हैदराबाद के माधापुर में चल रहे स्टेट आर्ट गैलरी ‘आद्या कला: तेलंगाना जातीय कला प्रदर्शनी’ में एक संगीतमय कहानी सेशन दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता है. जैसे ही 71 साल के जयधीर थिरुमाला राव एक आदिवासी ताल वाद्य यंत्र पर धीरे-धीरे थाप देते हैं, जो धीरे धीरे गति पकड़ती है और ध्वनि पूरी गैलरी में गूंजती है.
यहां पर प्रदर्शित की गई खोन नामक धनुष के साथ बजाया जाने वाला एक दुर्लभ गोंड वाद्य किकरी हर किसी का ध्यान अपनी ओर खिंचता है. थिरुमाला राव और उनके सहयोगी, गुडुरु मनोजा की मूल ध्वनि नामक लिखी किताब में किकरी बनाने की प्रक्रिया को समझाया गया है.
इसको बनाने की प्रक्रिया एक पेड़ के तने में ड्रिल से छेद करके और इसे बकरी की खाल से ढककर एक चौकोर आकार का गुंजयमान यंत्र बनाने से शुरू होती है. फिर इसमें बांस का एक टुकड़ा लगा दिया जाता है और लकड़ी की छड़ें तीन छेदों में लगाई जाती हैं जो पूतिलु कहलाती हैं. वाद्य यंत्र के दो भागों के बीच यह सामंजस्य संगीत का एक अद्भुत प्रवाह बनाता है.
यहां पर देखा जा सकता है एक संगीत वाद्ययंत्र रुंजा, जो तेलंगाना में विश्वकर्मा समुदाय द्वारा बजाया जाने वाला एक स्वदेशी ताल वाद्य है. इस प्रदर्शनी में आने वाले लोग प्राचीन जनजातीय कलाओं को देखकर खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर सकते है.
इस प्रदर्शनी को चार भागों में बांटा गया है – आदि अक्षरम, आदि ध्वनि, आदि चित्रम और आदिवासी धातु कलाकृति (डोकरा काम). इस प्रदर्शनी में चार दशकों से हैदराबाद के पोट्टी श्रीरामुलु तेलुगु विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर थिरुमाला राव द्वारा एकत्र की गई 2,000 से अधिक कलाकृतियाँ शामिल हैं.
यहां तक कि एक शोध छात्र के रूप में, उनके प्रोफेसर बी रामा राजू द्वारा प्रोत्साहित किया गया था, वे आदिवासी समुदायों, परंपराओं, रीति-रिवाजों और उपकरणों की ओर आकर्षित हुए थे.
इस प्रदर्शनी में सभी कलाकृतियां पूर्व प्रोफेसर थिरुमाला राव के निजी संग्रह से हैं. वो कलाकारों, शोधकर्ताओं और लेखकों की एक टीम के साथ भी काम करते हैं. इसका मक़सद समाज को उन जनजातियों के बारे में जानकारी देना है जिनके बारे में बहुत कम ही लोग जानते हैं.
संगीत और नृत्य ने आदिवासी जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जो इस प्रदर्शनी के माध्यम से संगीत वाद्ययंत्रों को देखकर पता चलता है. थिरुमाला राव ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि ज्यादातर वाद्ययंत्र – हवा, ताल, तार, लकड़ी, पीतल, बांस, लौकी के साथ-साथ जानवरों की खाल और सींग से बनाए गए हैं.
समृद्ध संगीत परंपराओं को आदिवासियों के समूहों, उप-जातियों और उप-संप्रदायों द्वारा संरक्षित की जाती है. पलामुरु विश्वविद्यालय के अंग्रेजी प्रोफेसर गुडुरु मनोजा कहते हैं, “हमें इस विरासत को दस्तावेज और संरक्षित करने की जरूरत है, लेकिन लोक कलाकारों को भी एक स्थायी आजीविका की जरूरत है.”
थिरुमाला राव इस बात से खुश हैं कि प्रदर्शनी युवाओं को अलग-अलग जनजातियों के अद्वितीय इतिहास, संस्कृति और कला से अवगत करा सकती है. वो कलाकृतियों के संरक्षण के बारे में चिंतित हैं.
वो कहते हैं कि हमारे पास इस खजाने की रक्षा के लिए जगह नहीं है. उनके दोस्तों को उम्मीद है कि यह प्रयास स्थायी जातीय कला संग्रहालय के माध्यम से जारी रहेगा.
वहीं गुडुरु मनोजा कहते हैं कि जब तक सरकार और समाज लंबे समय तक आदिवासियों की इस धरोहर को संरक्षित करने की कोशिश नहीं करते हैं, तब तक ये शिल्प मर जाएंगे.