भारत में अनुसूचित जनजातियांय (Scheduled Tribes) कुल जनसंख्या का करीब 8.6 फीसदी हिस्सा हैं, जो देश के सबसे कमज़ोर समूहों में से एक है.
जंगल में रहते हुए उन्होंने अपने पारंपरिक ज्ञान को क्षेत्रीय वन और प्राकृतिक संसाधनों के साथ एकीकृत करके अपनी आजीविका को बनाए रखा है.
अनुसूचित जनजातियों के बीच कुछ जनजातियां खराब आर्थिक प्रगति और कम स्वास्थ्य और शिक्षा सूचकांकों के कारण दूसरों की तुलना में अधिक कमज़ोर और हाशिए पर हैं.
इन जनजातियों को विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) कहा जाता है. वर्तमान में भारत में 730 से अधिक अनुसूचित जनजातियों में से 75 PVTG हैं.
आदिम जनजाति या पीवीटीजी की पहचान जनसंख्या के घटते स्तर, आदिम तकनीक के उपयोग, बेहद कम साक्षरता स्तर और निर्वाह-स्तर की अर्थव्यवस्थाएं हैं.
ऐसी ही एक PVTG गुजरात के दक्षिणी क्षेत्र, मुख्य रूप से भरूच, सूरत, नवसारी, वलसाड और डांग जिलों में रहने वाली कोटवालिया जनजाति (Kotwalia tribe) है.
कोटवालिया जनजाति को ‘विटोलिया’ या ‘वांसफोडिया’ के नाम से भी जाना जाता है – जिसका शाब्दिक अर्थ है बांस तोड़ने वाला, जो उनकी आजीविका के पारंपरिक साधन को दर्शाता है.
उनके पारंपरिक शिल्प में बांस के साथ काम करना शामिल है. कोटवालिया पारंपरिक रूप से बांस की नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए वन क्षेत्रों में रहते हैं.
इसका उपयोग वे बैग, कंटेनर, झाड़ू और टोकरियां जैसे कई घरेलू सामान बनाने, बेचने और आजीविका के लिए करते हैं. पहले उन्हें जंगल से बांस की कटाई करने में कोई परेशानी नहीं होती थी.
हालांकि, समय के साथ वन उत्पादों का प्रबंधन वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में आ गया. जिसके चलते कोटवालिया आदिवासियों को प्रभागीय वन अधिकारियों से अनुमति लेनी पड़ती है.
इसके अलावा बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और वन क्षेत्रों में मानवजनित गतिविधियों ने बांस की उपलब्धता और पहुंच को कमजोर किया है.
बारिश और तापमान में परिवर्तन बांस की वृद्धि को प्रभावित करते हैं. जबकि जलवायु परिवर्तन के बिगड़ते प्रभाव वन क्षेत्र और प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता को कम करते हैं.
आर्थिक स्थिरता और राजनीतिक हस्तक्षेप की कमी के कारण कोटवालिया जनजाति इन बदलती परिस्थितियों के अनुकूल होने और आजीविका के लिए संघर्ष करती है.
कोटवालिया आदिवासियों की बांस आधारित आजीविका पर एकमात्र निर्भरता ने उनमें से कई को पास के गन्ने के खेतों में मज़दूर के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया है, जिससे गंभीर आर्थिक अभाव और आजीविका की कमी हो गई है.
इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए विज्ञान आधारित तकनीकी हस्तक्षेपों के माध्यम से कोटवालिया आदिवासी समुदाय के बीच एक स्थायी आजीविका प्रणाली का निर्माण करना और आजीविका के लिए कुछ और कामों में लगना अहम है.
सबसे पहले इन क्षेत्रों में बांस की लंबे वक्त तक उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए टिकाऊ बांस प्रबंधन प्रथाओं को शामिल किया जाना चाहिए, बेहतरीन कटाई तकनीकों और कीट प्रबंधन को लागू करने के लिए टेक्नोलॉजी का उपयोग करना चाहिए.
दूसरा, बांस की खेती और उत्पाद विकास को बढ़ाने के लिए जरूरी टेक्निकल स्कील के साथ कोटवालिया युवाओं की क्षमता निर्माण और कौशल विकास मौजूदा कमजोरियों को कम कर सकता है.
साथ ही बांस के बने सामान का क्वालिटी चेक सुनिश्चित करना चाहिए. इससे सामान के लिए उचित दाम प्राप्त करने और अंतरराष्ट्रीय बाजारों तक पहुंच की चुनौती का समाधान करने में मदद मिल सकती है.
क्वालिटी चेक के लिए मजबूत स्ट्रक्चर सुनिश्चित करके कोवालिया आदिवासियों के बनाए बांस के सामान को बेहतर कीमत दी जा सकती है और दूसरे सामानों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए तैयार किया जा सकता है.
इसके अलावा बेहतर मूल्य निर्धारण समुदाय के लिए बढ़ी हुई आय सुनिश्चित करेगा. साथ ही उनकी आजीविका में विविधता लाने के लिए टेक्नोलॉजी बांस पर उनकी निर्भरता को कम करेगा और आय का एक से अधिक स्रोत प्रदान करेगा.
कोवालिया आदिवासी युवाओं को मॉर्डन टूल और टेक्नोलॉजी सिखाई और अपनाई जा सकती हैं ताकि उनकी प्रक्रियाएं अधिक प्रभावी और कुशल बन सकें.
कोवालिया अपनी आजीविका को बनाए रखने के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अपने पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करते हैं. इसलिए उनके पारंपरिक ज्ञान को संरक्षित करने की जरूरत है. साथ ही उनके पारंपरिक ज्ञान के साथ साइंटिफिक तरीकों को एकीकृत करने से बांस के सामान बनाने की उनकी सदियों पुरानी कला को और बढ़ावा मिलेगा.
इस कला को गुम होने से रोका जा सकेगा और उनके मूल मूल्य को खोए बिना प्रक्रियाओं को मजबूत किया जा सकेगा.
कमज़ोर आदिवासी समुदायों के अधिकारों और संसाधनों की रक्षा के लिए अधिक मज़बूत कानूनी और नीतिगत स्ट्रक्चर को बढ़ावा देना ज़रूरी है. सुरक्षित भूमि स्वामित्व, टिकाऊ प्रथाओं और उचित बाज़ार स्थितियों को बढ़ावा देने वाली सहायक सरकारी नीतियों की वकालत करने से हाशिए पर पड़े समुदायों की स्थिति में सुधार आएगा.