HomeIdentity & Lifeकैसे आदिवासी खेल ‘खोडांग’ इतिहास में लुप्त हो गया

कैसे आदिवासी खेल ‘खोडांग’ इतिहास में लुप्त हो गया

आदिवासियों ने इस खेल को खोडांग कहा, जिसका गोंडी भाषा में अर्थ कर्कश होता है. उन्होंने बांस की छड़ियों को इस तरह से बनाया कि बच्चे बांस से जुड़ी छड़ी के सहारे खड़े हो सकें.

आदिवासियों का पारंपरिक खेल ‘खोडांग’ (Khodang) जिसे तेलुगु में कोय्या गुरलु कहते हैं धीरे-धीरे लोगों की यादों से गायब हो रहा है, क्योंकि अंदरूनी गांवों में पक्की सड़कें बन गई हैं.

पहले लोग बरसात के मौसम में मौसमी बीमारियों से बचने के लिए कीचड़ और रुके हुए पानी को पार करने के लिए गांवों में ‘कोय्या गुरलु’ यानि बांस से बने खंभों पर चलते थे.

हालांकि, नारनूर मंडल के खैरदतवा, गडीगुडा मंडल के लोकारी, उटनूर मंडल के मट्टाडीगुडा और इंद्रवेली मंडल के गंगापुर सहित कुछ इलाकों के आदिवासी गांवों में अभी भी बच्चे ‘खोडांग’ खेलते देखे जाते हैं.

बांस के इन खंभों को उनके घरों के बाहर रखा जाता है और सावन के महीने के दौरान उन्हें अंदर जाने की अनुमति नहीं होती है.

आदिवासियों ने इस खेल को खोडांग कहा, जिसका गोंडी भाषा में अर्थ कर्कश होता है. उन्होंने बांस की छड़ियों को इस तरह से बनाया कि बच्चे बांस से जुड़ी छड़ी के सहारे खड़े हो सकें. आदिवासी बच्चे उन पर संतुलन बनाते हुए चलते हैं.

यह परंपरा आदिवासियों के प्रकृति और जंगल से जुड़ाव का भी प्रतिबिंब है. आदिवासी अपना पारंपरिक खोडांग खेल श्रावण मास के दौरान चुक्कला अमावस्या से शुरू करते हैं और पोलाला अमावस्या पर समाप्त करते हैं.

चुक्कला अमावस्या पर बांस के पेड़ पर विशेष पूजा करने के बाद आदिवासी बांस इकट्ठा करते हैं और खेल खेलने के लिए स्टिल्ट बनाते हैं और स्टिल्ट के साथ चलते हैं.

बीस साल पहले, किशोरों और बच्चों को अपने गांवों में बांस से बने स्टिल्ट के साथ चलते, उनके साथ खेलते और अपने गांवों में कीचड़ पार करते देखा जाता था.

लेकिन अब बच्चों और युवाओं को बांस के स्टिल्ट के साथ खेलते हुए शायद ही कभी देखा जा सकता है और यह परंपरा अब आदिवासी क्षेत्रों के कुछ इलाकों तक ही सीमित है.

गांवों में इन स्टिल्ट को ‘मरुगोलु’ के नाम से जाना जाता है.

आदिलाबाद के आदिवासी शिक्षक तोडासम कैलाश ने कहा कि गांवों में पक्की सड़कें बनने और वनों की कटाई के कारण बांस के पेड़ों की अनुपलब्धता सहित कई कारणों से ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में खोडांग खेल धीरे-धीरे आदिवासियों के जीवन से गायब हो रहा है. उन्होंने कहा कि कई छात्र और बुजुर्ग भी इस खेल में रुचि नहीं दिखा रहे हैं.

उन्होंने कहा कि खोडांग खेल वायरस के संक्रमण को रोककर मौसमी बीमारियों के प्रसार को कुछ हद तक रोकता है.

कैलाश ने कहा कि हालांकि अभी भी गंगापुर के छात्र बरसात के मौसम में सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए इंद्रवेली मंडल के गौरापुरम गांव में आते समय कीचड़ में चलने से बचने के लिए बांस के खंभों पर चलते हैं.

(Image credit: Deccan Chronicle)

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