आदिवासी भारत (Tribal India) में मेरी सबसे पसंदीदा जगहों में से एक यहाँ के साप्ताहिक हाट (Weekly Market) हैं. मैं जब भी इन बाज़ारों में जाता हूँ ना जाने क्यों मेरा मन प्रसन्न होता है. ऐसा नहीं है कि मैं कोई भाव विभोर हो जाता हूँ. जब मैं इन बाज़ारों की तारीफ़ करता हूँ तो इसलिए नहीं कि मैं ग्रामीण भारत की बेवजह की महिमा मंडन करता हूँ.
मुझे ग्रामीण भारत के जीवन की कठिनाइयों का अंदाज़ा है. गाँवों में लोग कैसे अभाव में जीते हैं इसको भी मैंने देखा और महसूस किया है. तो फिर क्या है जो मुझे इन आदिवासी हाटों में ख़ास लगता है. क्यों मैं इन आदिवासी हाटों में घटों बिता सकता हूँ.
इसकी वजह शायद इन बाज़ारों में दिखाई देने वाला सामाजिक ताना-बाना है. ये बाज़ार बेहद कम समय में उस ख़ास इलाक़े की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को समझा देते हैं. एक तरफ़ बिकते चाइनीज़ सामान से आपको पता चलता है कि ग्लोबलाइज़ेशन से तो जंगल के आदिवासी हाट भी नहीं बचे हैं.
वहीं आपको आधुनिक बाज़ार की चालाकियाँ भी नज़र आती हैं. आप देखते हैं कि यहाँ पर नमक, तेल और मसालों से लेकर साबुन, क्रीम-पाउडर तक के पाउच छोटे पाउच बिकते हैं. इस बाज़ार में आपको यह भी नज़र आ जाएगा कि कैसे अभी भी खेतीहर, आदिवासी और शिल्पकार समुदाय अपनी-अपनी ज़रूरतों के लिए एक दूसरे पर आश्रित हैं.
इन बाज़ारों में एक और बहुत खूबसूरत चीज़ है यहाँ का भोजन. इन बाज़ारों में आप आदिवासी भारत के खान-पान की आदतों और पसंद का भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है. मसलन दुमका ज़िले के पनन्न हटिया में हमें पता चला कि सुअर का मांस संताल परगना में बड़े चाव से खाया और खिलाया जाता है.
इस बार इस हटिया में हमने तय किया कि हम ख़ुद ही खाना बनाएँगे. हम इस आदिवासी हाट में पहुँच गए. हमारे पास ना बर्तन थे ना ही हमें यह पता था कि हम क्या बनाना चाहते हैं. लेकिन जब हटिया में पहुँच ही गए तो बाक़ी के जुगाड़ भी हो गए.
उसके बाद जो खाना बना उसका जो स्वाद बना उसके सामने 5 सितारा होटल से लेकर शहरों का स्ट्रीट फ़ूड तक सब कमतर होगा. लेकिन सबसे रोमांचक इस खाने को बनाने की विधि थी. विधि के लिए तो आपको यह वीडियो देखना चाहिए, क्योंकि इस विधि को शब्दों में नहीं बताया जा सकता है.