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झारखंड की जेलों में किन वजहों से बंद रहने को मजबूर हैं आदिवासी

राज्य में अवस्थित केंद्रीय जेलों को छोड़कर हर जिला के कारागार या उप- कारागार में कैदियों की संख्या जेलों की क्षमता से कई गुना अधिक है. जिला कारा अथवा उप कारा में बंदियों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक होना आम बात है. किसी- किसी जेल में उनकी संख्या दोगुनी अथवा तिगुनी भी है.

बीते महीने 26 नवंबर को आयोजित संविधान दिवस के मौके पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मामूली अपराधों में वर्षो से कैद आरोपियों द्वारा जमानत की शर्तें पूरी न कर पाने वालों को जेल से रिहाई की चर्चा की थी. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मामूली अपराधों में जेल में बंद ऐसे आरोपियों की जानकारी मांगी थी, जो जमानत की शर्तें पूरी न कर पाने की वजह से जेलों में बंद हैं.

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने कहा था, “कौन लोग हैं जेल में, न उनको संवैधानिक अधिकार के बारे में पता है, न उनको प्रस्तावना के बारे में पता है. न संवैधानिक कर्तव्य के बारे में पता है. आप जानते हैं वहां के लोग थोड़ा खाने पीने में दूसरा (नशे) माहिर होते हैं. थोड़ा बहुत कुछ थप्पड़ मार दिया, उस पर क्या क्या दफा लगा दिया, जो लगाना नहीं चाहिए. घरवाले उन्हें सालों तक जेल से छुड़ाते नहीं हैं. क्योंकि उनको लगता है कि जो भी बचा धन दौलत है, वह मुकदमा लड़ने में बर्बाद हो जाएगा. इनके लिए कुछ करना होगा.’’

ऐसे में झारखंड के जेलों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि यहां 90 प्रतिशत बंदी निरक्षर हैं या बारहवीं तक ही पढ़े-लिखे हैं. गांव के बहुत सारे लोग पढ़े-लिखे नहीं होने के कारण यह भी नहीं जानते कि उन्हें किस आरोप में और क्यों पकड़ा गया है. पति या बेटे के जेल चले जाने के बाद गांव में रहने वाली उनकी मां, पत्नी या कोई अन्य यह भी नहीं जानते कि आगे क्या करना है. ऐसी स्थिति में लोग लंबे समय तक जेल में पड़े रहते हैं.

झारखंड के जेलों में बंद कैदियों की स्थिति जानने के लिए खूंटी स्थित हॉफमैन लीगल सेल के संचालक और मानवाधिकार कार्यकर्ता फादर अनूपचंद मिंज ने आरटीआई के जरिए राज्य के विभिन्न जेलों से सूचनाएं हासिल की है.

वे बताते हैं कि खूंटी जिले में पुलिस द्वारा दर्ज प्राथमिकी के अधिकतर मामलों में स्वतंत्र गवाह नहीं होते. इसका मुख्य कारण पुलिस वालों को देखकर गांव वालों का भाग जाना यानि किसी स्वतंत्र गवाह का मौजूद न होना है. ऐसे में पुलिस वाले अपने द्वारा दर्ज एफआईआर में खुद ही साक्ष्य भी बन जाते हैं.

उन्होंने बताया कि 90 प्रतिशत से अधिक कैदी निरक्षर हैं या फिर उन्होंने अधिकतम 12वीं तक की पढ़ाई की है. यह भी तथ्य है कि राज्य के जेलों में लगभग इतने ही प्रतिशत बंदी दूरदराज के गांव, बस्तियों के हैं.

दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राज्य में अवस्थित केंद्रीय जेलों को छोड़कर हर जिला के कारागार या उप- कारागार में कैदियों की संख्या जेलों की क्षमता से कई गुना अधिक है. जिला कारा अथवा उप कारा में बंदियों की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक होना आम बात है. किसी- किसी जेल में उनकी संख्या दोगुनी अथवा तिगुनी भी है.

आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी दिखता है कि एक साल में जितने लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाला गया, लगभग उतने ही लोगों को कार्टकोर्ट से जमानत भी मिली. इसका अभिप्राय यह है कि या तो उनके मामले गिरफ्तारी के लायक नहीं थे, वे ज्यादा गंभीर मुद्दे नहीं हैं अथवा उनको बिना अपराध के महज फंसाया गया था.

प्रतिशत के हिसाब से अनुसूचित जनजाति बंदियों की सबसे ज्यादा संख्या पाकुड़ जेल में है, जहां लगभग सौ फीसदी बंदी आदिवासी हैं. इसके बाद देवघर सेंट्रल जेल में 86 प्रतिशत और खूंटी जेल में 77 प्रतिशत है. अनुसूचित जाति के बंदियों की संख्या सबसे ज्यादा बोकारो जेल में है, जो 69 प्रतिशत है. दूसरे नंबर पर चाईबासा जेल (38 प्रतिशत) और तीसरे नंबर पर तेनूघाट जेल (27 प्रतिशत) है.

राष्ट्रपति ने ये भी कहा था कि इन कैदियों में अधिकतर गरीब आदिवासी हैं, जो छोटे अपराधों में शामिल रहे, जिनके ऊपर जो धारा नहीं लगनी चाहिए, वो लगे हैं. अगर ऐसा है तो इसमें गलती किसकी अधिक होती है?

ऐसे समय में जब देश की राष्ट्रपति ने जेलों में विचाराधीन कैदियों के बारे चिंता जताई है तो झारखंड के जेलों में लंबे समय से मामूली अपराधों में वर्षो से कैद विचाराधीन कैदियों की ओर भी ध्यान देने की जरूत है.

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