HomeIdentity & Lifeमरका पंडुम: बस्तर में आम का ख़ास आदिवासी त्योहार

मरका पंडुम: बस्तर में आम का ख़ास आदिवासी त्योहार

प्रकृति का उत्सव मनाने के लिए आदिवासी अलग-अलग पर्व मनाते हैं, उसी में से एक पर्व है ‘मरका पंडुम’... इस पर्व में हजारों आदिवासी एक जगह पर इकट्ठा होकर उत्सव मनाते हैं.

जैसे ही गर्मियों की शुरुआत में बस्तर के जंगलों में पक रहे आमों की खुशबू आने लगती है, वैसे ही छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में कुछ अलग ही माहौल होता है. शहरी त्योहारों के तामझाम से अलग उत्तरी बस्तर के कांकेर जिले के हरे-भरे इलाकों में हर साल एक खास त्योहार मनाया जाता है, मरका पंडुम (Marka Pandum).

मरका पंडुम मौसम के पहले फलों के लिए एक स्तुति है और प्रकृति पूजा और पारिस्थितिक संतुलन पर आधारित आदिवासी दर्शन का एक जोरदार अभ्यास है.

धरती से उपजा एक त्यौहार

मरका पंडुम, जिसका गोंडी भाषा में शाब्दिक अर्थ है “आम का त्यौहार”…बस्तर के आदिवासी समुदायों द्वारा हर साल मनाया जाने वाला एक पवित्र और उत्सवी अवसर है.

‘मरका’ का मतलब है आम, और ‘पंडुम’ का मतलब है त्यौहार. लेकिन यह फल के बारे में नहीं है. यह एक ब्रह्मांड विज्ञान के बारे में है जहां हर फसल, जंगल की हर उपज, सबसे पहले उन उच्च शक्तियों को अर्पित की जाती है जिन्हें ब्रह्मांड को नियंत्रित करने वाला माना जाता है.

मौसम के पहले आम को मुंह में डालने से पहले ही आदिवासी परिवार अपने पूर्वजों की आत्माओं को फल समर्पित करने के लिए इकट्ठा होते हैं. यह अनुष्ठान कृतज्ञता व्यक्त करने के साथ-साथ अनुमति मांगने का भी एक तरीका है.

ये लोग कभी भी उन शक्तियों के प्रति सम्मान के बिना कुछ नहीं खाते हैं जिन्होंने बारिश, धरती, पेड़ और भूमि की आत्माओं की संभावना को जन्म दिया है.

इस परंपरा में गहरी पारिस्थितिकीय बुद्धिमत्ता भी निहित है. सिर्फ पूरी तरह पके हुए फलों का सेवन करके और कच्चे फलों को अछूता छोड़कर, आदिवासी समुदाय यह सुनिश्चित करते हैं कि बीजों को परिपक्व होने और अंकुरित होने का मौका मिले, जिससे नए पौधे और पेड़ पैदा हों.

ऐसा करके वे हर साल अपने जंगलों की रक्षा करते हैं और उन्हें पुनर्जीवित करते हैं.

पीढ़ियों से चली आ रही यह स्थायी प्रथा युवाओं को न सिर्फ प्रकृति के प्रति श्रद्धा सिखाती है, बल्कि इसके साथ सामंजस्य बिठाकर जीना भी सिखाती है.

इस तरह मरका पंडुम एक उत्सव से कहीं बढ़कर बन जाता है. यह पर्यावरण संरक्षण का एक ऐसा पाठ बन जाता है जिसे गर्व के साथ आगे बढ़ाया जाता है.

पवित्र समागम

उत्सव की शुरुआत जिले के गोंडवाना भवन से होती है, जहां आस-पास के गांवों के आदिवासी समुदाय अपने चमकीले कपड़ों में इकट्ठा होते हैं.

पारंपरिक संगीत और मंत्रोच्चार के साथ एक औपचारिक जुलूस शहर की मुख्य सड़कों से होकर गुजरता है. जो आखिर में पवित्र स्थल पर पहुंचता है जहां समुदाय प्रार्थना करने और प्रसाद चढ़ाने के लिए एकत्रित होता है.

यह बैठक महज एक उत्सव का अवसर नहीं है, यह पहचान और पर्यावरण दर्शन की घोषणा है.

यहां आदिवासी मूल्यों – सादगी, स्थिरता और आध्यात्मिकता को सम्मानित किया जाता है. वहीं आम महज फल नहीं हैं; वे मानव और ईश्वर के बीच, गुजर चुकी पीढ़ियों और आने वाली पीढ़ियों के बीच प्रतीकात्मक पुल हैं.

मरका गीत

मरका पंडुम के सबसे नाटकीय पहलुओं में से एक एक क्लासिक गोंडी गीत है जिसे अनुष्ठानों के दौरान गाया जाता है.

जिसके बोल कुछ इस तरह हैं… “मरका पंडुम को को को, रेका पुदुम को को को, गोर्रा पुदुम को को को को.”

इस गोंडी गीत का अर्थ होता है. आज से जब भी हम आम खाये पक्के वाला को ही तोड़कर खाएं कच्चे आम को खराब ना करें ताकि बारिश के आते ही नये आम का पौधा जग कर पेड़ बने और आने वाली नई पीढ़ी पेंड पौधों को संरक्षित कर प्रकृति की संतुलन को बनाये रखने में हम अपना योगदान दे.

इस गीत में एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिक संदेश है. यह लोगों को केवल पके हुए आमों को चुनने और कच्चे आमों को पेड़ पर ही रहने देने के लिए प्रोत्साहित करता है, ताकि बारिश आने पर वे नए पौधे बन सकें.

यह छोटा सा गीत पारिस्थितिक संतुलन, वन नवीनीकरण और प्राकृतिक संसाधनों की सतत कटाई के बारे में बहुत गहरी जागरूकता दिखाता है.

प्रकृति देवता है

इन लोगों के लिए प्रकृति एक विचार नहीं, बल्कि जीवन है. इनके लिए पेड़, फल, नदियां और जंगल सिर्फ़ व्यापार की वस्तुएं नहीं हैं, बल्कि मित्र और जीविका हैं. हर पौधा एक काम करता है, हर फल एक कहानी है और मरका पंडुम ऐसे कई त्योहारों में से एक है जहां जंगल के फलों का जश्न मनाया जाता है और उनका सम्मान किया जाता है.

यह त्योहार एक पारिस्थितिकी शिक्षा है जो पीढ़ियों पुरानी है. यह त्योहार समुदाय और बाकी दुनिया को याद दिलाता है कि प्रकृति का संरक्षण मानव जाति के अस्तित्व के लिए कितना अहम है.

आम का सम्मान करके, लोग पेड़ों और वन प्रणाली के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं जो उन्हें पोषण देती है.

वैसे ये अनुष्ठान आध्यात्मिक लग सकते हैं लेकिन वास्तव में ये वैज्ञानिक हैं. आम तभी खाए जाते हैं जब वे पूरी तरह से पके हों. कितना खाया जाए, यह तय किया जाता है. सब कुछ संरक्षित, पुनर्जीवित और सामंजस्य में रखा जाता है.

ज्ञान के हस्तांतरण की यह परंपरा समय से आगे की एक प्रणाली को संरक्षित करती है, जो जैव विविधता के साथ सामंजस्य रखती है और पर्यावरण नीति के बिना भी स्थायित्व प्रदान करती है.

मरका पंडुम के कई रंग

मरका पंडुम को शुरू में जिला स्तर पर मनाया जाता है और फिर ब्लॉक स्तर के कार्यक्रमों में आगे बढ़ता है, जो आखिर में सभी गांवों तक पहुंचता है.

प्रत्येक समुदाय अपने स्थानीय पवित्र उपवन या देवगुड़ी के आसपास उत्सव का अपना रूप आयोजित करता है. यह उत्सव एक जीवंत परंपरा है न कि केवल कैलेंडर में आने वाला त्योहार.

कोई मुख्य आयोजक नहीं है, कोई बाहरी फंड नहीं है, कोई ग्लैमर नहीं है. सभी भोजन और संगीत और अनुष्ठान और सजावट समुदाय के भीतर से आते हैं. यह साझापान त्योहार को वास्तविक शक्ति प्रदान करता है.

एक जीवंत विरासत

मरका पंडुम का सार यह है कि मानव अस्तित्व को प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर चलना चाहिए. हालांकि, आदिवासी समुदाय के लिए यह कोई नई अवधारणा नहीं है; यह कुछ ऐसा है जिसे वे सदियों से अपनाते आ रहे हैं.

तेजी से बढ़ते शहरीकरण और पारिस्थितिकी विनाश के दौर में मरका पंडुम यह याद दिलाता है कि कैसे मूल निवासियों का ज्ञान समकालीन स्थिरता प्रथाओं को सूचित कर सकता है.

दुनिया शिखर सम्मेलनों में जलवायु परिवर्तन पर चर्चा कर रही है. जबकि जंगल के ये निवासी दिन भर गीत, अनुष्ठान और आम के प्रति श्रद्धा के माध्यम से जलवायु चेतना को जीते हैं.

भविष्य का उत्सव

मरका पंडुम केवल आदिवासी आम का उत्सव नहीं है. यह सम्मान का भाव है, मौसमी परिवर्तन का घर है और सांस्कृतिक रूप में पारिस्थितिक चेतना है.

बस्तर की लाल धरती में साल के पत्तों की सरसराहट और शुरुआती मीठे आमों का स्वाद लेते बच्चों की ठहाकों के बीच, एक शाश्वत सत्य छिपा है. और वो यह है कि जब हम प्रकृति के चक्रों के साथ सह-अस्तित्व में रहते हैं तो जीवन न केवल टिकाऊ होता है बल्कि पवित्र भी होता है.

जब आदिवासी ढोल की गूंज जंगलों में विलीन हो जाती है, तो वे न केवल उत्सव की याद बल्कि एक ऐसी संस्कृति की छाप भी साथ ले जाते हैं जो अभी भी धरती का ध्यान रखती है और हर फसल के साथ उसका सम्मान करती है.

इस काम में गर्मजोशी और बुद्धिमत्ता है. यह बच्चों को यह सिखाने का एक तरीका है कि किसी भी चीज़ को हल्के में नहीं लेना चाहिए. कि प्रकृति देती है लेकिन तभी जब हम बदले में उसका ख्याल रखें. कि हमें केवल वही खाना चाहिए जो पका हुआ हो और बाकी को उगने के लिए छोड़ दें. कि जब हम प्रकृति के साथ रहते हैं, उसके खिलाफ नहीं तो जीवन संतुलित रहता है.

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