आम लोगों से लेकर कानून लागू करने वालों तक सभी के लिए परेशानी का सबब माने जाने वाली खानाबदोश और विमुक्त जनजातियां (Nnomads and denotified tribes) देश के वैध नागरिक को दिए जाने वाले अधिकारों से वंचित एक अनिश्चित जीवन जी रही हैं.
सपेरे, मदारी, बंजारा, लोहार और आराधी (भक्ति गायक) जैसे खानाबदोश समुदाय (Nomadic tribes) भारत की सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा रहे हैं.
भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान ज्यादातर खानाबदोश जनजातियों को ‘जन्मजात अपराधी’ करार दिया गया था. जो लोग कभी ग्रामीण आबादी के साथ अलग-अलर तरह के सामान और सेवाएं प्रदान करके अच्छे संबंध रखते थे, वे उनकी नज़र में अपराधी बन गए.
मनोरंजन के नए तरीके, परिवहन, चिकित्सा प्रणाली और आधुनिक स्कूली शिक्षा ने हमारे देश के खानाबदोशों की आजीविका को नुकसान पहुंचाया है. हालांकि, खानाबदोशों के ‘अदृश्यीकरण’ की प्रक्रिया में ऐतिहासिक और समकालीन दोनों कारकों ने आज बहुत योगदान दिया है.
अदृश्य बनाम दृश्य
खानाबदोश आज के समय में अदृश्यता की ओर जा रहे हैं. ‘अदृश्य’ शब्द ‘छिपा हुआ’, ‘अंधेरा’, ‘उपेक्षित’, ‘अनदेखा’ और ‘हाशिए पर’ जैसे शब्दों से जुड़ा हुआ है. यह किसी भी चीज़ को देखने और उसका विश्लेषण करने का एक नजरिया है जो अदृश्य या दृश्य की श्रेणी बनाता है.
यहां सबसे जरूरी सवाल यह है कि कौन किसी चीज़ को किसके लिए दृश्यमान या अदृश्य बनाता है और कैसे? इस संदर्भ में ‘कौन’ का तात्पर्य नागरिक समाज, बौद्धिक वर्ग और नीति निर्माताओं से है. जबकि ‘कैसे’ का तात्पर्य उन लोगों या लोगों के समूहों से है जिन्हें सामाजिक, ज्ञानात्मक और नीतिगत स्तरों पर उपेक्षित या अनदेखा किया गया है.
क्योंकि बुद्धिजीवी और नीति निर्माता समाज से ही आते हैं इसलिए ये तीनों तरह की संस्थाएँ आपस में जुड़ी हुई हैं. हालांकि, आज कौन दिखाई देता है और कहाँ दिखाई देता है, यह मुख्य रूप से ऊपर बताई गई संस्थाओं द्वारा निर्धारित होता है.
परंपरागत रूप से खानाबदोश लोग नमक और अनाज का परिवहन करते थे, लोगों का मनोरंजन करते थे, किसानों को कृषि उपकरण प्रदान करते थे और हमारे देश में सम्मान और गरिमा के साथ रहते हुए बसे हुए लोगों को अनौपचारिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाएं प्रदान करते थे.
वे स्वतंत्र थे और आजीविका की तलाश में पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में स्वतंत्र रूप से घूमते थे. हालांकि, देश में औपनिवेशिक शासन की शुरुआत के बाद से खानाबदोशों के जीवन और आजीविका पर कई तरह के कारकों का असर पड़ा है.
भारत में अपराधों को नियंत्रित करने के नाम पर अंग्रेजों ने 1871 में आपराधिक जनजाति अधिनियम नामक एक क़ानून पारित किया, जिसने लगभग 200 समुदायों को जन्म से ‘अपराधी’ करार दिया.
खानाबदोशों की जीवन शैली की वजह से उन्हें जंगलों और उनके बीच से गुजरने वाले मार्गों का अच्छा स्थानिक ज्ञान था, जिससे अंग्रेजों के लिए उनकी गतिशीलता को सीमित किए बिना उन्हें नियंत्रित करना मुश्किल हो गया.
1950 की अयंगर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, लोगों के कुछ समूहों को ‘जन्मजात अपराधी’ के रूप में लेबल करने का मुख्य कारण आर्थिक था.
क्योंकि उनका जीवन और आजीविका जल, जंगल और ज़मीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित थी, इसलिए इन खानाबदोशों और विमुक्त लोगों को प्रभावित करने वाली नीतियां बनाई गई.
हालांकि, आपराधिक जनजाति अधिनियम (1871-1947) के अलावा वन अधिनियम (1865, 1878, 1927) और नमक पर कराधान (नमक अधिनियम, 1835) जैसे अन्य कानून भी खानाबदोशों के हाशिए पर जाने के लिए ज़िम्मेदार थे.
सामाजिक-आर्थिक अदृश्यता
लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का अध्ययन शिक्षा, आय, जाति और उपजाति, जनजाति, प्राथमिक परिसंपत्तियों की उपलब्धता और पहुंच सुविधाएं आदि के माध्यम से किया जा सकता है.
मनोरंजन के नए रूपों ने कलाबाजों और मनोरंजन करने वालों की आजीविका को नष्ट कर दिया है. जबकि नई चिकित्सा प्रणालियों ने पारंपरिक चिकित्सा प्रदाताओं की आजीविका को नष्ट कर दिया है और आधुनिक परिवहन प्रणालियों ने पारंपरिक सामान प्रदाताओं की आजीविका को नष्ट कर दिया है.
हालांकि, भारतीय समाज का यह वर्ग आधुनिक विकास के सभी रूपों से दूर है. उनके पास राज्य सहायता प्राप्त करने के लिए बुनियादी दस्तावेज़, पीने का पानी, शौचालय की सुविधा, बिजली, आधुनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं और वे आमतौर पर गांवों और कस्बों के बाहरी इलाकों में अस्थायी और तंबू बस्तियों में रहते पाए जाते हैं.
आज़ादी के बाद ऐतिहासिक रूप से वंचित लोगों को मुख्यधारा में लाने की प्रक्रिया के तहत, कुछ खानाबदोश और विमुक्त समुदायों को अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की संवैधानिक श्रेणियों में शामिल किया गया.
सामाजिक-आर्थिक विकास पर प्रकाश डालने के लिए शोधकर्ताओं ने घुमंतू और विमुक्त लोगों का सामाजिक-आर्थिक विवरण दिया है. जिन्हें हरियाणा राज्य द्वारा अनुसूचित जातियों के रूप में वर्गीकृत किया गया है. पूरे राज्य में एक-चौथाई से भी कम निरक्षरता दर के विपरीत, 2011 में आधे से अधिक घुमंतू और विमुक्त लोग निरक्षर थे.
हैरानी की बात यह है कि शहरी क्षेत्र में जो शिक्षा का केंद्र है, इन लोगों में निरक्षरता दर उनके समकक्षों की तुलना में अधिक है. काम में उनकी भागीदारी को देखते हुए कुल आबादी में से सिर्फ एक तिहाई ही शहरी क्षेत्रों में किसी भी तरह की आर्थिक गतिविधि में लगे हुए थे, जो दर्शाता है कि अधिकांश लोग श्रम बाजार से बाहर थे.
इसके अलावा एक तिहाई से ज़्यादा कर्मचारी समय के पैमाने पर सीमांत हैं, जो प्रति वर्ष 180 दिनों से भी कम काम करते हैं.
आखिर में बस इतना ही कि हमें अपने समाज के इस ऐतिहासिक और वर्तमान में अदृश्य हिस्से पर विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि उन्हें बुनियादी सुविधाएं और एक अच्छा जीवन मिल सके.