3 फरवरी, 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने वन संरक्षण क़ानून के संशोधनों को फ़िलहाल लागू ना करने का आदेश दिया है. जस्टिस बी आर गवई (Justice BR Gavai) और जस्टिस के विनोद चंद्रन (Justice Vinod Chandran) की पीठ ने यह आदेश दिया है.
सुप्रीम कोर्ट में वन संरक्षण कानून, 2023 में साल 2023 के संशोधनों के खिलाफ कई याचिकाओं पर सुनवाई चल रही है.
सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए करते हुए केंद्र और राज्यों को अगले आदेश तक ऐसा कोई भी कदम उठाने से रोक दिया है जिससे वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचे.
वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023, 1 दिसंबर, 2023 को लागू हुआ है. इस अधिनियम के ज़रिए वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के प्रावधानों में महत्वपूर्ण बदलाव किए.
इस विधेयक के पास होने के बाद विशेषज्ञों और नागरिकों ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि संशोधनों से अधिकारियों को पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर और कमर्शियल उपयोगों के लिए प्रतिबंधित वन क्षेत्रों को फिर से इस्तेमाल करने में सुविधा होगी.
सुप्रीम कोर्ट में जिन 13 याचिकाकर्ताओं ने यह मामला दायर किया है उसमें से 12 भारत सरकार के पूर्व अधिकारी हैं.
उन्होंने संशोधन अधिनियम पारित होने के बाद 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में बदलावों के बारे में अपनी चिंताओं को व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है.
वन संरक्षण क़ानून में संशोधन में सीमावर्ती क्षेत्रों के साथ 100 किलोमीटर के दायरे में “राष्ट्रीय सुरक्षा” और “रक्षा” से संबंधित परियोजनाओं (Linear projects) के लिए वन भूमि के परिवर्तन की अनुमति दी गई है.
इस संशोधन पर जानकार लोगों ने सबसे अधिक चिंता प्रकट की है.
दूसरे शब्दों में यह भारत के सीमांत राज्यों के जैवविविधता वाले और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में राजमार्ग निर्माण का रास्ता खोलता है.
वन संरक्षण संशोधन अधिनियम, 2023 की चुनौतियां
सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में इस बात पर जोर दिया गया कि कैसे यह संशोधन भारत की लंबे समय से चली आ रही वन शासन प्रणाली को खतरे में डालता है.
याचिका में यह भी तर्क दिया गया कि संशोधन ने कुछ परियोजनाओं और गतिविधियों को अधिनियम के प्रावधानों से छूट दे दी गई है.
कोर्ट में कहा गया है कि वन संरक्षण क़ानून 1980 में संशोधन के ज़रिए वन भूमि को मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी गई है.
इसके अलावा सफारी, चिड़ियाघर और इकोटूरिज्म को गैर-वनीय उद्देश्यों के लिए स्वीकृत गतिविधियों की सूची में बेतरतीब ढंग से जोड़ दिया गया.
इस याचिका में याद दिलाया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ के मामले में 1996 के अपने फैसले में स्थापित “वन” की परिभाषा के अनुसार आचरण करने को कहा था.
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि संशोधित कानून में जोड़ी गई धारा 1ए ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले में “वन” के व्यापक अर्थ को सीमित कर दिया है.
संशोधित कानून के मुताबिक, संपत्ति के किसी टुकड़े को तब तक “वन” नहीं माना जा सकता जब तक कि उसे सरकारी रिकॉर्ड में आधिकारिक रूप से सूचीबद्ध न किया जाए या इस रूप में अधिसूचित न किया जाए.
संशोधन ने अधिनियम के आवेदन को भूमि की दो श्रेणियों तक सीमित कर दिया:
. वे क्षेत्र जिन्हें भारतीय वन अधिनियम, 1927 (IFA) या किसी अन्य लागू कानून के तहत औपचारिक रूप से वन के रूप में नामित या अधिसूचित किया गया है.
. वे भूमि जो प्रथम श्रेणी में नहीं आतीं लेकिन 25 अक्टूबर 1980 से सरकारी रिकॉर्ड्स में वन के रूप में सूचीबद्ध हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने फ़रवरी में दिए अंतरिम आदेश में यह बात नोट की है कि करीब 1.99 लाख वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र को 2023 के संशोधित कानून के तहत “वन” की अवधारणा से बाहर रखा गया है.
इसके साथ ही इस वन क्षेत्र को अन्य उपयोगों के लिए सुलभ बनाया गया है.
पीठ ने कहा कि वन क्षेत्र में चिड़ियाघर बनाने या जंगल सफारी शुरू करने की किसी भी नई योजना के लिए अब सुप्रीम कोर्ट की अनुमति की आवश्यकता होगी.
जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन की पीठ ने वन संरक्षण कानून में 2023 के संशोधन के खिलाफ याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि, “हम ऐसी किसी भी चीज की अनुमति नहीं देंगे जिससे वन क्षेत्र में कमी आए. हम आदेश देते हैं कि अगले आदेश तक भारत संघ और कोई भी राज्य ऐसा कोई कदम नहीं उठाएगा जिससे वन भूमि में कमी आए, जब तक कि केंद्र और राज्यों द्वारा कंपनसेटरी भूमि प्रदान नहीं की जाती.”
आदिवासी भूमि अधिकार
वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 का आदिवासी (Indigenous Communities) भूमि अधिकारों पर संभावित प्रभावों के मद्देनजर कई अहम चिंताएं व्यक्त की गई हैं.
इस क़ानून में संशोधन से आदिवासियों के लिए मौजूद कानूनी सुरक्षा को कमज़ोर करके उनकी आजीविका और सांस्कृतिक संबंधों को ख़तरे में डाल सकते हैं.
संशोधित कानून में “वन” की अवधारणा को कम करना सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है. इससे पहले, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 ने सभी वैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त वनों की रक्षा की थी, चाहे वे पंजीकृत हों या नहीं.
हालांकि, 2023 का संशोधन भारतीय वन अधिनियम, जंगल की परिभाषा को 1927 के तहत अधिसूचित भूमि या सरकारी रिकॉर्ड्स में आधिकारिक रूप से वन के रूप में सूचीबद्ध भूमि तक सीमित करता है.
इस क़ानून के दायरे से सामुदायिक वन का बड़ा हिस्सा बाहर रखा गया है. यह ज़मीन परंपरागत रुप से आदिवासी अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक गतिविधियों के लिए भी इस्तेमाल करते रहे हैं.
इस ज़मीन को वन संरक्षण क़ानून के दायरे से बाहर रखने के बाद इस ज़मीन का व्यवसायिक उपयोग का रास्ता खुल गया है.
सीमा सुरक्षा, डिफेंस इंफ्रास्ट्रक्चर, इकोटूरिज्म और विशिष्ट क्षेत्रों में सार्वजनिक उपयोगिताओं से संबंधित गतिविधियों के लिए, अधिनियम सरकार को पारंपरिक वन मंजूरी नियमों को दरकिनार करने की अनुमति देता है.
ये आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभाओं या ग्राम परिषदों की मंजूरी की आवश्यकता के बिना सड़क, रेलमार्ग और औद्योगिक क्षेत्रों सहित प्रमुख इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की स्थापना की सुविधा प्रदान करते हैं.
आदिवासी वन अधिकार अधिनियम (FRA), 2006 और PESA के तहत इस विशेष अधिकार के हकदार हैं.
इन क़ानून में संशोधन करके उनके यह तय करने का अधिकार छीन लिया गया है कि जिस जंगल पर उनका अधिकार है उसकी भूमि का उपयोग कैसे किया जाए.
इस बारे में निर्णय लेने की उनकी स्वतंत्रता पर सीधे तौर पर समझौता किया गया है. इस तरह से आदिवासियों की जबरन बेदखली के विरुद्ध कानूनी सुरक्षा कमजोर कर दी गई है.
भूमि के अधिक से अधिक हस्तांतरण और निजीकरण (transfer and privatisation) की संभावना एक और महत्वपूर्ण समस्या है.
वन संरक्षण क़ानून में संशोधन से चिड़ियाघर, जंगल सफारी और पर्यटन परियोजनाओं जैसे व्यवसायों के लिए वन भूमि तक पहुंच आसान हो जाती है, जिससे वन के विशाल भूभाग निजी संगठनों को हस्तांतरित हो सकते हैं.
आदिवासियों और जंगल में रहने वाले लोगों के लिे मजबूत कानूनी सुरक्षा के अभाव में कॉर्पोरेट हितों द्वारा सामुदायिक अधिकारों को नज़रअंदाज़ करना आसान होगा.
इसके परिणामस्वरूप संघर्ष, आजीविका का नुकसान और जबरन पलायन हो सकता है.
आदिवासियों के अलगाव को रोकने के लिए संविधान की पाँचवीं अनुसूचि में समुदायों को कई तरह की सवैंधानिक और कानून सुरक्षा प्रदान की गई थी.
लेकिन वन संरक्षण क़ानून में संशोधन की वजह से यह सुरक्षा भी कमज़ोर होती है.
वन संरक्षण क़ानून में संशोधन करके सरकार ने विकास परियोजनाओं के लिए भूमि आवंटन को आसान बना दिया है. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में आदिवासियों के साथ हुए एतिहासिक अन्याय और संघर्ष को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है.
कुल मिला कर वन संरक्षण संशोधन क़ानून 2023 के ज़रिए वन की परिभाषा बदलने के साथ साथ अनुमति की प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ करते हुए कॉरपोरेट्स को जंगल की ज़मीन का इस्तेमाल करने की छूट दे गई है.
इस वजह से आदिवासियों के भूमि अधिकारों पर सीधा सीधा हमला हुआ है.
आदिवासी अधिकारों के लिए अन्य चुनौतियां
मध्य प्रदेश सरकार ने आदिवासी समुदायों के खिलाफ करीब 8,000 वन आपराधिक मामलों को वापस लेने का फैसला करके एक बड़ा कदम उठाया है. इस फैसले से वन क्षेत्रों में मूल निवासी रीति-रिवाजों के अपराधीकरण के बारे में लंबे समय से चली आ रही शिकायतों को दूर करने का इरादा है.
लेकिन सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत इकट्ठा किए गए नए आंकड़ों के मुताबिक, राज्य इनमें से लगभग आधे मामलों को ही वापस लेने का इरादा रखता है. इसका मतलब है कि कई आदिवासी अभी भी कानूनी मुद्दों का सामना कर रहे हैं.
आदिवासी समुदायों को अपने भूमि अधिकारों और पारंपरिक वन गतिविधियों के संबंध में लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो इस आंशिक वापसी से उजागर होती है.
यह देखा गया है कि वनवासियों के अधिकारों को स्वीकार करने वाले 2006 के वन अधिकार अधिनियम जैसी व्यवस्था के बाद भी कई आदिवासियों को अभी भी संभावित विस्थापन और कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
कुल मिलाकर इस बात को लेकर गंभीर चिंताएं हैं कि वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023, आदिवासी भूमि अधिकारों, पर्यावरण संरक्षण और कानूनी सुरक्षा को कैसे प्रभावित करेगा.
क्योंकि यह भारत के वन प्रशासन ढांचे में एक नाटकीय बदलाव का प्रतीक है.
वन संरक्षण संशोधन, वनों की परिभाषा को सीमित करके कई परियोजनाओं के लिए जंगल काटने को अनुमति देता है. इससे सदियों से वन पर आदिवासियों का अधिकार कमज़ोर होता है.
इसके अलावा आदिवासियों को मिली कानूनी सुरक्षा को कमजोर किया जा रहा है. इससे पर्यावरणीय क्षरण, आजीविका की हानि और विस्थापन की कीमत पर कॉर्पोरेट परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है.
सरकार का तर्क है कि ये संशोधन आर्थिक विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देते हैं. लेकिन वे पारिस्थितिक संतुलन, लोकतांत्रिक भागीदारी और संवैधानिक सुरक्षा को भी खतरे में डालते हैं.
ऐसे में आदिवासियों की राय सुनी जानी चाहिए, ग्राम सभा की मंज़ूरियों का सम्मान किया जाना चाहिए और आगे चलकर मुआवज़ा उपायों को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए.
क्योंकि वन पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश और मूल निवासी समुदायों का हाशिए पर जाना सतत विकास की कीमत नहीं हो सकती.