महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले के आदिवासी-बहुल मेलघाट में कुपोषण के कई मामले सामने आए हैं. इंटिग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट (ITDP) के आंकड़ों का गहराई से विश्लेषण करने पर पता चला है कि पिछले दो सालों में मार्च के महीने में कुपोषित बच्चों की संख्या बढ़ जाती है.
मेलघाट में जिले के दूसरे सभी इलाक़ों की तुलना में कुपोषित बच्चों की संख्या ज़्यादा है. जून के बाद यह संख्या कम हो जाती है, और अगले साल मार्च में फिर से बढ़ोत्तरी होने लगती है.
मेलघाट के आदिवासी इलाक़ों के बच्चों के लिए राज्य सरकार ने कुपोषण से निपटने के लिए कई योजनाएं बनाई हैं. इन योजनाओं के तहत बच्चों को अंडे, टेक-होम राशन और दूसरा पौष्टिक भोजन दिया जाता है.
विश्लेषण से यह भी पता चला कि कुपोषित बच्चों की संख्या में बढ़ोत्तरी होली के आसपास होती है, जब मज़दूरी के लिए पलायन करने वाले परिवार अपने गांवों को लौटते हैं.
इससे एक बात साफ़ हो जाती है कि हर साल जिन बच्चों की पहचान कुपोषित के रूप में कर, उन्हें पौष्टिक भोजन दिया जाता है, वो पलायन के बाद इस योजना का फ़ायदा खो देते हैं.
आईटीडीपी की प्रोजेक्ट ऑफ़िसर डॉ मिताली सेठी, जिन्होंने आंकड़ों का अध्ययन किया है, उन्होंने पाया है कि खरीफ़ फसलों की कटाई के बाद, कई परिवार पास वाले अकोला ज़िले की अकोट तालुक में ईंट भट्टों में काम के लिए पलायन करते हैं.
जब ईंट भट्टा मालिकों से माता-पिता के साथ पलायन करने वाले बच्चों की संख्या के बारे में पूछताछ की गई तो पता चला कि वयस्कों की गिनती रखी जाती है, लेकिन बच्चों की कोई गिनती नहीं करता.
इन हालात में जो बच्चे अलग-अलग कल्याणकारी योजनाओं के दायरे में थे, जब उनके माता-पिता पलायन करते हैं, तो वो इससे बाहर हो जाते हैं.
अकसर कोई योजना बनाते वक़्त अंतर-राज्यीय पलायन को ध्यान में नहीं रखा जाता. जब परिवार पलायन करते हैं तो ज़ाहिर तौर पर बच्चे भी साथ जाते हैं, और इससे बच्चों के लिए एक बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है.
डॉ सेठी ने इस मुस्किल के हल के रूप में कहा है कि जब लोग पलायन करते हैं, तो उन्हें अलग-अलग योजनाओं के तहत मिलने वाले फ़ायदे भी पोर्टेबल होने चाहिएं.
मसलन, अकोला के बाल विकास परियोजना अधिकारियों ने प्रवासी बच्चों के लिए विशेष आपूर्ति करने में बेबसी ज़ाहिर की है, क्योंकि व्यवस्था उन्हें इसकी अनुमति नहीं देती.
डॉ सेठी ने एक अखबार को बताया कि ऐसे बच्चों को ट्रैक करने के लिए नीति-स्तरीय हस्तक्षेप की ज़रूरत है.
गन्ना कटाई करने वाले आदिवासियों के बच्चे, जो अपने माता-पिता के साथ मराठवाड़ा या उत्तरी महाराष्ट्र से पश्चिमी महाराष्ट्र के खेतों में गन्ना काटने के लिए पलायन करते हैं, उनका भी यही हाल होता है.
यह सुनिश्चित करने के लिए कि हर ज़रूरतमंद बच्चे को योजनाओं का फ़ायदा मिले, इन योजनाओं के लिए अंतर-विभागीय समन्वय की ज़रूरत होगी. कई मामलों में इसके लिए बजट एलोकेशन को बी शिफ़्ट करना होगा.
इस मामले को सुलझाने के लिए राज्य सरकार ने जून में एक उच्च-स्तीरय समिति का गठन किया था.
एकीकृत बाल विकास योजना ( Integrated Child Development Scheme – ICDS) के आयुक्त इंद्र मल्लो की अध्यक्षता में यह समिति पात्रता यानि entitlement की पोर्टेबिलिटी सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र बनाना चाहती है.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानि पीडीएस से मुफ्त अनाज पाने के हकदार परिवार भी अक्सर बलायन करने पर इसका लाभ नहीं पाते. राशन कार्ड गाँव में छोड़ दिया जाता है और जो पीछे रह जाते हैं वो राशन लेते हैं. भाषा की भी एक बड़ी दिक्कत है.