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चिंतन में डूबी बीजेपी के पास आदिवासियों के साथ खड़ा होने का नैतिक बल नहीं है

आदिवासियों में सरकार के प्रति नाराज़गी को बीजेपी ज़रूर इस्तेमाल करना चाहेगी. क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 15 सीटों पर सिमट गई. लेकिन जिन मसलों पर आदिवासी नाराज़ नज़र आते हैं, उन मसलों पर आदिवासियों के साथ खड़े होने का नैतिक बल बीजेपी के पास नहीं है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री के नेतृत्व में बीजेपी चुनाव मशीन बन चुकी है. कहा जाता है कि पार्टी अब चुनाव आने का इंतज़ार नहीं करती है. राष्ट्रीय स्तर पर शुरू हुई यह परिपाटी अब राज्यों में भी लागू हो चुकी है. 

मध्य प्रदेश में पार्टी हारने के बाद भी कांग्रेस में सेंध लगा कर पिछले दरवाज़े से सत्ता में प्रवेश कर गई. लेकिन छत्तीसगढ़ में पार्टी की हार काफ़ी बड़ी थी. दोनों ही राज्यों में बीजेपी की हार की बड़ी वजह आदिवासियों का विश्वास खोना रहा है. 

अब इन दोनों ही राज्यों में पार्टी ने आदिवासी आबादी को ध्यान में रख कर चुनाव की योजना बनानी शुरू कर दी है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी आदिवासियों पर फ़ोकस कर रही है. 

छत्तीसगढ़ में 2023 विधानसभा चुनाव  होंगे. लेकिन बीजेपी ने आदिवासी वोटर को अपनी तरफ़ मोड़ने के प्रयास शुरू कर दिए हैं. इस सिलसिले में अब बस्तर के बाद सरगुजा में चिंतन शिविर की तैयारी हो रही है. किसी भी राजनीतिक दल के लिए छत्तीसगढ़ की सत्ता में पहुँचने के लिए आदिवासियों की भूमिका अहम होती है.

 प्रदेश की एक तिहाई आबादी राज्य की एक तिहाई विधानसभा सीटों पर आदिवासी आबादी मायने रखती है. 

राज्य में कांग्रेस की सरकार ने आदिवासी इलाक़ों में कम से कम छोटी-बड़ी 20 से ज्यादा योजनाएं लागू की हैं. लेकिन इसके वाबजूद बस्तर से लेकर सरगुजा तक कई मसलों को लेकर आदिवासी समाज सरकार से कुछ नाराज़ भी है. 

बस्तर के सिलगेर में सुरक्षाबलों की फ़ायरिंग में मारे गए आदिवासियों के मसले पर राज्य सरकार की मंशा और नीति पर सवाल उठने लाज़मी हैं. इसके अलावा सरगुजा के परसा कोल ब्लॉक के अलॉटमेंट को लेकर विरोध जारी है.

छत्तीसगढ़ की एक तिहाई सीटों पर आदिवासी आबादी मायने रखती है

वहीं, लेमरू एलीफेंट रिजर्व एरिया में विस्थापन का मुद्दा हो या फिर बस्तर में बोधघाट परियोजना और बैलाडीला के नंदीमाइंस का मुद्दा, आदिवासी समाज में नाराज़गी है.  

इस नाराज़गी के बीच राज्य सरकार लगातार आदिवासियों का विश्वास जीतने की कोशिश में लगी है . छत्तीसगढ़ सरकार ने आदिवासियों के हक़ में कई फ़ैसले लिए हैं. मसलन जंगल से मिलने वाले फल, फूल, पत्तों और औषधियों में कुल 52  लघु वन उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य में खरीदा जा रहा है. 

स्थानीय लोगों को भर्ती में प्राथमिकता के लिए कनिष्ठ चयन आयोग का गठन किया गया है.  तेंदू पत्ता जमा करने वालों को अब 4000 हजार रुपए प्रति मानक बोरा दिया जा रहा है. ऐसी लगभग 20 से अधिक छोटी बड़ी योजनाएं शुरु की गई हैं.

छत्तीसगढ़ में कई मसलों पर आदिवासी सरकार से नाराज़ भी हैं

बेशक छत्तीसगढ़ सरकार के पास आदिवासियों के लिए किए गए कामों के बारे में कुछ कहने के लिए है. भूपेश बघेल की सरकार बनने के बाद लोहांडीगुड़ा में आदिवासियों की 42 सौ एकड़ जमीन वापसी कराकर बड़ा काम किया गया है. 

लेकिन यह भी सच है कि सरकार पर आरोप लग रहा है कि उसने विपक्ष में रहते हुए जो वायदे किये थे, उन्हें भूल गई है. ख़ासतौर से भूमि अधिग्रहण और माइनिंग के मामले में बड़े कॉरपोरेट घरानों से समझौते के आरोप सरकार पर हैं. 

आदिवासियों में सरकार के प्रति नाराज़गी को बीजेपी ज़रूर इस्तेमाल करना चाहेगी. क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 15 सीटों पर सिमट गई. लेकिन जिन मसलों पर आदिवासी नाराज़ नज़र आते हैं, उन मसलों पर आदिवासियों के साथ खड़े होने का नैतिक बल बीजेपी के पास नहीं है.

क्योंकि चाहे वो सिलगेर हो या फिर सरगुजा में माइनिंग का मसला, सवाल अगर भूपेश बघेल सरकार से पूछा जाएगा तो उँगली केन्द्र सरकार की तरफ़ भी उठेगी.


राज्य में बीजेपी के पास फ़िलहाल सिर्फ़ दो आदिवासी विधायक हैं. बस्तर और सरगुजा में भाजपा के पास एक भी विधायक नहीं हैं. राज्य बनने के बाद भाजपा ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 23 सीटें जीती थीं. 2008 में 19 और 2013 में 11 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन 2018 में कांग्रेस ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 में से 25 सीटों पर जीत दर्ज की.

ज़ाहिर है बीजेपी के लिए आदिवासी वोट कैसे पाया जाए यह चिंतन का विषय ज़रूर है

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