HomeAdivasi Dailyपुण्यतिथि विशेष: आदिवासियों के लिए भगवान क्यों हैं बिरसा मुंडा?

पुण्यतिथि विशेष: आदिवासियों के लिए भगवान क्यों हैं बिरसा मुंडा?

कहते हैं कि बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार इसलिए उठाया क्योंकि आदिवासियों का शोषण हो रहा था. एक तरफ अभाव व गरीबी थी तो दूसरी तरफ इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1882 जिसके कारण जंगल के दावेदार ही जंगल से बेदखल किए जा रहे थे. बिरसा मुंडा ने इसके लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तौर पर विरोध शुरु किया और छापेमार लड़ाई की.

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह करने वाले धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की आज पुण्यतिथि है. मुंडा जनजाति के एक निडर शख्सियत, बिरसा मुंडा ने बंगाल, बिहार और झारखंड की सीमा से लगे क्षेत्रों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था.

बिरसा मुंडा ने बहुत कम उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया था. उन्होंने ये लड़ाई तब शुरू की थी जब वो 25 साल के भी नहीं हुए थे. उनका जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था.

बंगाल प्रेसिडेंसी के रांची जिले के उलीहातू गांव में जन्मे बिरसा के पिता का नाम सुगना मुण्डा और माता का नाम कर्मी हातू था. उनका बचपन गरीबी में बीता था. उन्हें बांसुरी बजाने का बहुत शौक था.

अंग्रेजों को कड़ी चुनौती देने वाले बिरसा सामान्य कद-काठी के व्यक्ति थे. जॉन हॉफ़मैन ने अपनी किताब ‘इनसाइक्लोपीडिया मुंडारिका’ में लिखा था, “उनकी आंखों में बुद्धिमता की चमक थी और उनका रंग आम आदिवासियों की तुलना में कम काला था. बिरसा एक महिला से शादी करना चाहते थे लेकिन जब वो जेल चले गए तो वो महिला उनके प्रति ईमानदार नहीं रही इसलिए बिरसा ने उसे छोड़ दिया.”

ईसाई धर्म अपनाया और फिर छोड़ा

बिरसा मुंडा की प्रारंभिक पढ़ाई सालगा में जयपाल नाग की देखरेख में हुई थी. उन्होंने एक जर्मन मिशन स्कूल में दाख़िला लेने के लिए ईसाई धर्म अपना लिया था.

लेकिन एक वक्त में लगा कि उनके लिए उनकी आदिवासी पहचान ही काफी है तो उन्होंने ईसाई धर्म को छोड़ दिया था. बिरसा मुंडा ने ईसाई धर्म और मिशनरी स्कूल क्यों छोड़ दिया था इस बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं.

लेकिन इन कहानियों की सत्यता को प्रमाणित करना मुश्किल लगता है. लेकिन इतना बिलकुल साफ़ था कि बिरसा मुंडा अपनी आदिवासी पहचान को खोना नहीं चाहते थे.

उन्होंने स्कूल छोड़ दिया क्योंकि उनका समाज कई मसलों से भिड़ रहा था. उसमें सबसे पड़ा मसला था उनकी ज़मीन और स्वशासन की व्यवस्था. अंग्रेज़ आदिवासी इलाकों को भी अपने कब्ज़े में लेने को बेताब थे.

लेकिन आदिवासी किसी भी कीमत पर अपनी ज़मीन नहीं छोडना चाहते थे. आदिवासी लड़ रहे थे, उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी जो उन्हें नेतृत्व दे सके, बिरसा मुंडा में वह क्षमता थी.

आदिवासियों के लिए एक संत

बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जगाना शुरू किया. उन्होंने लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित किया, जिसमें अंग्रेज परंपरागत आदिवासी किसानी की जगह अपना खुद का जमींदारी तंत्र थोपना चाहते थे.

बिरसा के संघर्ष की शुरुआत चाईबासा में हुई थी जहां उन्होंने 1886 से 1890 तक चार वर्ष बिताए. वहीं से अंग्रेज़ों के खिलाफ एक आदिवासी आंदोलन की शुरुआत हुई. इस दौरान उन्होंने एक नारा दिया – “अबूया राज एते जाना/ महारानी राज टुडू जाना” (यानी अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज खत्म हो गया है).

बिरसा मुंडा ने अपने लोगों का आह्वान किया कि वो सरकार को कोई टैक्स न दें. 19वीं सदी के अंत में अंग्रेज़ों की भूमि नीति ने परंपरागत आदिवासी भूमि व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया था.

साहूकारों ने उनकी जमीन पर कब्जा करना शुरू कर दिया था और आदिवासियों को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया गया था. मुंडा लोगों ने एक आंदोलन की शुरुआत की थी जिसे उन्होंने ‘उलगुलान’ का नाम दिया था.

उस समय बिरसा मुंडा राज्य की स्थापना के लिए जोशीले भाषण दिया करते थे. केएस सिंह अपनी किताब ‘बिरसा मुंडा एंड हिज़ मूवमेंट’ में लिखते हैं, “बिरसा अपने में भाषण में कहते थे, डरो मत. मेरा साम्राज्य शुरू हो चुका है. सरकार का राज समाप्त हो चुका है. उनकी बंदूकें लकड़ी में बदल जाएंगी. जो लोग मेरे राज को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं उन्हें रास्ते से हटा दो.”

उन्होंने पुलिस स्टेशनों और जमींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया था. कई जगहों पर ब्रिटिश झंडे यूनियन जैक को उतारकर उसकी जगह सफेद झंडा लगाया जाने लगा जो मुंडा राज का प्रतीक था. अंग्रेज सरकार ने उस समय बिरसा पर 500 रुपए का इनाम रखा था जो उस ज़माने में बड़ी रकम हुआ करती थी.

बिरसा को पहली बार 24 अगस्त 1895 को गिरफ़्तार किया गया था. उनको दो साल की सजा हुई थी. जब दो साल बाद उन्हें छोड़ा गया था तो वो भूमिगत हो गए थे और अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन करने के लिए उन्होंने अपने लोगों के साथ गुप्त बैठकें शुरू कर दी थीं.

सरदार आंदोलन से मिली प्रेरणा

बिरसा मुंडा से कहीं पहले सन् 1858 से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सरदार आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. उसका उद्देश्य था जमीदारों और बँधुआ मज़दूरी को समाप्त करना. उसी दौरान राँची के पास सिलागेन गाँव में बुद्धू भगत ने आदिवासियों को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित किया था.

उन्होंने करीब 50 आदिवासियों को जमा किया था जिनके हाथ में हमेशा तीर कमान हुआ करते थे. उनका नारा था ‘अबुआ दिसोम रे, अबुआ राज’ यानी ये हमारा देश है और हम इस पर राज करेंगे. जब भी कोई ज़मींदार या पुलिस अफसर लोगों पर ज़्यादती करता पाया जाता था, बुद्धू अपने दल के साथ पहुंच कर उसके घर पर हमला बोल देते थे.

बताया जाता है कि दस गोलियाँ लगने के बावजूद बुद्धू ने मरते-मरते कहा, “आज तुम्हारी जीत हुई है लेकिन ये तो अभी शुरुआत है. एक दिन हमारा ‘उलगुलान’ तुम्हें हमारी ज़मीन से बाहर फेंक देगा.”

सन् 1900 आते-आते बिरसा का संघर्ष छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था. सन 1899 में उन्हें अपने संघर्ष को और विस्तार दे दिया था. उसी साल 89 जमीदारों के घरों में आग लगाई गई थी. आदिवासी विद्रोह इतना बढ़ गया था कि राँची के जिला कलेक्टर को सेना की मदद मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा था. डोम्बारी पहाड़ी पर सेना और आदिवासियों की भिड़ंत हुई थी.

इस गोलीबारी के दौरान बिरसा भी वहां मौजूद थे लेकिन वो किसी तरह वहां से बच निकलने में कामयाब हो गए. कहा जाता है कि इस गोलीबारी में करीब 400 आदिवासी मारे गए थे, लेकिन अंग्रेज पुलिस ने सिर्फ 11 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी.

बिरसा को पकड़ा गया

तीन मार्च को अंग्रेज पुलिस ने चक्रधरपुर के पास एक गाँव को घेर लिया था. बिरसा के नजदीकी साथियों कोमटा, भरमी और मौएना को गिरफ़्तार कर लिया गया था. लेकिन बिरसा का कहीं अता-पता नहीं था.

तभी एसपी रोश को एक झोंपड़ी दिखाई दी थी. रोश ने अपने सिपाही को बिरसा को हथकड़ी पहनाने का आदेश दिया. ये वो शख़्स था जिसने इस इलाके में अंग्रेज़ सरकार की नींव हिला कर रख दी थी.

बिरसा को दूसरे रास्ते से राँची ले जाया गया ताकि लोगों को पता न चल सके कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया है. लेकिन जब बिरसा राँची जेल पहुंचे तो हज़ारों लोग उनकी एक झलक पाने के लिए वहाँ पहले से ही मौजूद थे.

जेल में हुई मौत

जेल में बिरसा को एकांत में रखा गया. तीन महीने तक उन्हें किसी से मिलने नहीं दिया गया. सिर्फ एक घंटे के लिए रोज उन्हें सूरज की रोशनी पाने के लिए अपनी कोठरी से बाहर निकाला जाता था.

एक दिन बिरसा जब सोकर उठे तो उन्हें तेज़ बुख़ार और पूरे शरीर में भयानक दर्द था. उनका गला भी इतना ख़राब हो चुका था कि उनके लिए एक घूंट पानी पीना भी असंभव हो गया था. कुछ दिनों में उन्हें ख़ून की उल्टियां शुरू हो गई थीं. 9 जून, 1900 को बिरसा ने सुबह 9 बजे दम तोड़ दिया.

अपने अंतिम क्षणों में बिरसा कुछ पलों के लिए होश में आए. उनके मुंह से शब्द निकले, ‘मैं सिर्फ़ एक शरीर नहीं हूँ. मैं मर नहीं सकता. उलगुलान (आंदोलन) जारी रहेगा.’

बिरसा की मृत्यु के साथ ही मुंडा आंदोलन शिथिल पड़ गया था, लेकिन उनकी मौत के आठ साल बाद अंग्रेज़ सरकार ने ‘छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट’ पारित किया जिसमें प्रावधान था कि आदिवासियों की भूमि को ग़ैर-आदिवासी नहीं ख़रीद नहीं सकते.

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