HomeAdivasi Dailyआंध्र प्रदेश: कोया आदिवासियों का अपनी ज़मीन पर आखिरी ‘भूमि पांडुगा’

आंध्र प्रदेश: कोया आदिवासियों का अपनी ज़मीन पर आखिरी ‘भूमि पांडुगा’

यह आखिरी बार है जब कोया आदिवासी पोलावरम सिंचाई परियोजना के आसपास के अपने पैतृक गांवों में भूमि पांडुगा मना रहे हैं. अलगे साल के त्यौहार से पहले सरकार इन्हें यहां से हटाकर पुनर्वास कॉलोनियों में शिफ़्ट कर चुकी होगी.

आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी ज़िले के चिंटूर एजेंसी इलाक़े में कोया आदिवासियों की बस्तियां पिछले कुछ दिनों से गुलजार हैं. बस्ती के निवासी हर सुबह अपने तीर-कमान लेकर जंगलों में शिकार के लिए निकल पड़ते हैं.

परंपरा के अनुसार कोया आदिवासी ‘भूमि पांडुगा’ मनाने के हिस्से के रूप में शिकार पर जाते हैं. भूमि पांडुगा हर साल खेती की शुरुआत से पहले मनाया जाता है.

लेकिन इस साल बात थोड़ी अलग है. इस बार एक तरफ़ जहां त्यौहार का माहौल है, तो दूसरी तरफ़ इन आदिवासियों के बीच एक मायूसी भी है.

वजह यह है कि यह आखिरी बार है जब कोया आदिवासी पोलावरम सिंचाई परियोजना के आसपास के अपने पैतृक गांवों में भूमि पांडुगा मना रहे हैं. अलगे साल के त्यौहार से पहले सरकार इन्हें यहां से हटाकर पुनर्वास कॉलोनियों में शिफ़्ट कर चुकी होगी.

जलमग्न होने का ख़तरा

इन कोया आदिवासियों के पुनर्वास ने तेज़ी इसलिए पकड़ी है क्योंकि बारिश के मौसम में गोदावरी का पानी इनके गांवों तक पहुंच चुका है, और इन गांवों के डूबने का ख़तरा बढ़ गया है.

अपनी निराशा जताते हुए इन आदिवासियों ने एक अखबार को बताया कि उनके पूर्वजों ने इस ज़मीन को जोता था और इन जंगलों में शिकार किया था. इस जगह से शिफ़्ट होने का मतलब सिर्फ़ ज़मीन और जंगल को छोड़ना नहीं, बल्कि एक तरह से अपनी परंपराओं को भी पीछे छोड़ना है.

इन आदिवासियों का कहना है कि पुनर्वास कॉलोनियां इनके घरों से बहुत दूर हैं, इसलिए यह आखिरी ‘भूमि पांडुगा’ है जिसे वह अपने गांवों में मना रहे हैं. इस परिस्थिति में इस साल के उत्सव को भव्य रूप से मनाया जा रहा है.

कोया आदिवासियों ने गुरुवार को अपने गांव के पास वाले जंगल में तीन दिन का शिकार कार्यक्रम शुरू किया. पुरुषों के लिए शिकार पर जाना त्यौहार मनाने के लिए अनिवार्य है. और जो शिकार किया जाता है, वो शाम को एक दावत में गांव के सभी परिवारों के बीच बंट जाता है.

चिंटूर-उलुमुरु इलाक़े के कई गांव इस हफ़्ते इस त्यौहार को मना रहे हैं, जबकि दूसरी कोया बस्तियों ने इसे जून में मनाया था. आदिवासी बुज़ुर्ग बताते हैं कि हर गांव उत्सव की तारीखें खुद तय करता है.

आजीविका का मसला

इन कोया आदिवासियों में अपने पैतृक गांवों को छोड़ने के दर्द के अलावा, आजीविका को लेकर डर भी है. यह आदिवासी आजीविका के लिए जंगल पर ही निर्भर हैं.

अब नई जगह शिफ़्ट होने के बाद उनका जीवन कैसे चलेगा, किसा को कोई अंदाज़ा नहीं है. नई बस्तियों के आसपास जंगल नहीं है. ऐसे में इन आदिवासियों के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर गहरा असर पड़ेगा.

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