HomeIdentity & Lifeआज़ादी के 75 साल: 'हो' आदिवासियों का आज़ादी की लड़ाई में बलिदान

आज़ादी के 75 साल: ‘हो’ आदिवासियों का आज़ादी की लड़ाई में बलिदान

भारत की आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर देश भर में आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. हाल ही में मैं भी भारत की टीम को झारखंड के कोल्हान के कुछ इलाकों में जाने का अवसर मिला. इस दौरान हमें वहां कई ऐसे स्थान देखने का मौका भी मिला जो आदिवासियों के बलिदान और संघर्ष के प्रतीक हैं. यह लेख वहां पर कुछ लोगों से हुई बातचीत पर आधारित है.

आदिवासी हो समुदाय के लोग झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में रहते हैं. इस समुदाय के लोगों की कुल जनसंख्या करीब 10 लाख बताई जाती है. झारखंड के पश्चिम सिंहभूम, सरायकेला-खरसवां और पूर्वी सिंहभूम, ओडिशा के मयूरभंज और कयोंझर के अलावा पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर ज़िलों में मुख्य रूप से इस समुदाय के लोग रहते आए हैं.

हो आदिवासी जनजाति आस्ट्रो एशियाटिक भाषा परिवार की ‘हो’ भाषा बोलते हैं. आदिवासी हो समुदाय का इतिहास सदा से गरिमामयी और वीरोचित घटनाएं उलगुलान की यादों को ताज़ा करती हैं. आज के झारखंड में सिंहभूम में कई महत्वपूर्ण आदिवासी विद्रोग इस बात का प्रबल प्रमाण हैं कि हो आदिवासी अपने अस्तित्व और अधिकार के लिए बलिदान देते रहे हैं. 

हो आदिवासियों ने सम्राज्वादी शोषण के खिलाफ़ हथियारबंद संघर्ष किया था. इन आदिवासियों ने स्थानीय राजाओं और अंग्रेजों दोनों से ही लोहा लिया. यही कारण है कि कोल्हान क्षेत्र लंबे समय तक किसी राजा या सत्ता के आधीन नहीं रहा.

शायद यही कारण था कि अंग्रेज़ों ने हो आदिवासियों को ‘लड़ाका कोल’ (Kol Fighters) नाम दिया. अब धीरे धीरे ही सही इतिहासकार कोल्हान क्षेत्र और हो आदिवासियों के संघर्ष और आज़ादी की लड़ाई में उनके भी योगदान को लिख रहे हैं. 

बी विरोत्तम लिखित पुस्तक ‘झारखंड: इतिहास एवं संस्कृति’, डॉ अशोक कुमार सेन की किताब ‘विस्मृति आदिवासी इतिहास की खोज के कुछ आयाम’ जैसी किताबों का उदाहरण इस संदर्भ में लिया जा सकता है. इनके अलावा भी इतिहास की कई किताबों में यह तथ्य मिलते हैं कि हो आदिवासियों में जंगल, जल और ज़मीन की रक्षा के लिए प्रतिरोध की संस्कृति कितनी पुरानी और मुखर रही है.

1888 में एक अंग्रेज सैन्य अधिकारी मेजर रफसेज एक विवरण में लिखते हैं कि उस वर्ष से 50 साल पहले तक कहीं यह प्रमाण नहीं मिलता है कि कोल किसी जमींदार के नियंत्रण में रहे थे. 

वैसे तो ‘हो’ जनजाति का इतिहास वीरता और विद्रोह का इतिहास रहा है. लेकिन इतिहास की दृष्टि से ‘हो आदिवासी विद्रोह’ की तीन घटनाओं को सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण माना जा सकता है.

हो विद्रोह 1820-21

अपनी कमज़ोर होती हुई स्थिति को देखते हुए सिंहभूम के राजाओं ने अंगरेजों से राजनीतिक सहायता मांगी. इन राजाओं की स्थिति कमज़ोर हो रही थी, क्योंकि हो आदिवासी इन राजाओं के लिए सिरदर्द बन रहे थे. 

ऐसा बताया जाता है कि उस समय मेजर रफसेज ने लेफ्टिनेंट रडेल नाम के अपने मातहत अफ़सर को यह आदेश दिया कि वह पोड़ाहाट जा कर ज़मीनी हालात पता करे. लेकिन रडेल इस इलाके में दाखिल होने से डरता रहा. 

साल 1820 में मेजर रफसेज एक सेना के साथ खुद ही कोल आदिवासियों से भिड़ने के लिए निकल पड़ा. ऐसा बताया जाता है कि मेजर रफसेज को रोड़ो नदी तक पहुंचने में कोई ख़ास विरोध नहीं झेलना पड़ा. लेकिन जब वह नदी के करीब पहुंच गया तो यहां कोल आदिवासियों के साथ उसका भयंकर युद्ध हुआ.

इस युद्ध में बड़ी तादाद में हो लड़ाके मारे गए थे. आख़िरकार अंग्रेज़ सैन्य अफ़सर रफसेज को यह समझ आ गया कि वह हो आदिवासियों को आसानी से पराजित नही कर सकता है. यह बताया जाता है कि यह अफ़सर लौट रहा था तो भी रास्ते में उसे कई जगह पर आदिवासी लड़ाकों का सामना करना पड़ा.

जब अंग्रेज़ लौट गए तो हो आदिवासी लड़ाकों ने फिर से स्थानीय राजाओं को लगान देने से मना कर दिया. इसके बाद 1821 में एक बार फिर अंग्रेज़ों की फौज़ कोल्हान में चढ़ाई करने पहुंची. कर्नल रिचर्ड नाम के एक सैन्य अधिकार के नेतृत्व में आई यह फौज़ कई गुना बड़ी और आधुनिक हथियारों से लैस थी. 

लेकिन इसके बावजूद हो आदिवासी एक महीने से ज़्यादा समय तक इस फौज से लड़ते रहे थे. लेकिन इस बार आदिवासी नहीं जीत पाए. उन्हें अंग्रेजों को वचन देना पड़ा कि वे अब और विद्रोह नहीं करेंगे. 

इस घटना को हो आदिवासियों के इलाके कोल्हान में निर्णायक घटना के तौर पर देखा गया. क्योंकि इस लड़ाई में हारने के बाद इस इलाके में सभी जातियों के लोगों को बसने का अधिकार दिया गया. इसके अलावा ओड़िया और हिन्दी भाषा को पढ़ाए जाने को प्रत्साहित किया जाने लगा. 

हांलाकि इस सबके बाद भी कोल्हान क्षेत्र में कई विद्रोह होते रहे. 1831-32 से लेकर 1836-37 की बीच कई विद्रोहों में आदिवासियों की भूमिका मिलती है. 

सेरेंगसिया घाटी की भंयकर लड़ाई (1837)

सन 1836 के आस-पास के समय तक दक्षिण कोल्हान के हो लोगो ने अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार नहीं की थी. राजाबासा क्षेत्र के वीर पोटो सरदार के नेतृत्व में बलन्डिया के नारा, बोरा, पंडुआ और देवी ने अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ाई का ऐलान कर दिया. 

उनकी योजना अंग्रेजों को सबक सिखाना था. वे चाहते थे कि ग़ैर आदिवासियों को उस इलाके से बाहर कर दिया जाए. 18 नवंबर 1837 को सेरेंगसिया घाटी में अंग्रेजों पर आदिवासियों ने गुरिल्ला शैली में हमला किया था. इस हमले में अंग्रेज़ी सेना का एक सूबेदार, एक हवलदार और 13 सिपाही बुरी तरह से घायल हो गए. 

इसके बाद 8 दिसंबर को आदिवसी विद्रोह का नेतृत्व करने वाले पोटो, देवी, बोरा, बुड़ाई, नारा, पंडुआ और मुंगनी जैसे कई प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था. कैप्टन विल्किंसन 8 दिसंबर को पश्चिमी सिंहभूम के जगन्नाथपुर पहुंचे. 

1 जनवरी 1838 को पोटो, बुड़ाई और नारा को जगन्नाथपुर में फांसी दे दी गई. नायक बोरा और पंडुवा को 2 जनवरी 1838 को फांसी पर लटका दिया गया. यह बताया जाता है कि करीब 79  आदिवासियों को अलग अलग आरोपों में जेल की लंबी सज़ाएं दी गई. 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में हो आदिवासियों की भूमिका

अंग्रेजों के उपनिवेशवाद के खिलाफ़ जब 1857 के विद्रोह की ख़बर रांची, हज़ारीबाग होती हुई चाईबासा पहुंची तो यहां पर भी सैनिकों ने विद्रोह कर दिया. ऐसा बताया जाता है कि यहां पर रामगढ़ बटालियन के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया और सरकारी खज़ाना लूट लिया. इस समय पोड़हाट के राजा अर्जुन सिंह ने शुरूआती झिझक के बाद इस विद्रोह में खुल का हिस्सा लिया. 

राजा अर्जुन सिंह अगर 1857 के विद्रोह में हिस्सा ले पाए तो वह सिर्फ़ हो आदिवासियों के समर्थन से ही संभव हुआ था. जब 1857 के विद्रोह की बात आती है तो आदिवासी के नायक गोनो पिंगुवा पाटा  के नाम का ज़िक्र बार-बार मिलता है.  

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