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क्या आदिवासियों को संरक्षित वनों से बाहर किया जाना चाहिए?

कोई भी विस्थापन और पुनर्वास गहरे मनोवैज्ञानिक घावों के साथ आता है. सरकारों को इस प्रक्रिया को सावधानी, संवेदनशीलता और उचित तरीके के साथ संभालना चाहिए.

हाल ही में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority) द्वारा सभी राज्यों को प्रोजेक्ट टाइगर क्षेत्रों के मुख्य क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों को स्थानांतरित करने के लिए भेजे गए संदेश ने एक बार फिर बाघ बनाम आदिवासियों की बहस को हवा दे दी है.

19 प्रोजेक्ट टाइगर क्षेत्रों में करीब 65 हज़ार परिवारों को स्थानांतरित किया जाना है ताकि मुख्य अछूते क्षेत्रों (जो एक काल्पनिक और अव्यवहारिक अवधारणा है) को बाघों के लिए किसी भी तरह की बाधा से मुक्त किया जा सके.

यह अलग बात है कि कोई नहीं जानता कि ये अछूते क्षेत्र कौन से हैं, कम से कम जमीनी स्तर पर तो नहीं क्योंकि अभी तक किसी की पहचान नहीं हो पाई है.

एनटीसीए ने बाद में स्पष्ट किया कि यह राज्य सरकारों को एक रुटीन रिमाइंडर था. हालांकि, सरकार द्वारा बाघ संरक्षण के लिए आदिवासियों के विस्थापन को महत्वपूर्ण माना जाता है.

इस रुख का उन लोगों द्वारा जोरदार समर्थन किया जाता है जो मानते हैं कि बाघ संरक्षण के लिए इसी तरह के स्वच्छ दृष्टिकोण से करीब 1 लाख वर्ग किलोमीटर के जंगलों को किसी भी मानवीय (यानि आदिवासी) हस्तक्षेप से मुक्त किया जा सकेगा.

सवाल यह है कि जंगल किसके लिए हैं. आदिवासियों के लिए या बाघों के लिए? या दोनों के लिए? बाघों के संरक्षण के लिए यह बात चाहे जितनी भी तार्किक और सही लगे लेकिन हमें यह याद रखना चाहिए कि सभ्यता की शुरुआत से ही आदिवासी और बाघ एक ही जगह पर रहते आए हैं और उन्होंने साथ-साथ रहना सीखा है.

किसी भी आदिवासी से पूछिए तो वह शायद यही सोचेगा कि उसे स्वैच्छिक पुनर्वास के नाम पर उसके पैतृक इलाके से क्यों हटाया जा रहा है. सच तो यह है कि उनकी आपसी ज़रूरतों, डर और सम्मान के कारण ही दोनों कभी-कभार होने वाले संघर्षों के बावजूद साथ-साथ जीवित रह पाए हैं.

एनटीसीए के निर्देश ने देश भर में बाघ क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के मन में चिंता पैदा कर दी है.

उदाहरण के लिए, नागरहोल नेशनल पार्क (कर्नाटक) में आदिवासियों ने स्थानीय वन कार्यालय के सामने विरोध प्रदर्शन किया और आदेश पर अपनी गहरी चिंता और नाखुशी व्यक्त की और इसे वापस लेने की मांग की.

इस विरोध का कारण उनकी पहचान, आजीविका खोने का डर और पूरी पुनर्वास प्रक्रिया में विश्वास की कमी है.

फैक्ट यह है कि सफल पुनर्वास के बहुत कम मामले हैं. पुनर्वास की प्रक्रिया न केवल लंबी और कठिन है बल्कि अधिकांश अवसरों पर निराशाजनक भी है, जो अक्सर ब्यूरोक्रेट्स की उदासीनता और धन की कमी के कारण फंस जाती है.

थकाऊ और लंबी प्रक्रिया के कारण, आदिवासी आम तौर पर स्वैच्छिक पुनर्वास का विकल्प नहीं चुनते हैं.

भूमि या अन्य बुनियादी ढांचे जैसे बिजली, पानी, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, सड़क और इसी तरह के वादे है जो सिर्फ कागज़ों पर या बहुत खराब गुणवत्ता के होने के उदाहरण हैं.

कोई भी विस्थापन और पुनर्वास गहरे मनोवैज्ञानिक घावों के साथ आता है. सरकारों को इस प्रक्रिया को सावधानी, संवेदनशीलता और उचित तरीके के साथ संभालना चाहिए.

आदिवासियों में इस बात को लेकर बहुत गुस्सा है कि राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों को अधिसूचित करते समय उनसे संपर्क नहीं किया जाता/मुआवजा नहीं दिया जाता जो उनके पारंपरिक अधिकारों और विशेषाधिकारों/आजीविका को सीमित/कम करते हैं. इसके अलावा उन्हें संरक्षित क्षेत्रों से बाहर जाने के लिए मजबूर किया जाता है.

इसके अलावा कई शर्तों वाले दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने होंगे, जिनमें रिश्तेदारों से मिलने या अपने पारंपरिक देवताओं की पूजा करने के लिए भी जंगलों में वापस न जाना शामिल है.

कर्नाटक में जामा (वंशानुगत) भूमि जैसी उनकी पारंपरिक रूप से दावा की गई भूमि पर उचित मान्यता और अधिकारों के बारे में भी लंबित मुद्दे हैं.

यहां तक कि वन अधिकार अधिनियम भी इन मामलों में मदद नहीं करता है क्योंकि यह खुद वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के साथ संघर्ष में है.

एक ओर पुनर्वास स्वैच्छिक माना जाता है जबकि दूसरी ओर उन्हें वन अधिकार और पट्टे जारी किए जाते हैं.

तो फिर वे जंगल क्यों छोड़ेंगे? नीति में यह विरोधाभास मामलों में मदद नहीं कर रहा है, चाहे वह बाघ संरक्षण हो या आदिवासियों का पुनर्वास.

जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्रों का निर्धारण एक विशेषज्ञ समिति द्वारा किया जाना है, जो उल्लंघन वाले क्षेत्रों को नामित करती है.

वन अधिकार अधिनियम कहता है कि पुनर्वास तभी किया जा सकता है जब संबंधित ग्राम सभा इस तरह की कार्रवाई के लिए क्षेत्रों को उपयुक्त घोषित करे.

अब समय आ गया है कि इस पूरे मुद्दे पर नए सिरे से विचार करें. आदिवासियों को वन अधिकार अधिनियम और संविधान के 74वें संशोधन के तहत मान्यता प्राप्त उनके अधिकारों के साथ-साथ पुनर्वास के बारे में किसी भी ऐसी चर्चा का हिस्सा बनाया जाना चाहिए, जो पंचायतों को वन प्रबंधन का अधिकार देता है.

हमें याद रखना चाहिए कि आदिवासियों के वहां रहने के बावजूद बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है और प्रोजेक्ट टाइगर क्षेत्रों में अच्छी आबादी देखी गई है. इसलिए बहस बाघ बनाम आदिवासियों के बारे में नहीं होनी चाहिए. बल्कि दोनों को शामिल करने के बारे में होनी चाहिए ताकि आदिवासियों के सिर पर लटकी तलवार को हटाया जा सके.

एनटीसीए चुनौतियों से अच्छी तरह वाकिफ है और उनकी आंतरिक चर्चा अक्सर उपर्युक्त संघर्षों का समाधान खोजने के तरीकों के बारे में होती है. शीर्ष बाघ संरक्षण संगठन से आगे बढ़ने के लिए एक त्वरित मार्ग की उम्मीद है.

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