उपयोग होता है. इनकी खेती पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर है.
अगरिया जनजाति की साक्षरता दर भारत की सामान्य साक्षरता दर से बहुत कम है. 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत के आदिवासी समुदायों में साक्षरता दर लगभग 59% थी.
लेकिन अगरिया जनजाति जैसी आदिम जनजातियों में यह दर 30% से भी कम हो सकती है.
महिलाओं में साक्षरता दर और भी कम है. आदिवासी महिलाओं की शिक्षा की स्थिति अक्सर पुरुषों की तुलना में अधिक गंभीर होती है, और इसमें सुधार की आवश्यकता होती है.
अफ़सोस की बात ये है कि अगरिया जनजाति की मध्य प्रदेश में सही सही जनसंख्या कितनी है यह किसी को नहीं पता है. इसलिए इस जनजाति में जनसंख्या में गिरावट या फिर शिक्षा और स्वास्थ्य के बारे में कोई ठोस बात कहना बेहद कठिन है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार ने देश की आदिम जनजातियों (PVTG) के विकास का लक्ष्य रखते हुए 24000 करोड़ रूपये ख़र्च करने का ऐलान किया था.
लेकिन अगरिया की ही तरह कई अन्य पीवीटीजी समुदाय ऐसे हैं जिनकी सही सही जनसंख्या के बारे में सरकार के पास आंकड़े मौजूद नहीं है.
इन हालातों में वे आदिवासी ज़्यादा ख़तरे में नज़र आते हैं जिनकी जनसंख्या में गिरावट बताई जाती है. इसलिए ज़रूरी ये है कि जनगणना के काम को और ना टाला जाए.
इसके साथ ही शायद यह भी ज़रूरी है कि देश में जनजातीय समुदायों के लिए जनगणना कॉलम जोड़ा जाए. जिससे आदिवासी समुदायों के विकास के लिए ज़रूरी आंकड़े हासिल हो सकें.
संसद के मानसून सत्र में जनगणना (Census) को जल्दी से जल्दी कराने की ज़रूरत पर विपक्षी दलों ने मांग रखी है. यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी ने कहा है कि जनगणना ना होने की वजह से करीब 12 करोड़ लोग खाद्य सुरक्षा क़ानून के दायरे से बाहर हैं.
जनगणना के साथ ही जातिगत जनगणना पर भी संसद मे काफ़ी बहस हुई है. इस बहस के दौरान कई आदिवासी सांसदों ने यह मांग भी उठाई कि जनगणना में आदिवासियों की अलग से गिनती होनी चाहिए.
इसके लिए जनगणना पत्र में अलग से कॉलम बनाया जाना चाहिए. अगरिया जनजाति के स्थिति को देखते हुए ऐसा लगता है कि देश में वंचितों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए शायद यह एक ज़रूरी मांग है.