HomeAdivasi Daily50 साल बाद नीलगिरी में बांस पर खिले फूलों से मिलता है...

50 साल बाद नीलगिरी में बांस पर खिले फूलों से मिलता है धान, वैज्ञानिकों को आदिवासियों से ज़्यादा हाथी की चिंता

पर्यावरण के लिए काम करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं का कहना है कि जंगल से बांस के इस बीज को जमा करने से आदिवासियों को रोका जाना चाहिए. उनके अनुसार जिस बीज को आदिवासी चावल की तरह खाते हैं, उस बीज की कमी से जंगल में बांस की कमी हो सकती है. इसका सीधा असर जंगल के जीवों के खाने पर पड़ेगा.

बेलसी की उम्र क़रीब 60 साल है और वो पनिया आदिवासी समुदाय से हैं. जब वो छोटी थीं तब उन्होंने बांस के फूल (Dendrocalamus strictus) से मिलने वाला चावल खाया था. वह याद करती हैं कि उनके बचपन में उनके परिवार के लोग जंगल से बांस के फूल से मिलने वाला धान लाए थे. उसके बाद अब यानि क़रीब 45-50 साल बाद उन्होंने जंगल धान यानि बांस के फूल से मिलने वाले चावल का स्वाद लिया है. 

दरअसल आजकल बांदीपुर और मुदुमलई टाइगर रिज़र्व फ़ॉरेस्ट में बांस में फूल खिले हैं. इन फूलों से एक तरह का धान मिलता है, जिसे आदिवासी जमा करते हैं और खाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. जो आदिवासी इस चावल को खाते हैं उनका कहना है कि इस चावल का स्वाद आम चावल जैसा ही होता है. लेकिन इस चावल की ख़ास बात यह होती है कि इसमें प्रोटीन की मात्रा काफ़ी होती है. 

आजकल मुदुमलई और बांदीपुर टाइगर रिज़र्व में खिले हैं बांस के फूल

जंगल में बांस में फूल आने का कोई निश्चित समय नहीं होता है. किसी भी बांस की उम्र जब 25 से 60 के बीच होती है तो उसमें यह फूल आ सकता है. लेकिन एक बार फूल देने के बाद बांस मर जाता है. दरअसल बांस से मिलने वाला धान इसका बीज होता है, जिससे जंगल में बांस फिर से पैदा होता है. 

बांस में फूल आने के बारे में आदिवासियों में एक धारणा यह भी है कि यह किसी संकट का सूचक है. आदिवासी मानते हैं कि बांस में जब फूल आता है तो यह एक तरह से प्रकृति की चेतावनी होती है कि आने वाले समय में सूखा पड़ सकता है. यही वजह है कि आदिवासी इस धान को जमा कर लेते हैं. 

हालाँकि कृषि वैज्ञानिक और पर्यावरण के जानकार मानते हैं कि बांस में फूल आना सामान्य घटना है. ये वैज्ञानिक फ़िलहाल नीलगिरी के जंगल में बांस में फूल आने को चिंता का कारण नहीं मानते हैं. इन वैज्ञानिकों का कहना है कि बांस की उम्र ख़त्म होने से पहले उसमें फूल आता ही है. इसके बाद इन फूलों से बीज झड़ता है और उससे बांस के नए पौधे उगते हैं. 

25 से 60 के बीच की उम्र के बांस में आता है फूल

पर्यावरण के लिए काम करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं का कहना है कि जंगल से बांस के इस बीज को जमा करने से आदिवासियों को रोका जाना चाहिए. उनके अनुसार जिस बीज को आदिवासी चावल की तरह खाते हैं, उस बीज की कमी से जंगल में बांस की कमी हो सकती है. इसका सीधा असर जंगल के जीवों के खाने पर पड़ेगा.

इन कार्यकर्ताओं का कहना है कि हाथी और कई और जानवर बांस खाते हैं. बांस का होना इन जानवरों के अस्तित्व के लिए बेहद ज़रूरी है. 

इन कार्यकर्ताओं की चिंता जायज़ तो हो सकती है, लेकिन इस चिंता में एक लापरवाही और पक्षपाती नज़रिया भी दिखता है. इन कार्यकर्ताओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि पनिया और कई दूसरे आदिवासी समूह शुरु से हंटर-गैदरर रहे हैं. यानि वो खेती किसानी नहीं जानते, और जंगल से मिलने वाले फल-फूल और शिकार पर ज़िंदा रहे हैं. लेकिन जंगल से ना तो बांस समाप्त हुआ और ना ही जानवर.

हाँ, नीलगिरी की पहाड़ियों के एक समय मालिक रहे आदिवासी ज़रूर आज ग़रीबी और अवसाद से जूझ रहे हैं. क्योंकि इन जंगलों को काट कर ग़ैर आदिवासियों ने चाय बाग़ान लगा दिये हैं. 

ये आदिवासी जो एक समय में जंगल में रहते थे उन्हें स्थायी बस्तियों में बसा तो दिया गया है, लेकिन उनकी जीविका का कोई इंतज़ाम ना तो किया गया है, और ना ही यह गुंजाइश छोड़ी गई है कि वो ख़ुद अपना इंतज़ाम कर सकें. 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments