HomeGround Reportडांग के विस्थापित आदिवासी टैक्स क्यों भरना चाहते हैं ?

डांग के विस्थापित आदिवासी टैक्स क्यों भरना चाहते हैं ?

2009 से 2020 के बीच डांग ज़िले में प्रशासन ने कुल 7341 पट्टों के आवेदन में से सिर्फ़ 3187 दावों को ही स्वीकार किया है. यानि आधे से ज़्यादा दावे ख़ारिज कर दिए गए.

गुजरात के डांग ज़िले में पश्चिमी घाट पर्वतमाला की एक पहाड़ी चोटी पर बसा सापुतारा एक मशहूर हिल स्टेशन है. सापुतारा बेहद ख़ूबसूरत है और यहाँ पर सैलानियों के देखने और महसूस करने के लिए कितने ही नज़ारे हैं. 

सापुतारा का रास्ता ही इतना ख़ूबसूरत है कि किसी का भी मन मोह लेता है. पहाड़, नदियाँ, झरने, जंगल और झील एक एक नज़ारा ऐसा है जिसे बयान करना मुश्किल है. 

अगर आप सापुतारा का मतलब पूछेंगे या ढूँढेंगे तो आपको बताया जाता है कि सापुतारा का मतलब होता है साँपों का घर. लेकिन जो नहीं बताया जाता है कि सापुतारा भील आदिवासियों का घर है, जो शायद सदियों से यहाँ रहते आए हैं. 

सापुतारा झील, यहाँ कभी आदिवासी गाँव था

इसके अलावा यहाँ पर कुनबी और वारली आदिवासी रहते हैं. आज जहां बड़े-बड़े होटल हैं, वहाँ आदिवासियों के गाँव थे. इन गाँवों को विस्थापित करके ही यह हिल स्टेशन बनाया गया था. 

सापुतारा के विस्थापितों के गाँव में हमारी मुलाक़ात यशवंत भाई लक्ष्मण भाई पवार से हुई. यशवंत भाई बताते हैं कि जहां आज सापुतारा झील है वहीं पर कभी उनका गाँव होता था.

साल 1969-70 में सरकार ने सापुतारा को एक हिल स्टेशन बनाने का फ़ैसला किया. इस हिल स्टेशन के लिए उनके गाँव को झील के किनारे से हटा दिया गया और पहाड़ पर नीचे की तरफ़ बसा दिया गया.

वो बताते हैं कि जब गाँव विस्थापित हुआ तो सरकार ने हर परिवार को एक-एक प्लॉट दिया था. लेकिन समय के साथ परिवार बढ़ते गए हैं. फ़िलहाल गाँव में 300 परिवार हैं, और 1700 से ज़्यादा की आबादी है.

सापुतारा में आदिवासी पिछले 17 साल से अपने घरों का मालिकाना हक़ माँग रहे हैं

सापुतारा हिल स्टेशन की स्थापना के लिए जो आदिवासी बेघर हुए उनमें से कई परिवारों को आज तक अपने घरों का मालिकाना हक़ नहीं मिला है.

पिछले 17 साल से ये परिवार इस कोशिश में उलझे हैं कि उन्हें उस ज़मीन का पट्टा कम से कम मिल जाए जिस पर उनके घर बने हैं. 

इस बारे में यशवंत भाई लक्ष्मण भाई बताते हैं कि वो 17 साल से प्रशासन से निवेदन कर रहे हैं कि उन्हें उनके घरों का मालिकाना हक़ दे दिया जाए.

यशवंत भाई लक्ष्मण भाई पवार

उनका कहना है कि अभी उनके पास खेती किसानी तो है नहीं, क्योंकि सरकार ने उनका गाँव और खेत सब अधिग्रहित कर लिया था.

अब नौजवानों के पास रोज़गार का कोई साधन नहीं है. अगर उनके पास घर का मालिकाना हक़ होगा तो वो मकानों का महसूल कर भर सकेंगे. इसके बाद वो इन घरों को गिरवी रख कर बैंक लोन ले सकते हैं. जिससे उनके बच्चे कुछ काम धंधा शुरू कर सकते हैं. 

सापुतारा में सैलानी घूमने आते हैं और उनके मन बहलाने और आराम करने के लिए कई इंतज़ाम यहाँ किए गए हैं. ज़ाहिर है यहाँ के आदिवासियों से जब ज़मीन ली गई होगी तो कुछ वादे तो इन आदिवासियों से भी किए गए होंगे. मसलन उनको रोज़गार मिलेगा, उनकी ज़िंदगी बेहतर बनेगी. 

लेकिन ना तो पहले कभी ऐसा हुआ और ना अब होने की उम्मीद है. यहां के आदिवासी नौजवानों को छोटा-मोटा काम शुरू करने के लिए भी बैंक लोन नहीं मिलता है.

ये आदिवासी अपने घरों का टैक्स भरना चाहते हैं जिससे उन्हें प्रशासन या बैंक घर का मालिक मान ले.

गुजरात का डांग ज़िला क्षेत्रफल के हिसाब से राज्य का सबसे छोटा ज़िला (1764 वर्ग किलोमीटर) है. इस ज़िले में कुल 311 गाँव हैं. यहाँ की लगभग पूरी आबादी आदिवासी है जिसे अनुसूचित जनजातियों की श्रेणी में रखा गया है. 

डांग में कुल आबादी में क़रीब 98 प्रतिशत आदिवासी आबादी है. यहाँ के आदिवासी समूहों में कुनबी (कोंकणी/कोकणी), भील और वारली सबसे बड़े आदिवासी समूह हैं. 

गुजरात का डांग ज़िला आर्थिक तौर पर देश के सबसे अधिक पिछड़े ज़िलों में शुमार है. सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार डांग ज़िले का 77 प्रतिशत से ज़्यादा जंगल है. 

डांग के आदिवासियों के जंगल की ज़मीन पर अधिकार के मामले को सैटल करने की पहली कोशिश 1969-70 में बताई जाती है. उस समय राजस्व विभाग ने डांग में सर्वे कराया था. 

डांग में भील, कोंकणी और वारली आदिवासी रहते हैं

लेकिन उस समय भी सिर्फ़ 12,000 परिवारों को ही ज़मीन का मालिकाना हक़ दिया गया था. बताया जाता है कि 1990 के दशक में अनुसूचित जनजाति आयोग ने इन मामलों का समाधान करने की कोशिश की थी. 

लेकिन उस समय के क़ानूनी प्रावधानों की वजह से तब भी ज़्यादातर आदिवासियों को अपनी ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं मिल सका.

साल 2006 में फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट आया जिसके तहत जंगल पर आदिवासियों और जंगल में रहने वाले दूसरे समुदायों के पारंपरिक अधिकारों को माना गया. 

इस क़ानून से उम्मीद थी कि आदिवासियों के साथ हुए अन्याय को समाप्त किया जा सकेगा. लेकिन डांग में अभी भी हज़ारों आदिवासी परिवार हैं जिन्हें ज़मीन का पट्टा नहीं मिला है. 

सापुतारा के रास्ते में एक नदी

जानकारी के अनुसार 2009 से 2020 के बीच डांग ज़िले में प्रशासन ने कुल 7341 पट्टों के आवेदन में से सिर्फ़ 3187 दावों को ही स्वीकार किया है. यानि आधे से ज़्यादा दावे ख़ारिज कर दिए गए. 

गुजरात में देश के कई दूसरे राज्यों की तरह ही आदिवासियों का विस्थापन और पुनर्वास एक बड़ा मसला है.

सापुतारा में जहां आदिवासी पिछले 17 साल से अपने ही घरों के मालिकाना हक़ पाने की कोशिश में जुटे हैं, वहीं ज़िले के बाक़ी आदिवासियों को वन अधिकार क़ानून के बावजूद ज़मीनों के पट्टे नहीं मिल रहे हैं. 

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