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ममता अडानी को लाभ पहुंचाने के लिए आदिवासियों से धोखा कर रही हैं – रामचंद्र डोम

पश्चिमबंग सामाजिक न्याय मंच के महासचिव अलकेश दास ने दावा किया कि इसका मुख्य उद्देश्य अडानी को लाभ पहुंचाना है, जिसे उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों का राजनीतिक मित्र बताया.

वामपंथी विचारधारा वाले तीन आदिवासी संगठनों ने बुधवार को कहा कि देउचा-पचामी (Deocha-Pachami) में कोयला खनन सही नहीं है. उन्होंने आरोप लगाया कि ममता बनर्जी सरकार का असली इरादा अपने राजनीतिक साथी अडानी को लाभ पहुंचाने के लिए मूल्यवान बेसाल्ट निकालना है.

सीपीएम पोलित ब्यूरो के सदस्य और बीरभूम के पूर्व सांसद रामचंद्र डोम (Ram Chandra Dome) के नेतृत्व में एक संवाददाता सम्मेलन में पश्चिमबंगा सामाजिक न्याय मंच, पश्चिमबंगा आदिवासी अधिकारी मंच और पश्चिमबंगा आदिवासी और लोकशिल्पी संघ के नेताओं ने दूरदराज के क्षेत्रों में आदिवासी अधिकारों के कथित उल्लंघन का हवाला देते हुए प्रस्तावित देउचा-पचामी कोयला खदान परियोजना के खिलाफ शुक्रवार को बीरभूम के सूरी में एक रैली की घोषणा की.

डोम ने कहा, “जियोलॉजिकल रिपोर्ट या संबंधित शोध वहां कोयला खदान की व्यवहार्यता का सुझाव नहीं देते हैं. सरकार का मुख्य उद्देश्य मूल्यवान बेसाल्ट का उत्खनन करना है, जिसका अंतरराष्ट्रीय बाजार है. यही कारण है कि राज्य सरकार ने बीरभूम के इस सुदूर इलाके में आदिवासी लोगों के अधिकारों को दांव पर लगा दिया है.”

पश्चिमबंग सामाजिक न्याय मंच के महासचिव अलकेश दास ने दावा किया कि इसका मुख्य उद्देश्य अडानी को लाभ पहुंचाना है, जिसे उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों का राजनीतिक मित्र बताया.

दास ने कहा, “आदिवासी लोगों के अधिकारों से समझौता किया गया है और सरकार देउचा-पचामी में बस्तियों को नष्ट करने की योजना बना रही है. यह कुछ और नहीं बल्कि अडानी को क्षेत्र के मूल्यवान खनिजों को लूटने में मदद करने का प्रयास है.”

देउचा-पचामी परियोजना से जुड़े एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि अडानी और परियोजना के बीच कोई संबंध नहीं है.

डोम ने हालांकि दावा किया कि सरकार के शुरुआती इनकार के बावजूद, परियोजना आखिरकार कॉर्पोरेट दिग्गज को सौंप दी जाएगी.

पुलिन बिहारी बास्के जैसे आदिवासी नेताओं ने आरोप लगाया कि यह परियोजना हजारों आदिवासियों से भूमि, जंगल और पानी के उनके अधिकारों को छीनने की साजिश का हिस्सा है.

बास्के ने कहा, “सरकार आदिवासी लोगों के मूल अधिकारों को नहीं छीन सकती. स्थिति इतनी अस्थिर है कि पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी उन्हें इलाके में घुसने तक नहीं दे रहे हैं.”

उन्होंने कहा कि परियोजना के लिए आवंटित 11,222 एकड़ भूमि में से 9,100 एकड़ भूमि आदिवासी लोगों की है.

बीरभूम के मोहम्मदबाजार से आने वाले पोलित ब्यूरो सदस्य डोम ने कहा कि शुरू में विरोध प्रदर्शन प्रभावित क्षेत्र में करने की योजना बनाई गई थी लेकिन पुलिस ने इसकी अनुमति नहीं दी.

एक सूत्र ने कहा कि सीपीएम नेताओं को यकीन नहीं था कि प्रभावित ग्रामीण विरोध रैली में शामिल हो पाएंगे.

डोम ने पूछा, “सरकार ने 1,200 पुलिसकर्मियों को तैनात करके 12 एकड़ भूमि पर बेसाल्ट खनन शुरू किया. अगर परियोजना में सब कुछ उचित है तो उन्हें इतनी अधिक पुलिस बल का उपयोग करने की आवश्यकता क्यों है?”

क्या है पूरा मामला?

हाल ही में आयोजित बंगाल ग्लोबल बिजनेस समिट 2025 (BGBS) में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने घोषणा की थी कि 6 फरवरी, 2025 से बेसाल्ट खनन के लिए देउचा पचामी परियोजना पर काम शुरू हो जाएगा.

इसके बाद ऐसा ही हुआ, घोषणा के अगले दिन यानि 6 फरवरी से बेसाल्ट खनन या भूमि की प्राथमिक सफाई के साथ काम शुरू हुआ.

इस दौरान बीरभूम के जिला मजिस्ट्रेट बिधान रे, जो मोहम्मद बाजार ब्लॉक के चंदा मौजा में अन्य अधिकारियों के साथ परिचालन स्थल पर पहुंचे थे. उन्होंने कहा कि 12 एकड़ भूमि पर काम शुरू हो गया है, जो राज्य सरकार के पास है और इसलिए भूमि अधिग्रहण की आवश्यकता नहीं है.

डीएम ने कहा कि कोयला खनन के लिए साइट पर बेसाल्ट को पहले साफ करना होगा क्योंकि कोयला भंडार बेसाल्ट की एक मोटी परत के नीचे स्थित है.

इस दौरान डीएम ने कहा कि खनन कार्य में लगे श्रमिकों का पंजीकरण स्थानीय बीडीओ कार्यालय में चल रहा है.

साथ ही उन्होंने आश्वासन दिया कि जो लोग जमीन देने के लिए सहमत हुए हैं, उन्हें लाभ मिलेगा क्योंकि पश्चिम बंगाल सरकार ने मुआवजे की घोषणा की है. उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग अपनी जमीन देंगे, उन्हें नौकरी दी जाएगी.

परियोजना के लिए खनन कार्य शुरू होने पर जमीन मालिकों के एक वर्ग ने नाराजगी जताई और नारेबाजी की. उन्होंने मांग की कि उन्हें नौकरी दी जाए.

वहीं विरोध प्रदर्शन के मुद्दे पर डीएम ने कहा, “बहुत सारी माताएं और बहनें आई हैं. वे खुश हैं. जिन्होंने पहले आवेदन किया है, उन्हें पहले लाभ मिलेगा. जिन्होंने बाद में आवेदन किया है, उन्हें बाद में मिलेगा. जब खदान पूरी हो जाएगी तो स्थानीय निवासियों को ही काम मिलेगा. हर घर को काम मिलेगा.”

देउचा-पचामी कोयला खदान

देउचा-पचामी पश्चिम बंगाल की सबसे नई कोयला खदान है. जो मोहम्मद बाज़ार सामुदायिक विकास खंड के अंतर्गत देउचा और पचामी क्षेत्रों में स्थित है.

देउचा-पचामी खदानें 13.4 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई हैं, जो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी ग्रीनफील्ड कोयला खदान है. जिसमें लगभग 1,200 मिलियन टन कोयला और 1,400 क्यूबिक मीटर बेसाल्ट का अनुमानित भंडार है.

खदानों द्वारा कवर किए गए क्षेत्र में से करीब 1,000 एकड़ सरकारी भूमि है, जिसमें से 300 एकड़ जंगल से आच्छादित है. वन क्षेत्र की कुल सीमा का आसानी से पता नहीं लगाया जा सकता.

इस कोयला खदान की खुदाई खुले तौर पर की जानी है और इससे 11 गांवों के 10 हज़ार से ज़्यादा लोगों के विस्थापित होने की संभावना है.

इससे आस-पास के इलाके में रहने वाले 53 बस्तियों और 70 हज़ार लोगों पर भी असर पड़ेगा. इस इलाके की ज़्यादातर ज़मीन आदिवासियों की है, जिसे झारखंड या बंगाल के कुछ औद्योगिक समूहों ने अपनी पत्थर तोड़ने वाली इकाइयों के लिए पट्टे पर ले रखा है.

प्रस्तावित खदान 11,222 एकड़ से ज़्यादा ज़मीन पर फैली होगी. इनमें से 9,100 एकड़ से ज़्यादा ज़मीन आदिवासियों की है.

सितंबर 2018 में केंद्र सरकार और राज्य सरकार के स्वामित्व वाली पश्चिम बंगाल पावर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड (WBPDCL) के बीच हुए एक समझौते के तहत ज़मीन कॉरपोरेशन को आवंटित की गई थी.

देउचा-पचामी क्षेत्र अपने पत्थर के चिप्स के लिए जाना जाता है और इस क्षेत्र के अधिकांश निवासी अपनी आजीविका के लिए पत्थर की खदानों में काम करते हैं.

इस क्षेत्र में पत्थर-कुचलने वाले उद्योग की मौजूदगी के कारण, हवा की गुणवत्ता अपेक्षाकृत खराब है. हालांकि, पत्थर खदानों के मालिक और अधिक खदानों के पक्ष में हैं.

देउचा-पचामी और आदिवासी

देउचा-पचामी क्षेत्र में मुख्य रूप से संथाल जनजाति के लोग रहते हैं. लेकिन यह संविधान की अनुसूची V के अंतर्गत नहीं आता है, जिसका उद्देश्य आदिवासी लोगों की बहुलता, दूरस्थता, अविकसितता और उच्च आर्थिक असमानताओं वाले क्षेत्रों की रक्षा करना है.

यह क्षेत्र पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 यानि पेसा के अंतर्गत भी नहीं आता है.

इस सब के अलावा ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम (FRA), 2006 भी लागू हो रहा है.

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का दावा है कि इस खदान से कम-से-कम एक लाख से ज़्यादा लोगों को रोजगार मिलेगा. लेकिन इलाक़े के संथाल आदिवासी और क्षेत्र के छोटे किसानों का कहना है कि इससे उनकी आजीविका पर संकट आ जाएगा.

आदिवासियों की इस सोच के पीछे की वजह साफ है. अनुमान है कि इस परियोजना से क़रीब 70 हज़ार लोग विस्थापित होंगे. इसके अलावा लोगों को डर है कि परियजना के लागू होने से वह अपनी पारंपरिक भूमि खो देंगे.

आदिवासियों का कहना है कि हमें पैसे और नौकरी का लालच भी दिया जा रहा है. लेकिन हम जानते हैं कि अगर हमारी ज़मीन चली जाएगी तो हमारी संस्कृति और पहचान मिटने का ख़तरा होगा.

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