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मौत पर किसी का बस नहीं, पर इस कलाकार की जान और संगीत बच सकते थे

उन्हें बुख़ार आया था और फिर दो-तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई. बुख़ार से मौत हो गई, इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर पता चला कि उनका परिवार उन्हें अस्पताल नहीं ले गया. यह ज़्यादा अफ़सोसनाक था, वक़्त पर इलाज मिलता तो उनकी जान बच सकती थी. आदिवासी इलाक़ों में इलाज की व्यवस्था के साथ साथ इलाज के प्रति जागरूकता पैदा करनी भी उतनी ही ज़रूरत है. 

जून के महीने में संगीत नाटक अकादमी ने भारती की आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने के सिलसिले में आदिवासी संगीत उत्सव का आयोजन किया था. इस आयोजन की ख़ास बात यह थी कि इसमें देश भर के आदिवासी इलाक़ों के वाद्य यंत्रों को बजाने वाले कलाकारों को बुलाया गया था.

केरल से इस उत्सव में शामिल होने के लिए 4 लोगों का एक दल आया था. ये चारों ही कलाकार काफ़ी खुश थे. ऐसा नहीं था कि इससे पहले उन्होंने कोई शहर नहीं देखा था. लेकिन यह पहली बार हुआ था कि उन्होंने हवाई यात्रा की थी.

ये कलाकार जो वाद्य यंत्र लेकर दिल्ली आए थे उनमें तविल या फिर दविल , पोरा या पोरई  और कोगल लेकर आए थे. ये सभी वाद्य यंत्र इरूला आदिवासियों की परंपरा का हिस्सा हैं. लेकिन कोगल एक ऐसा वाद्य यंत्र है जिसके बिना इन आदिवासियों का जन्म से लेकर मृत्यु तक कोई भी उत्सव या संस्कार पूरा नहीं होता है.

केरल से आए इरूला आदिवासियों के इस दल में शामिल कलाकार काडन इस वाद्ययंत्र कोगल  को बजाने में माहिर थे. इस वाद्ययंत्र को बजाने के लिए साँस के चक्र को साधना पड़ता है. यानि आप इस वाद्ययंत्र को लगातार बजाते हैं और इसी दौरान साँस भी लेते हैं.

MBB की टीम से जब केरल से आए इन आदिवासी कलाकारों से मुलाक़ात हुई तो वो काफ़ी खुश थे. हालाँकि इस दल में शामिल सभी लोग काफ़ी कम बातें कर रहे थे. शायद भाषा एक मसला था. लेकिन काडन कुछ ज़्यादा ही ख़ामोश थे.

कोगल बजाने वाले गिनचुने लोगों में कडन एक थे

केरल की एक ग़ैर सरकारी संस्था अरपो (ARPO) चलाने वाले श्रुतिन इन कलाकारों के साथ आए थे. उनके ज़रिए इन कलाकारों से मुलाक़ात भी हुई और बातचीत भी संभव हो पाई.

जब ये लोग केरल लौट गए तो भी श्रुतिन से इन कलाकारों के अनुभव के बारे में फ़ोन पर बातचीत हुई थी. उस बातचीत में श्रुतिन ने बताया था कि वो सभी कलाकार काफ़ी खुश हैं.

ख़ासतौर पर काडन के बारे में बताते हुए श्रुतिन ने कहा था कि वो बेहद खुश थे. क्योंकि केरल के कोच्चि शहर में अपनी कला का प्रदर्शन करने के बाद उन्हें दिल्ली के राष्ट्रीय मंच पर अपने समुदाय के संगीत को प्रदर्शित करने का मौक़ा मिला था.

श्रुतिन ने बताया कि उनकी संस्था ने अर्थलोर (Earthlore) संगीत उत्सव का आयोजन कराया था. इस आयोजन में यह दल शामिल था. कडन के बारे में बात करते हुए श्रुतिन ने बताया कि कडन ने पहली बार जींस पहनी थी. 

कडन अपने समुदाय के कुछ ऐसे लोगों में शामिल थे जो कोगल बजाने में माहिर थे. क्योंकि अब इस वाद्ययंत्र को बजाने वाले लोग मुश्किल से मिलते हैं. इसलिए इस वाद्ययंत्र को भी संगीत नाटक अकादमी ने दुर्लभ वाद्ययंत्र माना था.

कडन जब दिल्ली से लौटे थे तो बेहद खुश थे. क्योंकि उनको उम्मीद थी कि अब उनके समुदाय के वाद्ययंत्र और संगीत राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना पाएगा. इस तरह के अवसर समुदाय के लड़के लड़कियों को अपने परंपरागत संगीत और वाद्ययंत्रों की तरफ़ आकर्षित करेंगे.

लेकिन अभी कुछ दिन पहले श्रुतिन का फ़ोन आया और उन्होंने काडन की मौत की सूचना दी. 52 साल के काडन की मौत की ख़बर सुन कर मैं सन्न रह गया. उसके बाद श्रुतिन से पूछा कि आख़िर हुआ क्या था?

उन्होंने बताया कि उन्हें बुख़ार आया था और फिर दो-तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई. बुख़ार से मौत हो गई, इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर पता चला कि उनका परिवार उन्हें अस्पताल नहीं ले गया. 

यह ज़्यादा अफ़सोसनाक था, वक़्त पर इलाज मिलता तो उनकी जान बच सकती थी. आदिवासी इलाक़ों में इलाज की व्यवस्था के साथ साथ इलाज के प्रति जागरूकता पैदा करनी भी उतनी ही ज़रूरत है. 

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