असम सरकार ने आदिवासी बेल्ट और ब्लॉक में रहने वाले कोच-राजबोंगशी समुदाय को संरक्षित वर्ग में शामिल करने का फैसला लिया है.
सरकार के इस फैसले को लेकर राज्य के कई आदिवासी समुदायों (Indigenous Communities) में नाराज़गी है.
इस क्रम में ऑल असम ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन (AATSU) भी इस नीति का कड़ा विरोध कर रही है.
इस संगठन ने असम सरकार के 7 जुलाई, 2021 के कैबिनेट निर्णय और राज्यपाल की 20 जुलाई, 2021 की अधिसूचना की भी कड़ी निंदा की है.
इस अधिसूचना के ज़रिए मोरन, मातक, अहोम, चुटिया और गोरखा समुदायों को संरक्षित समुदायों (Protected Communities) की सूची में शामिल किया गया था.
इस फैसले का मतलब है कि अब कोच-राजबोंगशी समुदाय को भी जनजातीय बेल्ट और ब्लॉक में ज़मीन खरीदने, बेचने के साथ-साथ ज़मीन का मालिकाना हक़ मिल सकेगा.
इस संगठन का कहना है कि यह फैसला जनजातियों के हितों के खिलाफ है और सरकार को इसे तुरंत वापस लेना चाहिए.
सरकारी निर्देशों के मुताबिक ज़िला उपायुक्तों को उन लोगों की जानकारी इकट्ठा करने को कहा गया है जो इन क्षेत्रों में रहते हैं.
इसलिए यह माना जा रहा है कि सरकार जल्द ही इस दिशा में कोई ठोस कदम उठा सकती है.
AATSU ने क्या कहा?
AATSU के अध्यक्ष हरेश्वर ब्रह्मा का कहना है कि यह कदम सीधे तौर पर जनजातीय लोगों की ज़मीन और अधिकार छीनने की कोशिश है.
उनके मुताबिक सरकार सभी ज़िला कलेक्टरों को जनजातीय इलाकों में रहने वाले गैर-जनजातीय लोगों की जानकारी जुटाने वाला आदेश राजस्व अधिकारियों को भी भेज दिया गया है.
ब्रह्मा का कहना है कि “सरकार पहले ही हमारी ज़मीनों को बचाने में नाकाम रही है. अब वह उन लोगों को भी कानूनी अधिकार दे रही है जो जनजातीय नहीं हैं. ये फैसला पूरी तरह से जनविरोधी है.”
Tribal Belt और Block क्यों बने थे?
असम में असम भूमि और राजस्व विनियमन अधिनियम, 1886 (Assam Land and Revenue Regulation Act, 1886) के तहत जनजातीय बेल्ट और ब्लॉक बनाए गए थे. इनका मकसद था कि जनजातीय समुदायों की ज़मीन को गैर-जनजातीय लोगों से बचाया जाए.
इन क्षेत्रों में सिर्फ उन्हीं समुदायों को ज़मीन का हक़ मिल सकता है जिन्हें ‘संरक्षित वर्ग’ में माना गया है. लेकिन अब सरकार कुछ ऐसे समुदायों को भी इस सूची में जोड़ रही है जो जनजातीय नहीं हैं. इससे आदिवासी समुदायों में नाराज़गी है.
ब्रह्मा के अनुसार पहले से ही चार लाख बीघा आदिवासी ज़मीन पर अवैध कब्जा हो चुका है. अब सरकार गैर-आदिवासी समुदायों को कानूनी रूप से ज़मीन खरीदने की छूट दे रही है, जिससे आदिवासियों का भूमि अधिकार और भी कमज़ोर होगा.
उन्होंने इसे एक साजिश करार दिया और कहा कि “सरकार हमारी ज़मीन को बचाने की बजाय, हमें और कमज़ोर कर रही है.”
कार्बी आंगलोंग में ज़मीन अधिग्रहण योजना
AATSU ने कार्बी आंगलोंग ज़िले में सौर ऊर्जा परियोजना के लिए की जा रही ज़मीन अधिग्रहण की भी कड़ी आलोचना की है.
इसके लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक की मदद से 18,000 बीघा ज़मीन ली जाएगी. इससे लगभग 20,000 करबी और नागा आदिवासी उजड़ने का खतरा है. यह ज़मीन खटखटी और लांकाथा इलाके की 23 गांवों में फैली हुई है.
ब्रह्मा ने कहा कि सरकार ‘विकास’ के नाम पर ये काम कर रही है लेकिन असल में यह छठी अनुसूची के खिलाफ है.
उन्होंने कहा कि सिर्फ करबी आंगलोंग ही नहीं बल्कि बोडोलैंड, मिकिर बमुनी, काजीरंगा, राभा हसोंग जैसे क्षेत्रों में भी सरकार की ज़मीन नीति आदिवासियों के खिलाफ रही है. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि “एडवांटेज असम” के नाम पर राज्यभर में आदिवासी ज़मीनें छीनी जा रही हैं.
ब्रह्मा ने कहा कि आदिवासी समुदाय पहले से ही अपने अधिकारों से वंचित हैं और उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला है.
उन्हें लगातार अपने क्षेत्र, संस्कृति और संसाधनों के लिए लड़ना पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि “हम अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक बनने की कगार पर हैं और ये फैसले हमारी स्थिति को और बदतर बनाएंगे.”
उन्होंने बताया कि गुवाहटी हाई कोर्ट में दायर याचिका नंबर 78/2012 पर आदेश आ चुका है लेकिन उसे अब तक सही तरह से लागू नहीं किया गया है. अगर सरकार ने यह नीतियां जारी रखीं तो आने वाले कुछ वर्षों में असम के आदिवासी समुदायों की पहचान ही खतरे में पड़ जाएगी.
उन्होंने UNESCO की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि आने वाले वर्षों में करीब 2,500 भाषाएं, संस्कृतियां और जनजातियां विलुप्त होने के खतरे में हैं. ऐसे में ज़रूरत है कि सरकार आदिवासियों की ज़मीन, भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए ठोस कदम उठाए.
AATSU की मांग
AATSU ने मांग की है कि सरकार तुरंत इस फैसले को वापस ले और जनजातीय क्षेत्रों की ज़मीनों को सुरक्षित रखने के लिए सख्त कदम उठाए. संघ ने साफ कहा है कि “जनजातीय बेल्ट और ब्लॉक सिर्फ जनजातीयों के लिए हैं. इन क्षेत्रों में किसी भी गैर-जनजातीय को ज़मीन खरीदने की अनुमति नहीं होनी चाहिए.”
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