HomeAdivasi Dailyचंपई सोरेन भी डीलिस्टिंग की मांग करने वालों में शामिल हुए

चंपई सोरेन भी डीलिस्टिंग की मांग करने वालों में शामिल हुए

चंपई सोरेन ने कहा कि आदिवासी समाज के जो लोग धर्म बदल लेते हैं, उन्हें आरक्षण की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए. साथ ही अगर आदिवासी महिलाएं गैर-आदिवासी पुरुषों से शादी करती हैं, उन्हें भी आरक्षण की सुविधा नहीं दी जानी चाहिए.

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने मांग की कि अन्य धर्म अपनाने वाले आदिवासियों को आरक्षण सुविधा से बाहर रखा जाए.

उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासी समुदाय से बाहर विवाह करने वाली आदिवासी महिलाओं को आरक्षण सुविधा से बाहर रखा जाना चाहिए.

बोकारो जिले के बालीडीह जाहेरगढ़ में गुरुवार को आयोजित सरहुल मिलन समारोह को संबोधित करते हुए सोरेन ने अन्य धर्म अपनाने वाले आदिवासियों या आदिवासी समुदाय से बाहर विवाह करने वाली आदिवासी महिलाओं को आरक्षण सुविधा दिए जाने का कड़ा विरोध किया.

सोरेन ने आदिवासी समुदाय से जागने का आह्वान करते हुए कहा कि अगर जल्द ही ऐसे आदिवासियों को सूची से बाहर नहीं किया गया तो आदिवासियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा.

उन्होंने ‘जहेरगढ़’ (आदिवासियों का पूजा स्थल) में माथा टेक कर उपस्थित जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा, “अगर हम अभी नींद से नहीं जागे तो हमारे जहेरस्थान, सरना स्थल और देशावली (सभी पवित्र पूजा स्थल) में प्रार्थना करने के लिए समुदाय में कोई नहीं बचेगा.”

संताल परगना में मौजूदा स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए पूर्व सीएम ने कहा कि आदिवासी समुदाय दो तरफ से खामियाजा भुगत रहा है.

उन्होंने दावा किया कि एक तरफ आरक्षित सीटों पर धर्म परिवर्तन करने वाले आदिवासी कब्जा कर रहे हैं, वहीं बांग्लादेशी घुसपैठिए न केवल हमारी जमीन हड़प रहे हैं, बल्कि आदिवासी महिलाओं से शादी करके हमारे सामाजिक ताने-बाने को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं.

सोरेन ने आरोप लगाया कि बाद में ये घुसपैठिये स्थानीय निकाय चुनावों में उन्हीं आदिवासी महिलाओं को मैदान में उतारकर संविधान द्वारा दिए गए आरक्षण का पिछले दरवाजे से अतिक्रमण कर लेते हैं. उन्होंने ऐसी प्रथाओं को रोकने की आवश्यकता पर बल दिया.

महान आदिवासी नेता कार्तिक उरांव के कदम को याद करते हुए, जिन्होंने 1967 में संसद में डीलिस्टिंग बिल पेश किया था, जिसे बाद में संसदीय समिति को भेज दिया गया था. उन्होंने कहा कि समिति ने भी माना था कि आदिवासी समुदाय के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए डीलिस्टिंग आवश्यक है.

सोरेन ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने 1961 में सरना धर्म कोड को डीलिस्ट कर दिया था. उन्होंने युवाओं से ‘उलगुलान’ (क्रांति) के लिए कमर कसने का आह्वान किया.

उनका कहना है कि अब बदलाव लाने का समय आ गया है. सरना धर्म कोड आदिवासियों का एक धार्मिक पहचान कोड था, जिसे सरकार ने मान्यता दी थी. इसे हटाने से आदिवासियों को अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखने में मुश्किल हुई.

कोल्हान के विभिन्न क्षेत्रों में धर्मांतरण कर चुके दर्जनों लोगों ने पिछले हफ्ते ही आदिवासी समाज में घर वापसी की है और सैकड़ों लोगों ने घर वापसी की इच्छा जताई है.

उन्होंने कहा कि लगातार चल रही इन सभाओं के बाद, संथाल परगना में 10 लाख आदिवासियों का एक महाजुटान होगा, जहां से आदिवासी समाज की इन मांगों को केंद्र सरकार तक पहुंचाया जाएगा.

चंपई सोरेन का यह बयान आदिवासी समुदाय में एक नई बहस को जन्म दे सकता है. देखना होगा कि इस पर आगे क्या होता है.

डिलिस्टिंग और आदिवासी

झारखंड में पिछले काफी वक्त से प्रमुख मुद्दों में से एक आदिवासियों के सामने मौजूद पहचान का संकट है.

पिछले साल हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में भी ये मुद्दा छाया रहा था. बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों की घुसपैठ को रोकने का वादा करके इस मुद्दे को उठाया है. हालांकि, यह कोई नई बहस नहीं है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से प्रेरित संगठन अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम (ABVKA) 1952 में अपनी स्थापना के बाद से ही इस मुद्दे को उठाता रहा है और इसके समाधान के लिए जमीनी स्तर पर काम करता रहा है.

बांग्लादेशी प्रवासियों के अवैध प्रवास के अलावा आदिवासी इलाकों में मिशनरियों द्वारा सुनियोजित तरीके से आदिवासियों का मुख्य रूप से ईसाई धर्म में धर्मांतरण भी एक बड़ी चुनौती है.

2006 में ABVKA की प्रेरणा से शुरू किया गया जनजातीय सुरक्षा मंच (JSM) एक उच्च-प्रभाव वाला संगठन है. जिसने इस मुद्दे पर आदिवासियों को संगठित करने में एक शानदार भूमिका निभाई है.

झारखंड उन प्रमुख राज्यों में से एक है जहां JSM ने 2006 से आदिवासी इलाकों में दर्जनों सार्वजनिक रैलियां और बैठकें की हैं.

पिछले चार-पांच वर्षों में इसने आदिवासियों को एक प्रमुख मांग के इर्द-गिर्द लामबंद करने के लिए नए सिरे से प्रयास किया है. उन आदिवासियों को ST श्रेणी से बाहर करना जिन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया है.

JSM आम तौर पर कैडर-आधारित संगठन की तरह है. इसके पदाधिकारी मुख्य रूप से आदिवासी हैं. इनका दावा है कि इसके कैडर आदिवासी क्षेत्रों के दूरदराज के इलाकों में मीलों पैदल चलते हैं और अपने स्थानीय संसाधनों की मदद से सबसे गरीब आदिवासियों से जुड़ते हैं.

वे उनकी भाषा में बात करते हैं, उनके साथ खाना खाते हैं, उनके साथ समय बिताते हैं और उनकी पहचान से जुड़े प्रमुख मुद्दों को समझाते हैं.

जेएसएम ने पिछले कुछ सालों में करीब 200 जनसभाएं की हैं. इनमें से 19 राज्य स्तरीय रैलियां थीं, जबकि बाकी मुख्य रूप से जिला और मंडल स्तर पर जनसभाएं थीं.

झारखंड में दो राज्य स्तरीय बैठकें और दर्जनों छोटी जनसभाएं हुई हैं.

जेएसएम एक गैर-राजनीतिक मंच है. हालांकि, इसकी गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रभाव भी है.

दिसंबर 2023 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में अपने मजबूत प्रदर्शन के कारण भाजपा सत्ता में आई. जबकि 2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 90 सीटों वाली विधानसभा में एसटी के लिए आरक्षित 25 में से तीन सीटें जीती थीं.

वहीं 2019 लोकसभा चुनाव में इसने इनमें से 17 सीटें जीतीं. जेएसएम छत्तीसगढ़ में भी काफी सक्रिय रहा है.

एक अनसुलझा मुद्दा

आदिवासी नेता कार्तिक उरांव ने 1960 के दशक में धर्मांतरित आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर करवाने के लिए प्रयास किए थे. ये प्रयास 1970 के दशक में भी जारी रहे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

तीन बार लोकसभा सांसद रहे उरांव द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के मुताबिक, संवैधानिक अधिकारों के लाभार्थियों में से कई धर्मांतरित जनजातियाँ थीं. सैद्धांतिक रूप से एक बार जब कोई व्यक्ति ईसाई धर्म अपना लेता है, तो संबंधित व्यक्ति को एकेश्वरवादी होने और अन्य देवी-देवताओं की पूजा न करने की शपथ लेनी होती है.

इसका मतलब यह है कि अनुसूचित जनजाति समुदायों के धर्मांतरित व्यक्ति अपने पारंपरिक देवी-देवताओं की पूजा करना बंद कर देते हैं और वे अपनी पारंपरिक परंपराओं और जीवन शैली को भी त्याग देते हैं.

दिए गए परिदृश्य में सवाल उठता है कि उसे आदिवासी कैसे कहा जा सकता है?

अगर कोई व्यक्ति ईसाई धर्म अपना लेता है, तो उसे आदिवासी लोगों के लिए निर्धारित अधिकार और लाभ क्यों मिलने चाहिए? इसलिए, धर्मांतरित व्यक्तियों को आदिवासी समुदायों के लिए प्रदान किए गए संवैधानिक सुरक्षा उपायों से हटाया जाना चाहिए, जो अनिवार्य रूप से उनके पारंपरिक लोकाचार, संस्कृति, पहचान और आजीविका की सुरक्षा के लिए हैं.

इसी बात को कार्तिक उरांव ने संसद में भी जोर-शोर से उठाया था. उनके प्रयासों से वर्ष 1968 में एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन हुआ. जिसमें लोकसभा के 22 और राज्यसभा के 11 सांसद शामिल थे। कार्तिक उरांव खुद इस समिति के सदस्यों में से एक थे.

समिति की 22 बैठकें हुईं और 17 नवंबर 1969 को इसने संसद में एक रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट में अन्य बातों के अलावा एक महत्वपूर्ण सिफारिश की गई थी, “धारा 2 के 2ए के मुताबिक अगर कोई व्यक्ति अपनी परंपरा, संस्कृति को छोड़कर इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाता है, तो उसे अनुसूचित जनजाति का हिस्सा नहीं माना जाएगा.”

हालांकि, इस रिपोर्ट पर कभी अमल नहीं हुआ.

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