HomeIdentity & Lifeआदिवासी परंपराएँ और वन्य जीव संरक्षण की नीतियों की बहस

आदिवासी परंपराएँ और वन्य जीव संरक्षण की नीतियों की बहस

आदिवासी इलाक़ों में हर साल जब त्योहार आते हैं तो वन विभाग और आदिवासी समुदाय आमने-सामने आ जाते हैं. क्योंकि आदिवासी परंपरा के अनुसार समुदाय के पुरूष जंगल में शिकार के लिए जाते हैं. आदिवासी समुदाय में ख़ाली हाथ जंगल से लौटना अच्छा नहीं माना जाता है.

मकर संक्राति के साथ नए साल में त्योहारों की शुरुआत हो चुकी है. मकर-संक्रांति के त्योहार को देशभर के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है.

वहीं झारखंड के आदिवासी बहुल इलाके में विभिन्न जनजातीय इस पर्व को सोहराय और माघे पर्व समेत अन्य नामों से मनाते है और इसी के साथ इनके त्योहारों की शुरुआत हो जाती है. आदिवासी समाज में त्योहार जनवरी माह से शुरू होकर मई माह तक चलते हैं.

आदिवासी समाज में एक ऐसा भी त्योहार मनाया जाता है जिसमें जानवरों का शिकार करने की परंपरा है. इस त्योहार को देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है.

पश्चिम बंगाल में आदिवासी लोग ‘अखंड शिकार’ नामक वार्षिक शिकार उत्सव मनाते हैं, जो जनवरी और जून के बीच आयोजित होता है. ये त्योहार आदिवासियों को जीवन और सामाजिक रीति-रिवाजों के बारे में सीखने और सिखाने का एक माध्यम है. यह विशेष रूप से आदिवासी पुरुषों के लिए एक संस्कार है.

जंगल में उत्सव के दौरान शिकार शौक़ के लिए नहीं होता है. बल्कि यह ख़ुद को ज़िंदा रखने की तरकीब और हुनर के लिए किया जाता है. इस उत्सव के दौरान पुरुष पूरी रात आदिवासी गीत गाते और नाचते हैं. 

शिकार उत्सव एक परंपरा है और इसमें शिकार गतिविधियों के अलावा बहुत सारे अनुष्ठान शामिल होता है. झारखंड में आदिवासी इस उत्सव को ‘सेंद्रा’ के नाम  से जानते हैं.

स्थानीय लोग इस परंपरागत उत्सव में भाग लेते हैं जो हर साल मई में एक विशेष तारीख को आयोजित किया जाता है. इस उत्सव में धनुष, तीर, चाकू और गुलेल जैसे पारंपरिक हथियारों का उपयोग करके जंगली जानवरों का शिकार किया जाता है.

जबकि अरुणाचल प्रदेश के आदिवासी लोगों में शादियों और गांव के त्योहारों के दौरान इस तरह की रस्में आम हैं जब लोग ताजा या सूखा मांस उपहार में देते हैं.

शिकार की परंपरा पर बहस

लेकिन आदिवासियों के इस उत्सव पर दो विरोधी विचार हैं – जहां एक हिस्सा आदिवासी या मूल निवासियों के समुदाय के  लोगों के पारंपरिक प्रथागत अनुष्ठान के रूप में इसका समर्थन करता है. वहीं अन्य वन्यजीव संरक्षण और पशु अधिकारों के नाम पर इसका विरोध करते हैं.

पश्चिम बंगाल में ‘अखंड शिकार उत्सव’ के दौरान आदिवासियों द्वारा 200 जंगली जानवरों की हत्या पर हंगामा हो गया था. राज्य के वन विभाग के अनुसार, मार्च 2021 में पश्चिम बंगाल के पश्चिम मेदिनीपुर और झारग्राम जिलों के जंगलमहल जंगल में आदिवासियों द्वारा लगभग 200 जंगली जानवरों को मार दिया गया था.

जानवरों में विभिन्न संरक्षित प्रजातियां शामिल हैं जैसे कि सांप, नेवला, जंगली सूअर, लोमड़ी, पक्षी, दुर्लभ जंगल बिल्लियां, मॉनिटर छिपकली, उल्लू, एशियाई कोयल और रूफस ट्रीपीज़.

ज़्यादातर आदिवासी अब त्योहार पर परंपरा निभाने के लिए ही शिकार करते हैं

आदिवासियों द्वारा जंगलमहल में शिकार उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले सदियों पुराने वार्षिक शिकार के मौसम के हिस्से के रूप में जानवरों को मार दिया गया था. शिकार के लिए भाले, गुलेल, धनुष, तीर, कुल्हाड़ी और चाकू जैसे  हथियारों के अलावा कुछ लोगों ने बंदूकों का भी इस्तेमाल किया था. 

अधिकारियों के अनुसार, इस आयोजन में लगभग 7 से 8 हज़ार शिकारियों ने भाग लिया. वन अधिकारी जंगल की ओर जाने वाली सड़कों पर खड़े हो गए और शिकारियों से विनती की कि जानवरों और पक्षियों को मारने से जंगल का संतुलन नष्ट हो जाएगा. हालांकि, आदिवासी समुदाय के सदस्यों ने जोर देकर कहा कि शिकार उत्सव उनकी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है.

शिकार शौक़ और भोजन दोनों के लिए होता रहा है

हालांकि, शुरुआत से ही शिकार मानव सभ्यता का एक प्रमुख अंग रहा है. यह खेती-किसानी, मछली पकड़ने और इकट्ठा करने के साथ-साथ मानव संस्कृतियों में गहराई से समाहित है. 

कुछ प्राचीनतम गुफा चित्रों में शिकार के दृश्यों को भी दर्शाया गया है. 10,000 ईसा पूर्व और 7,000 ईसा पूर्व के बीच बुबलस काल की कई सहारन रॉक कला, शिकार के कई दृश्यों और मनुष्यों और जानवरों के बीच संबंधों को दर्शाती है.

मध्य युग और औपनिवेशिक काल से आगे बढ़ते हुए शिकार को कई चित्रों और बाद में तस्वीरों में चित्रित किया गया है. भारत में मुगल चित्रों में अक्सर राजाओं को शिकार की यात्राओं के लिए बाहर जाते हुए दर्शाया जाता था. अकबरनामा में अकबर के शिकार अभियानों के कई दृश्य हैं. यह शक्ति का प्रतीक था.

उसी के बाद भारत के ब्रिटिश औपनिवेशिक आकाओं ने किया. 25 दिसंबर, 1911 को किंग जॉर्ज पंचम की यात्रा के दौरान एक ही दिन में भारत-नेपाल सीमा के तराई क्षेत्र में 39 बाघ, 18 गैंडे, चार भालू और एक तेंदुआ मारा गया था.

इसके अलावा जॉर्ज यूल, एक ब्रिटिश सिविल सेवक ने 400 से अधिक बाघों को मार डाला और जेफ्री नाइटिंगेल ने 300 से अधिक को गोली मार दी थी. 

1875 और 1925 के बीच गृह विभाग के रिकॉर्ड के आधार पर अनुमान के अनुसार भारत में कम से कम 50 हज़ार बाघ मारे गए थे.

आज़ादी के बाद भारत के वन्यजीवों की रक्षा करने की वास्तविक आवश्यकता महसूस की गई और 1952 में देश में वन्यजीव संरक्षण से संबंधित सभी नियमों और विनियमों को केंद्रीकृत करने के लिए भारतीय वन्यजीव बोर्ड का गठन किया गया. 

बोर्ड द्वारा की गई सबसे महत्वपूर्ण कार्रवाइयों में से एक देश में सभी पूर्ववर्ती खेल भंडारों (Erstwhile game reserves) को ‘अभयारण्य’ / ‘राष्ट्रीय उद्यान’ का दर्जा देना था.

इसके बाद 1972 में बेहद कड़ा वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 वन्यजीव संरक्षण की दिशा में एक प्रमुख कदम था. अधिनियम ने संरक्षण की जरूरत के आधार पर जानवरों को विभिन्न अनुसूचियों में वर्गीकृत किया और इन प्रजातियों के शिकार को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया और उल्लंघन के मामले में दंड निर्धारित किया गया.

इस कानून ने भारत के समृद्ध वन्य जीवन की रक्षा करने में एक प्रमुख भूमिका निभाई. लेकिन दूसरी ओर इसने कई आदिवासी समुदायों द्वारा प्रचलित पारंपरिक शिकार अधिकारों को अवैध बना दिया.

आदिवासी अधिकार और शिकार से जुड़े अंतरराष्ट्रीय तथ्य

जंगली जानवरों के शिकार के पारंपरिक अधिकार को दुनिया भर कई कानूनी प्रणालियों में मान्यता दी गई है. ऑस्ट्रेलिया की कोर्ट और विधायिका ने टॉरेस स्ट्रेट आइलैंड और ऑस्ट्रेलियाई मूलनिवासी लोगों के मूल देशज अधिकारों को कानूनी मान्यता दी है. 

इसमें डुगोंग नामक जीव को डूबाकर और कछुओं को उनके सिर पर जोरदार वार कर उनका शिकार करने का अधिकार शामिल है.

इनमें से कुछ अधिकारों में मटन-बर्ड चूजों की गर्दन तोड़ना भी शामिल है. वैसे देखें तो ये क्रूर प्रतीत होता है लेकिन इन प्रथागत शिकार गतिविधियों को ऑस्ट्रेलिया के पशु देखभाल और संरक्षण अधिनियम 2001 से छूट दी गई है.

अफ्रीकी देशों में भी वन्यजीवों के नियंत्रित उपयोग को मान्यता दी गई है. उदाहरण के लिए नामीबिया ने 1998 समुदाय-आधारित प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (CBNRM) कार्यक्रम शुरू किया, जिसमें गरीबी उन्मूलन को सामुदायिक वन्यजीव संरक्षण से जोड़ा गया है.

सीबीएनआरएम के तहत ग्रामीण समुदायों को वन्यजीवों और प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रित उपयोग करने और उनसे लाभ प्राप्त करने का अधिकार है. 

इन स्थानीय समुदायों को सरकार ट्रॉफी हंटिंग जानवरों जैसे हाथी, गैंडा, स्प्रिंगबॉक और ऑरिक्स के संरक्षण का अधिकार देती है, जिनका समय-समय पर पेशेवर शिकारियों द्वारा ट्रॉफी हंटिंग किया जाता है.

शिकार का मांस घरेलू उपभोग या व्यापार के काम आता है. इन सभी गतिविधियों से हुए राजस्व को संरक्षण निधि में जमा किया जाता है, जिसे बाद में विकास कार्यक्रमों के लिए उपयोग में लाया जाता है.

भारत की स्थिति

हालांकि, जब हम भारतीय कानूनों की तरफ देखते हैं तो हमारे पास एक अलग परिदृश्य होता है. अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 या वन अधिकार अधिनियम (FRA) की धारा 3 (एल) जंगली जानवर की किसी भी प्रजाति के शिकार, फंसाने या शरीर के एक हिस्से को निकालने के पारंपरिक अधिकार को बाहर करता है.

आदिवासी समुदाय के लिए प्राकृतिक वन्यजीव पर मूल अधिकार उनकी जीवन शैली में रचा-बसा है. बावजूद इसके इन्हें इनके अधिकारों से वंचित किया जाता है. 

जंगली मांस का उपभोग अक्सर शहरी लोगों द्वारा “शौक़” के भोजन” के रूप में किया जाता है जबकि यह ग्रामीण आबादी के पोषण का एक महत्वपूर्ण स्रोत था. 

सरकारें और अंतर-सरकारी निकाय इस पहलू की अनदेखी करते हैं और वन्य प्रजातियों के संरक्षण के नाम पर वे इनके शिकार या व्यापार पर ही सीमित या पूर्ण प्रतिबंध लगा देते हैं. 

इसे लागू करना आसान होता है और इससे उन्हें तात्कालिक परिणाम भी मिल जाता है. लेकिन ये वन्य प्रजातियां बिगड़ते पारिस्थितिक तंत्र, आक्रामक जीवों और बदलती जलवायु जैसे कारणों से भी मर सकती हैं। ऐसे परिदृश्यों में प्रतिबंध लगाना समस्या का समाधान नहीं है.

हालांकि, हमारे पास यह दिखाने के उदाहरण हैं कि कैसे कुछ जनजातियों ने बड़े पैमाने पर वन्य जीवन और पर्यावरण के संरक्षण के लिए अपने प्रथागत शिकार अधिकारों को छोड़ दिया है. 

नागालैंड की अंगामी जनजाति ने अपने शिकार के अधिकार को छोड़ दिया, जो उनके आजीविका के अधिकार से जुड़ा था.  

वहीं अरुणाचल प्रदेश में निशि जनजाति, जो कभी हार्नबिल का शिकार करती थी और टोपी बनाने के लिए उसकी चोंच का इस्तेमाल करती थी और आज सफलतापूर्वक हॉर्नबिल संरक्षण आंदोलन चला रही है.

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गांधीनगर में मानव विज्ञान, मानविकी और सामाजिक विज्ञान की सहायक प्रोफेसर अंबिका अय्यादुरई का कहना है कि आदिवासी लोगों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं को गहराई से समझे बिना उनके शिकार प्रथाओं को अपराध घोषित करना सामाजिक अन्याय है. 

हम जमीन, जानवर और अन्य पारिस्थितिक पहलुओं के साथ उनके संबंधों को स्वीकार करने में विफल रहे हैं और प्रतिबंध लगाकर उनके जैव-सांस्कृतिक ज्ञान को मिटा रहे हैं.

अंबिका अय्यादुरई ने देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में आदिवासी समुदायों की भोजन की आदतों का व्यापक अध्ययन किया है. वह स्थानीय समुदायों द्वारा जंगली मांस के सेवन का समर्थन करते हुए कहती हैं कि यह उनकी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करता है. ज्यादातर आदिवासी समुदाय बेहद गरीब हैं और उनके पास प्रोटीन हासिल करने का कोई दूसरा स्रोत नहीं है.

एक स्वतंत्र अंतर-सरकारी निकाय इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ (IPBES) की नई रिपोर्ट के लेखकों में से एक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल डेवलपमेंट एंड पंचायती राज, हैदराबाद के प्रोफेसर ज्योथिस एस कहते हैं, “हमें यह समझने की जरूरत है कि वन्य प्रजातियों के उपयोग से भी उनका संरक्षण होता है.”

भारत का उदाहरण देते हुए ज्योथिस कहते हैं, “जैव विविधता व वन कानून स्वदेशी समुदायों की इन जरूरतों को पहचानते हैं लेकिन ये कानून ठीक से लागू नहीं होते.” 

उदाहरण के लिए, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 अंडमान के आदिवासी समुदायों को छोड़कर अन्य लोगों पर भोजन या व्यापार के लिए जंगली जानवरों के शिकार पर रोक लगाता है. 

कश्मीर विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर और आईपीबीईएस रिपोर्ट के एक प्रमुख लेखक मंजूर शाह कहते हैं, “हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि हमें वन्य प्रजातियों का इस तरह से उपयोग करना है कि उनकी उपलब्धता भविष्य की पीढ़ियों के लिए कम न हो. हम इसे कैसे लागू करते हैं यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है.”

उनका कहना है कि ऐसे कई उदाहरण हैं जो बताते हैं कि स्थानीय समुदायों के पारंपरिक ज्ञान से वन्य प्रजातियों का संरक्षण किया जा सकता है. 

मानव द्वारा उपभोग की जाने वाली 10,098 प्रजातियों में से कम से कम 34 प्रतिशत ऐसी वन्य प्रजातियां हैं, जो खतरे में हैं. लेकिन नियंत्रित उपयोग से विलुप्त होती प्रजातियों को बचाया जा सकता है.

क्या रास्ता हो सकता है

हाल ही में MBB की टीम छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले में थी. इस दौरान हमारी टीम यहाँ के कई गाँवों में गई जिनमें गुड़ियापदर गाँव भी शामिल था.

यह गाँव कंगनवैली राष्ट्रीय उद्यान के क़रीब घने जंगल में बसा है. यहाँ पर गोंड आदिवासी रहते हैं. यहाँ के कुछ नौजवानों से बातचीत में पता चला कि वे अक्सर जंगल में सूअर के शिकार के लिए जाते थे.

लेकिन अब उन्होंने जंगली जानवरों का शिकार लगभग बंद कर दिया है. क्योंकि यहाँ पर वन विभाग के शीर्ष अधिकारी ने उनसे आग्रह किया है कि जंगल में जानवरों के शिकार से टाइगर के लिए भोजन नहीं बचेगा.

इसके साथ ही वन विभाग के इस अधिकारी ने उनके गाँव में वर्षों से चल रही ज़मीन के मालिकाना हक़ की लड़ाई में गाँव के लोगों का साथ दिया.

यानि अगर वन विभाग और सरकार के दूसरे अधिकारी संजीदगी से आदिवासियों को समझने की कोशिश करें तो उनका भरोसा जीत सकते हैं.

इसलिए वन्य जीवों की प्रजातियों को बचाने के लिए शिकार को नियंत्रित करने वाली नीतियों को बनाते वक्त सामाजिक और ऐतिहासिक आयामों को ध्यान में रखना होगा.

जब संरक्षण को आजीविका के साथ जोड़ा जाता है तो समुदाय के लोग सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं और वन्यजीव प्रबंधन सफल होता है. 

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