विश्व-भारती यूनिवर्सिटी ने देश की विलुप्त होती भाषाओं को बचाने की दिशा में कुछ ज़रूरी कदम उठाए हैं.
हाल ही में विश्व-भारती विश्वविद्यालय के लुप्तप्राय भाषा केंद्र (Center for Endangered Languages) ने कोड़ा, महाली और कुड़ुख जैसी जनजातीय भाषाओं के लिए डिक्शनरी यानि शब्दकोश तैयार किए हैं.
ये शब्दकोश बंगाली, हिंदी और अंग्रेजी समेत 10 से अधिक भाषाओं में उपलब्ध हैं. ये जनजातीय भाषाओं को संरक्षित करने के लिए एक महत्तवपूर्ण कदम है. इनकी मदद से जनजातीय भाषाओं को आसानी से समझा जा सकेगा और इनका अध्ययन भी सरलता से हो सकेगा.
डिजिटल युग में इसे और अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए इन्हें CFEL की वेबसाइट और एंड्रॉयड मोबाइल ऐप पर भी उपलब्ध करवाया गया है यानि आप कहीं भी बैठकर इसका प्रयोग कर सकते हैं.
इस केंद्र ने अब तक बिरहोर समुदाय के लिए व्याकरण और भाषाई सर्वेक्षण के लिए फील्डवर्क टूल्स/ क्षेत्रकार्य उपकरणों समेत 19 किताबें प्रकाशित की हैं. इन पुस्तकों को डिजिटल माध्यमों के ज़रिए बहुभाषावाद को बढ़ावा देने के लिए तैयार किया गया है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इन भाषाओं को सीख सकें.
ये किताबें सिर्फ भाषाओं के संरक्षण के लिए नहीं बल्कि जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए भी महत्वपूर्ण हैं.
जनजातीय भाषाओं में सिर्फ़ शब्द नहीं होते बल्कि उनके साथ उस समुदाय का इतिहास, रीति-रिवाज़ और पर्यावरण से जुड़ी उनकी समझ भी होती है.
इन किताबों का विमोचन हाल ही में ‘आदि व्याख्यान 06’ नामक राष्ट्रीय सेमिनार में किया गया.
राष्ट्रीय जनजातीय अनुसंधान संस्थान (National Tribal Research Institute) और विश्व-भारती विश्वविद्यालय ने मिलकर 12 और 13 सितंबर 2024 को इस सेमिनार का आयोजन किया था.
यह सेमिनार तकनीक के ज़रिये जनजातीय भाषाओं का संरक्षण और भारतीय बहुभाषावाद विषय पर आधारित था.
इसमें विभिन्न भाषाओं के 40 से अधिक विद्वान, जनजातीय समुदाय के प्रतिनिधि और विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया और जनजातीय भाषाओं और लुप्त होने की कगार पर खड़ी देश की अन्य भाषाओं को बचाने के बारे में चर्चा की.
राष्ट्रीय जनजातीय अनुसंधान संस्थान (NTRI) की विशेष निदेशक प्रोफेसर नुपुर तिवारी ने कार्यक्रम में अपने संबोधन में जनजातीय भाषाओं के संरक्षण के लिए चलाई गई पहल के उदाहरणों पर विस्तार से बात की.
इसके साथ ही उन्होंने बताया कि इस कार्यक्रम के माध्यम से एनटीआरआई का उद्देश्य जनजातीय भाषाओं के संरक्षण, सुरक्षा और संवर्धन पर अकादमिक चर्चा को बढ़ावा देना है क्योंकि जनजातीय समुदायों की संस्कृति, परंपराओं और विरासत के संदर्भ में भाषा का बहुत महत्व है.
विश्व-भारती विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर बिनॉय कुमार सरन ने अपने संबोधन में कहा कि जब कोई जनजातीय भाषा खत्म होती है तो उसके साथ उस समुदाय का मौखिक इतिहास, परंपराएँ और पर्यावरण से जुड़ा ज्ञान भी उसके साथ खत्म हो जाता है.
उन्होंने बताया कि भाषा का संरक्षण समुदाय की पहचान और गौरव को बनाए रखने के साथ-साथ पीढ़ियों के बीच सांस्कृतिक संबंध को भी बढ़ावा देता है.
कार्यक्रम के अंत में महाली और कुड़ुख भाषा के संरक्षण में योगदान देने वाले जनजातीय प्रतिनिधियों, प्रवात कोराज और संतोष टुडू को सम्मानित किया गया.
सभी शोधकर्ताओं को उनके योगदान के लिए प्रमाणपत्र भी दिए गए. यह प्रयास न केवल भाषाओं को बचाने के लिए है बल्कि देश की सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित और संरक्षित रखने का एक तरीका है.