उत्तराखंड हाईकोर्ट ने हाल ही में एक गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर राज्य सरकार से जवाब मांगा है. कोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा है कि क्या अनुसूचित जनजाति प्रमाण पत्र (Scheduled Tribe Certificate) केवल किसी व्यक्ति के आदिवासी क्षेत्र में रहने के आधार पर जारी किए जा रहे हैं या फिर यह प्रमाण पत्र उन्हीं को दिए जा रहे हैं जो अधिसूचित जनजातियों में शामिल हैं?
यह सवाल न्यायमूर्ति राकेश थपलियाल की एकल पीठ ने उस समय उठाया जब दो याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट में याचिका दाखिल कर यह मांग की कि उन्हें एसटी प्रमाण पत्र दिए जाएं क्योंकि वे जौनसार क्षेत्र में रहते हैं.
उनका तर्क था कि जौनसार एक ऐसा इलाका है जहाँ अधिकतर लोग अनुसूचित जनजातियों से हैं इसलिए वहां रहना ही प्रमाण पत्र के लिए काफी होना चाहिए.
कोर्ट की टिप्पणी
कोर्ट ने इस दावे को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि संविधान की धारा 342 के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों की पहचान केवल राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित जातियों के आधार पर ही हो सकती है.
किसी इलाके को ‘आदिवासी क्षेत्र’ घोषित किया गया हो इसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ का हर निवासी का एसटी माना जाएगा.
1967 की अधिसूचना का हवाला
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारत सरकार द्वारा 24 जून 1967 को जारी की गई अधिसूचना में केवल पांच जनजातियों को उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) में अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दी गई थी. इन पांच जनजातियों में भोटिया, बुक्सा, जौनसारी, राजी और थारू जनजाति शामिल हैं.
कोर्ट ने सरकार से तीन अहम सवाल पूछे हैं –
- क्या केवल निवास के आधार पर एसटी प्रमाण पत्र जारी किए जा रहे हैं?
- कोर्ट ने यह भी पूछा कि अब तक कितने लोगों को केवल निवास के आधार पर एसटी प्रमाण पत्र जारी किए गए हैं.
- साथ ही कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि सरकार यह बताए कि किसी व्यक्ति की जातीय पहचान तय करने की प्रक्रिया क्या है.
कोर्ट ने कहा, “याचिकाकर्ताओं का यह तर्क कि जौनसार में रहने से ही कोई एसटी प्रमाण पत्र पाने का अधिकारी बन जाता है, संविधान के प्रावधानों के बिल्कुल खिलाफ है. जनजाति की पहचान व्यक्ति की जाति से होती है, न कि उसके निवास से. “
राज्य सरकार से विस्तृत रिपोर्ट मांगी
कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि वह अगली सुनवाई में यह जानकारी लेकर आए कि किस आधार पर एसटी प्रमाण पत्र जारी किए जाते हैं और अब तक कितने ऐसे प्रमाण पत्र केवल निवास के आधार पर जारी किए गए हैं.
इस मामले की अगली सुनवाई अब 16 मई को होगी.
कोर्ट ने साफ कर दिया है कि यह कोई साधारण मामला नहीं है, बल्कि इससे सामाजिक न्याय, अधिकार और संवैधानिक मर्यादाएं जुड़ी हुई हैं.
निवास के आधार पर एसटी प्रमाण पत्र देने से असली हकदारों के अधिकार छिनने का खतरा होगा.
कोर्ट का यह रुख आदिवासी समाज के वास्तविक प्रतिनिधियों को उनका अधिकार दिलाने की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है.