झारखंड लोक सेवा आयोग 2021 (Jharkhand Public Service Commission) की परीक्षा में आदिवासी संस्कृति से जुड़े एक सवाल ने सभी को मुश्किल में डाल दिया था.
यह सवाल था कि धुमकुड़िया (Dhumkudiya) क्या है ?
अफसोस ये है कि जो राज्य सरना धर्म कोड (आदिवासियों के लिए जनसंख्या गणना में अलग कॉल्म देने की मांग) की मांग के लिए जाना जाता है. उसी राज्य के लोक सेवा आयोग की परीक्षा के लिए धुमकुड़िया सबसे मुश्किल सवालों में शुमार हो गया.
आइए आज झारखंड के आदिवासियों से जुड़े इसी धुमकुड़िया के बारे में विस्तार से जानते हैं.
धुमकुड़िया झारखंड के आदिवासी शिक्षा का आधार था. प्राचीन काल से ही आदिवासियों में धुमकुड़िया की परंपरा चली आ रही है.
इसकी खासयित ये थी कि यहां भले ही आदिवासियों को अक्षर और लिपि से जुड़ा ज्ञान ना मिले. लेकिन समाज से जुड़ी वह हर एक चीज सिखाई जाती थी, जो जीवनयापन के लिए जरूरी हो.
यह उरांव जनजाति (Oraon tribe) का पारम्परिक सामाजिक पाठशाला या युवागृह है.
धुमकुड़िया में आदिवासी बच्चे खलते-कूदते जीवनयापन से जुड़ी हर एक चीज सीखा करते थे.
यहां आदिवासी छात्र-छात्राओं को कृषि कार्य, गृह निर्माण, पराम्परिक चिकित्सा, संस्कृति से जुड़ी परंपराएं, नृत्य, वाद्य यंत्र बजाना और यहां तक की खेल भी सिखाया जाता था.
इसके अलावा धुमकुड़िया में आदिवासी छात्र-छात्राओं को जंगल में जीवन जीने के लिए कुशल बनाया जाता था.
मसलन जाल बुनना, धागे तैयार करना, सामूहिक शिकार करना, खाने लायक फल-फूल और पत्तों की पहचान, पक्षियों की आवाज पहचानना और खतरनाक जानवरों से बचने के सभी तकनीक इन्हें सिखाई जाती थी.
आदिवासी विद्यार्थी यह सब धुमकुड़िया के अलग-अलग गतिविधियों के माध्यम से सीखते थे.
धुमकुड़िया में लड़के और लड़कियों का अलग-अलग समूह होता था. इन्हें सिखाने वाले गाँव के वृद्ध पुरूष और महिलाएं होती थी.
लेकिन जैसे- जैसे आदिवासी समाज मुख्यधारा से जुड़ता रहा, वैसे-वैसे धुमकुड़िया विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गया.
इसका एक कारण ये भी है कि धुमकुड़िया में लेखन कला का आभाव था, जो स्कूलों ने पूर्ण किया था.
इसके अलावा आधुनिक स्कूलों में आकर्षक शिक्षा साम्रगी और लिखने-पढ़ने का एक तरीका मौजूद है.
स्कूल में पढ़ाई गई शिक्षा आदिवासियों को रोज़गार के नए-नए विकल्पों से जोड़ती है.
आदिवासी समाज में आधुनिक शिक्षा की व्यवस्था ने उन्हें रोज़गार के नए विकल्पों से तो जोड़ा है, लेकिन वह अपनी पहचान से दूर होते जा रहे हैं.
पहले आदिवासी अलग-अलग तरीके वाद्य यंत्र बजाना और नृत्य सिखता था.
लेकिन अब इस वाद्य यंत्र का स्थान मोबाइल से बजने वाले गानों ने ले लिया है.
अगर पूर्ण रूप से देखा जाए तो उरांव आदिवासियों के समाज में धुमकुड़िया विलुप्त होने के साथ धीरे-धीरे आदिवासी संस्कृति भी विलुप्त हो रही है. अब यह देखा गया है कि कुछ गांवों में इस संस्था को फिर से जीवित करने के प्रयास हो रहे हैं.
झारखंड की सरकार द्वारा भी इसका अस्तित्व बचाने के लिए कई प्रयास किए हैं.