HomeAdivasi Dailyकर्नाटक में SC/ST आरक्षण बढ़ाने पर राजनीतिक बहस और चुनौती

कर्नाटक में SC/ST आरक्षण बढ़ाने पर राजनीतिक बहस और चुनौती

कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि रिपोर्ट सौंपे दो साल तीन महीने हो चुके हैं और बाद में सत्ता में आई बीजेपी सरकार ने अब तक इसे न तो स्वीकार किया है और न ही लागू किया है. इसलिए, समुदाय विरोध कर रहे हैं, विशेष रूप से 'वाल्मीकि' (एसटी) जो पिछले कुछ समय से धरने पर हैं.

कर्नाटक में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण बढ़ाने पर राजनीतिक बहस बढ़ रही है. सरकार भी इस मामले को नज़रअंदाज़ नहीं कर रही है.

मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई इस मसले पर चर्चा के लिए आज सर्वदलीय बैठक कर रहे हैं. कर्नाटक में जस्टिस एच एन नागमोहन दास आयोग की रिपोर्ट में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण कोटा 15 फीसदी से बढ़ाकर 17 फीसदी और अनुसूचित जनजाति के लिए 3 फीसदी से बढ़ाकर 7.5 फीसदी करने की सिफारिश की गई थी.

कर्नाटक में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने गुरुवार को भारतीय जनता पार्टी पर अनुसूचित जाति और जनजाति के हितों का विरोधी होने का आरोप लगाया. पार्टी ने कर्नाटक में इन वर्गों के लिए आरक्षण को बढ़ाने की अनुशंसा करने वाली रिपोर्ट को लागू करने की मांग की.

जस्टिस एचएन नागमोहन दास आयोग का गठन कर्नाटक की कांग्रेस सरकार द्वारा नवंबर 2019 में किया गया था. जस्टिस दास की अध्यक्षता वाले पैनल ने जुलाई 2020 में सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. कानूनी विशेषज्ञों, विचारकों, राजनीतिक प्रतिनिधियों और समुदाय के नेताओं से परामर्श कर आयोग ने एससी/एसटी आरक्षण को बढ़ाने को लेकर अपनी रिपोर्ट तैयार की थी.

पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने कहा, “कर्नाटक के अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय काफी समय से मांग कर रहे हैं कि उनके आरक्षण को जनसंख्या के अनुसार बढ़ाया जाना चाहिए. 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश की एससी–एसटी समुदाय की आबादी 24.10 फीसदी है, जबकि आरक्षण 18 फीसदी है. इसलिए, कांग्रेस-जेडी (एस) गठबंधन सरकार के दौरान, जस्टिस नागमोहन दास आयोग का गठन किया गया था. लेकिन जब तक यह रिपोर्ट प्रस्तुत करता सरकार गिर गई थी.”

सिद्धारमैया ने कहा कि रिपोर्ट सौंपे दो साल तीन महीने हो चुके हैं और बाद में सत्ता में आई बीजेपी सरकार ने अब तक इसे न तो स्वीकार किया है और न ही लागू किया है. इसलिए, समुदाय विरोध कर रहे हैं, विशेष रूप से ‘वाल्मीकि’ (एसटी) जो पिछले कुछ समय से धरने पर हैं.

कर्नाटक में आदिवासी आबादी

2011 की जनगणना के अनुसार कर्नाटक की कुल आबादी का करीब 7 प्रतिशत आदिवासी है. इसके अलावा यहां पर कम से कम 50 अलग अलग जनजातियों के लोग रहते हैं. इनमें से 14 जनजाति यहां के मूल आदिवासी समुदाय हैं. इनमें से जेनू कुरूबा और कोरगा समुदाय को पीवीटीजी यानि विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति के तौर पर पहचाना गया है.

कर्नाटक में आदिवासी आबादी में शिक्षा का स्तर अन्य समुदायों की तुलना में बेहद चिंताजनक है. राज्य के आदिवासी समुदायों में 1991 में साक्षरता दर 36 प्रतिशत थी. यह दर 2001 की जनगणना में 48.3 प्रतिशत बताई गई. उसके बाद साल 2011 की जनगणना में यह बताया गया कि कर्नाटक की आधी से ज़्यादा आबादी यानि करीब 53.9 प्रतिशत साक्षर हो चुकी है.

जबकि बाकी समुदाय में 2011 की जनणना बताता है कि उनमें साक्षरता दर बढ़ कर 75 प्रतिशत हो चुकी थी.

कर्नाटक के आदिवासी इलाकों में कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी भी एक बड़ा मसला है. अफ़सोस की बात ये है कि राज्य में आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं और चुनौतियों पर बेहद कम शोध या आंकड़े उपलब्ध हैं.

ज़ाहिर है शोध और आंकड़े अगर उपलब्ध नहीं होंगे तो सही नीतिया बनाना भी संभवन नहीं है.

आरक्षण बढा़ने में कठिनाई

अगर कर्नाटक में जस्टिस नागमोहन दास कमेटी की रिपोर्ट लागू होती है तो राज्य में विभिन्न श्रेणियों का आरक्षण 50 प्रतिशत के पार चला जाता है. अगर ऐसा होता है तो यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन होगा.

इस सिलसिले में जस्टिस नागमोहन दास ने एक इंटरव्यू में कहा था कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को 50 प्रतिशत तक सीमित रखने के आदेश का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं दिया है.

वो कहते हैं कि इस बारे में खुद सुप्रीम कोर्ट पुनर्विचार कर रहा है. उनका कहना है कि आर्थिक तौर पर पिछड़ों को 10 प्रतिशत आरक्षण दे कर केंद्र सरकार खुद इस सीमा को तोड़ चुकी है.

उनकी राय में साल 2015-16 में कर्नाटक में हुए सामाजिक आर्थिक सर्वे को आधार बना कर इस फ़ैसले का बचाव किया जा सकता है.

कर्नाटक में अगले साल यानि 2023 में चुनाव है. इसलिए सत्ताधारी दल और विपक्ष में एक प्रतिस्पर्धा रहेगी. उम्मीद है कि इस मुकाबले की वजह से आदिवासी और राज्य के दूसरे वंचित समाजों के मसलों को बहस और घोषणा पत्रों में जगह मिलेगी.

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