HomeAdivasi Daily'ग्लोबल वार्मिंग' आदिवासियों के जबरन विस्थापन का परिणाम है

‘ग्लोबल वार्मिंग’ आदिवासियों के जबरन विस्थापन का परिणाम है

आदिवासियों की जीवन शैली प्रकृति से विकसित हुई और उनके वन जीवन के इर्द-गिर्द घूमती रही. उन्होंने प्रकृति से सीखा, प्रकृति के मुताबिक अपने जीवन को अनुकूलित किया और बदले में उसकी रक्षा की.

“आदिवासी समुदाय जंगल के फूलों और जीव-जंतुओं को अपना पूज्य देवता मानते थे. वे जंगल और उसके वनस्पतियों और जीवों को बचाने के लिए अपनी जान देने से पहले दो बार नहीं सोचते. वास्तव में बचाव और संरक्षण का यह कर्तव्य समुदाय के बीच विभाजित है और विभिन्न समूहों को आवंटित किया जाता है, जिन्होंने इस तरह के दैवीय जिम्मेदारियों से अपने उपनाम प्राप्त किए हैं.” आदिवासी कार्यकर्ता दिनेश शेरम कहते हैं.

आरटीएम नागपुर विश्वविद्यालय के प्रबंधन परिषद के सदस्य भी हैं और आदिवासी संगठन से भी जुड़े हैं. उन्होंने बदलते जलवायु पैटर्न, ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण के बिगड़ने पर गंभीर चिंता व्यक्त की. उन्होंने प्रकृति, जलवायु और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव के लिए आदिवासियों के जबरन विस्थापन को जिम्मेदार ठहराया है.

वो अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि आदिवासी समुदायों में जंगल और जीव जंतुओं के संरक्षण की ज़िम्मेदारी तय है. वो बताते हैं, “’यति’ उपनाम वाले परिवार बकरियों की रक्षा करेंगे, उइके (अर्थात् बाघ की कील) बड़ी बिल्लियों की रक्षा करेंगे, मडवी (अर्थात् सागवान का पेड़) पेड़ों की रक्षा करेंगे. इसी तरह ऐसे 750 उपनाम हैं जिन पर किसी जानवर, पक्षी या किसी प्रकार के पेड़ को बचाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है.”

वो कहते हैं कि इस तरह एक समुदाय के रूप में आदिवासी प्रकृति के विभिन्न पहलुओं को संतुलित करना जानते थे. वे प्रकृति को बचाने के लिए अपने मूल कौशल और शुद्ध विवेक का इस्तेमाल करेंगे जो सीधे तौर पर जलवायु पैटर्न को नियंत्रित और प्रभावित करेगा.

इसके विपरीत अब जो हो रहा है, उसके साथ अशांत अप्रत्याशित चक्रों के कारण देरी से बारिश, लंबी गर्मी और अनिश्चित मौसम की स्थिति होती है.

एक इंटरव्यू में उन्होंने यह बातें कही हैं. वो मानते हैं कि धरती पर फलने-फूलने वाला पहला समुदाय आदिवासी था. वे जंगल के मूल निवासी हैं, जो कभी कुछ शुष्क क्षेत्रों को छोड़कर लगभग सभी भूमि को घेर लेते थे.

आदिवासियों की जीवन शैली प्रकृति से विकसित हुई और उनके वन जीवन के इर्द-गिर्द घूमती रही. उन्होंने प्रकृति से सीखा, प्रकृति के मुताबिक अपने जीवन को अनुकूलित किया और बदले में उसकी रक्षा की.

आदिवासी ने देखा कि कैसे एक हिरण ने सांप के जहर को बेअसर करने के लिए एक पेड़ के एक विशेष पत्ते को खा लिया. उन्होंने बाघ से यह भी सीखा कि कैसे बांस के पत्तों का सेवन करके अपने पेट की बीमारियों को ठीक किया जा सकता है.

इसलिए, उन्होंने प्रकृति का सम्मान करना और उसकी पूजा करना शुरू कर दिया. इस तरह वे धरती और उनकी गोद में प्रकृति के रक्षक बन गए थे.

इस इंटरव्यू में वो आगे कहते हैं, “आदिवासी समुदाय की स्थिति के बिगड़ने की शुरुआत अंग्रेजों से हुई जिन्होंने सबसे पहले जंगलों, उनके समृद्ध संसाधनों को निशाना बनाया और उन्हें लूटना शुरू कर दिया था. बिरसा मुंडा जैसे आदिवासी ने अकेले दम पर उनका विरोध किया और लड़ाई लड़ी. झारखंड में हजारों आदिवासियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से ‘जल जंगल जमीन’ को बचाने के लिए सालों पहले अपनी जान दे दी थी.”

दिनेश शेरम कहते हैं कि वन और वन भूमि पर आज के कानून कहीं भी आदिवासियों और उनके प्राकृतिक अधिकारों के प्रति सहानुभूति नहीं रखते हैं. इसलिए, जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग दो सबसे बड़ी कीमत हैं जो आज हम आदिवासी को उनकी वन भूमि से विस्थापित करने के लिए चुका रहे हैं.

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